मेवाड़ महाराणा कर्णसिंह (भाग – 1)

महाराणा कर्णसिंह का जन्म व व्यक्तित्व :- वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के पौत्र व महाराणा अमरसिंह के पुत्र कुँवर कर्णसिंह का जन्म 7 जनवरी, 1584 ई. को हुआ। कुँवर कर्णसिंह अपने जन्म से ही राजसी वैभव से परे जंगलों में व छोटे महलों में रहे।

महाराणा कर्णसिंह का रंग गेहुवां, कद मंझला, आंखें बड़ी और चेहरा हंसमुख था। इन महाराणा को अपनी पद प्रतिष्ठा का रत्ती भर भी घमंड नहीं था। इनका स्वभाव बहुत ही सरल व मिलनसार था। ये बड़े ही पितृभक्त थे। छापामार लड़ाइयों की कुशलता में ये अपने पिता की तुलना में कमतर अवश्य थे, परन्तु फिर भी काफी बहादुर थे।

महाराणा कर्णसिंह मितव्ययी थे। मेवाड़ के महाराणा अक्सर जितना धन खर्च करते थे, उनके मुकाबले महाराणा कर्णसिंह ने बहुत कम धन खर्च किया। इसके बारे में महाराणा कर्णसिंह कहा करते थे कि हमने अपने जीवन की शुरुआत में काफी तकलीफ देखी है, इस खातिर अपव्यय करना हमारे लिए वाजिब नहीं है।

कुँवर कर्णसिंह

महाराणा कर्णसिंह के कुँवरपदे काल की प्रमुख घटनाएं :- 1606 ई. में कुँवर कर्ण ने जहांगीर के बेटे परवेज़ से मांडल में युद्ध किया। इसके अतिरिक्त देबारी की लड़ाई में भी कुंवर कर्णसिंह मौजूद थे। देबारी की लड़ाई में परवेज़ को भागकर अपनी जान बचानी पड़ी थी।

1611 ई. में कुँवर कर्ण के नेतृत्व में मेवाड़ी फौज को अहमदाबाद से आगरा जा रहे खजाने को लूटने भेजा गया। कुँवर ने इस बार जाने में देरी कर दी, जिससे खजाना पहले ही अजमेर पहुंचा दिया गया। फिर यहां निकट के मुगल अधीनस्थ राठौड़ राजपूतों की सेना से लड़ाई हुई, जिसमें कुँवर कर्ण ने शिकस्त खाई।

1611 ई. में ही रणकपुर के दर्रे में अब्दुल्ला खां की फौज से कुंवर कर्णसिंह का मुकाबला हुआ, जिसमें कुंवर कर्ण पराजित हुए। कुछ देर बाद इन्हीं के बीच रणकपुर का प्रसिद्ध युद्ध हुआ, जिसमें कुंवर कर्ण ने अब्दुल्ला खां को पराजित किया। इस लड़ाई में मेवाड़ के कई बड़े वीर काम आए, परन्तु फिर भी विजयश्री मेवाड़ के नाम रही।

महाराणा अमरसिंह के आदेश से कुँवर कर्णसिंह ने मुगल अधीनस्थ प्रदेश मालवा पर आक्रमण किया और वहाँ सिरोंज व धंधेरा नगरों को लूटकर ध्वस्त किया। यह आक्रमण बहुत तीव्र व सफल रहा। इस लड़ाई में कुँवर कर्ण की प्रशंसा हेतु कई दोहे लिखे गए।

प्रगट कोट गढ़ पाड़, साही धरा पलटजै, सुणै सेखू तणों उवर सीधो। जान कर परणवा जावतां जैतहत, करण तैं मालवो फतै कीधो।। अर्थात हे वीर कर्णसिंह, बारात लेकर ब्याहने जाते समय आपने मालवा पर विजय प्राप्त कर ली।

धर नयर बधूंसे तेण रिव धुंधलो, अमरवत आद सेवरै अणभंग। सिखर असपत तणों उवर छीनो नहीं, सुणे सुरताण तो अभनमा संग।। अर्थात हे महाराणा अमरसिंह जी के पुत्र, तुमने मुगलों की भूमि और उनके नगरों का नाश कर डाला, जिससे सूर्य धुंधला हो गया। अतः हे राणा के पुत्र, तुम्हारा मुकुट अभंग है। तुमने मालवा क्या छीना है, मानो बादशाह का उदर छीन लिया।

