मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 40)

भंवर जगतसिंह का दिल्ली प्रस्थान :- 1616 ई. में जब कुँवर कर्णसिंह दिल्ली जाकर लौट आए, तब उनके पुत्र भंवर जगतसिंह को दोबारा दिल्ली भेजा गया। जहांगीर जब कश्मीर दौरे पर निकला, तब भंवर जगतसिंह और राजा भीमसिंह को भी अपने साथ ले गया। राजा भीमसिंह महाराणा अमरसिंह के पुत्र थे।

उपहारों का आदान-प्रदान :- 1615 ई. के बाद से ही उपहारों का आदान-प्रदान भी लगातार होता रहा। मेवाड़ की तरफ से एक बार अंजीर के कुछ टोकरे जहांगीर के पास भिजवाए गए, जिनके बारे में जहांगीर लिखता है कि “राणा के भेजे हुए फल वास्तव में बहुत अच्छे थे। पूरे हिंदुस्तान में मैंने ऐसे लज़ीज़ अंजीर नहीं देखे।”

एक बार महाराणा अमरसिंह की तरफ से जहांगीर के पास 2 घोड़े, गुजराती वस्त्रों का एक थान और अचार-मुरब्बे से भरे कई बर्तन भिजवाए गए। जहांगीर ने महाराणा के लिए एक घोड़ा और गजराज नामक एक युद्धप्रिय हाथी भिजवाया।

ख़ुर्रम व महाराणा अमरसिंह की दूसरी बार मुलाकात :- 1617 ई. में ख़ुर्रम सेना सहित दक्षिण की तरफ सैन्य अभियान के लिए रवाना हुआ। जाते समय उसने मेवाड़ की सरहद पर पड़ाव डाला। यहां महाराणा अमरसिंह और ख़ुर्रम की दोबारा मुलाकात हुई। ख़ुर्रम ने महाराणा को जड़ाऊ तलवार, घोड़े, हाथी, खिलअत आदि भेंट किए।

महाराणा अमरसिंह

महाराणा अमरसिंह ने ख़ुर्रम को 5 हाथी, 27 घोड़े, जवाहरातों से भरा हुआ एक थाल भेंट किया, जिसमें से ख़ुर्रम ने सिर्फ 3 घोड़े रखे और बाकी सब महाराणा को वापिस कर दिए। सन्धि की एक शर्त के मुताबिक महाराणा को 1500 सवार आवश्यकता पड़ने पर शाही सैन्य अभियानों में भेजने थे।

इस ख़ातिर ख़ुर्रम के दक्षिण सैन्य अभियान में कुँवर कर्णसिंह को 1500 मेवाड़ी सैनिकों सहित भेजा गया। कुँवर कर्णसिंह ने दक्षिण के सैन्य अभियानों में बहादुरी दिखाई और फिर जहाँगीर के दरबार में जाने के बाद पुनः मेवाड़ लौट आए।

जहांगीर द्वारा महाराणा अमरसिंह व कुँवर कर्णसिंह की मूर्तियां बनवाना :- तुजुक-ए-जहांगीरी में जहाँगीर लिखता है “मैंने मूर्ति बनाने में फुर्ती रखने वाले कारीगरों को हुक्म दिया था कि मर्मर पत्थर को काटकर राणा अमरसिंह और कुँवर कर्णसिंह की पूरे कद की मूर्तियां बनवाकर मेरे सामने लाई जावे। राणा अमर और कुँवर कर्ण की मूर्तियाँ बनकर मेरे सामने लाई गई, तो मैंने उनको झरोखे के नीचे आगरा के शाही बगीचे में रखवा दिया।”

इस वक़्त तक आगरा के किले में मेवाड़ के 4 वीरों की मूर्तियां लग चुकी थीं, जिनमें से दो मूर्तियां वीरवर जयमल मेड़तिया और रावत पत्ता चुंडावत की थीं, जो अकबर ने उनकी बहादुरी देखकर बनवाई थी।

जहाँगीर ने मेवाड़ पर फतह हासिल करने की मन्नत मांगी थी। अपनी मन्नत पूरी करने के लिए जहांगीर ने अजमेर ख्वाजा की दरगाह के घेरे में जाली सहित सोने का कटघरा लगवाया। इसके निर्माण में 1 लाख 10 हज़ार रुपए खर्च हुए थे।

जहांगीर

बेगूं का बखेड़ा :- इन दिनों बेगूं के रावत मेघसिंह चुण्डावत व शक्‍तावतों में बखेड़ा खड़ा हुआ। बेगूं में रहने वाले पीथा शक्‍तावत रावत मेघसिंह को अपना मालिक नहीं मानते थे। इसलिए रावत मेघसिंह ने उनका गांव जला दिया, तब पीथा शक्‍तावत ने महाराज शक्तिसिंह के पौत्र नारायणदास शक्‍तावत से मदद मांगी।

नारायणदास शक्तावत ने 1200 शक्‍तावत व राठौड़ राजपूतों समेत बेगूं पर चढ़ाई कर दी। इस समय रावत मेघसिंह कहीं बाहर विवाह करने गए हुए थे। बेगूं के महलों में रावत मेघसिंह के बड़े बेटे नरसिंहदास थे। नरसिंहदास ने डरकर महल के दरवाज़े बंद कर दिए।

नारायणदास शक्‍तावत बेगूं के महल के चारों तरफ चक्कर लगाकर एक हाथी लेकर चले गए। रावत मेघसिंह जब बेगूं आए, तो नरसिंहदास की कायरता पर नाराज़ होकर उनको महल से निकाल दिया। वंश नाश को बेमतलब समझकर रावत मेघसिंह ने शक्‍तावतों से कोई झगड़ा नहीं किया।

कुछ दिन बाद रावत मेघसिंह की लड़ाई मेवाड़ के भैंसरोडगढ़ ठिकाने के सामंत केशवदास पंवार से हुई। इस लड़ाई में रावत मेघसिंह के बेटे राजसिंह ने केशवदास को भाला मारकर हाथी से गिरा दिया। केशवदास अपने 2 पुत्रों सहित काम आए।

रावत मेघसिंह ने भैंसरोडगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। ये ख