1615 ई. में मेवाड़ के सामंतों ने कुँवर कर्णसिंह के ज़रिए मुगलों से सुलह की। सन्धि के बाद कुँवर कर्णसिंह जब अजमेर में जहांगीर के दरबार में पहुंचे, तो उनका बड़ा सम्मान किया गया, जिसका वर्णन प्रत्यक्षदर्शी राजदूत टॉमस रो ने भी किया।

जहांगीर

जहाँगीर ने कुँवर कर्णसिंह को बहुत ही महंगे तोहफे दिए थे। कुँवर कर्णसिंह लगभग 4 महीने तक वहां रहे। इस दौरान भामाशाह जी कावड़िया के पुत्र जीवाशाह जी कावड़िया भी कुंवर कर्ण के साथ थे। जहांगीर और कुँवर कर्णसिंह एक बार शिकार के लिए साथ में गए थे।

जहाँगीर ने कुँवर कर्णसिंह को 2 लाख रुपए, 110 घोड़े और 5 हाथी भेंट किए थे। जहांगीर ने कुंवर कर्णसिंह को अपने दरबार में सभी राजा महाराजाओं से ऊपर का स्थान दिया था और पांच हजारी मनसबदारी भी प्रदान कर दी।

इतनी बड़ी मनसबदारी बड़े बड़े राजाओं को भी तब मिलती थी, जब वे कुछ वर्षों तक मुगल सेवा में रहे और बेहतर कार्य करे। परन्तु कुँवर कर्णसिंह को ये मनसबदारी बिना कुछ किए ही मुगल दरबार में जाते ही मिल गई थी।

फिर कुँवर कर्णसिंह उदयपुर लौट आए, जहां महाराणा अमरसिंह ने कुँवर कर्णसिंह को राजपाट सौंपकर एकांतवास किया, जिसका विस्तृत वर्णन पहले ही महाराणा अमरसिंह के इतिहास की सीरीज में कर दिया गया है।

जहांगीर के आदेश से महाराणा अमरसिंह व कुंवर कर्ण सिंह की संगमरमर की पूरे आकार की मूर्तियाँ बनवाकर आगरा के बाग में रखवाई गई। ऐसा सम्मान जहांगीर के शासनकाल में किसी और योद्धा को नहीं मिला था।

21 नवम्बर, 1616 ई. को कुँवर कर्णसिंह ने काजी मुल्ला जमाल से बड़ी पोल दरवाज़े पर अरबी की आयत व एक फारसी शिअर (शेर) खुदवाया, जिससे मुसलमान लोग भविष्य में किले के दरवाजे ना तोड़े।

ये शेर कुछ इस तरह था :- “हरकि दरीं खान, नज़र वद कुनद, चश्म शवद कोरो शिकम दर्द कुनद” अर्थात अगर कोई इस महल में बदनिगाह करे, तो उसकी आँख अंधी हो और पेट दर्द करे।

कुँवर कर्णसिंह दिल्ली में जहांगीर के दरबार में गए, जहां वे कुछ दिन रहे और पुनः मेवाड़ लौट आए। लौटते समय वे मालपुरा गए थे। जब बेगूं के रावत मेघसिंह महाराणा अमरसिंह व कुँवर कर्णसिंह से नाराज होकर जहांगीर के पास चले गए थे और मालपुरे की जागीर पाई थी, तब कुँवर कर्णसिंह मालपुरा जाकर रावत मेघसिंह को मनाकर अपने साथ उदयपुर ले आए। इस घटना से मालूम पड़ता है कि कुंवर के हृदय में सामन्तों के प्रति बहुत अपनत्व का भाव था।

उदयपुर सिटी पैलेस

1617 ई. में जब ख़ुर्रम दक्षिण की चढ़ाई पर जा रहा था, तब सन्धि की शर्त के मुताबिक कुँवर कर्णसिंह भी 1500 मेवाड़ी सैनिकों को लेकर ख़ुर्रम के साथ दक्षिण अभियान में गए। कुँवर कर्णसिंह ने इस अभियान में वीरता दिखाई और पुनः मेवाड़ लौट आए। 3 नवम्बर, 1618 ई. को ख़ुर्रम और मुमताज महल के बेटे औरंगज़ेब का जन्म हुआ।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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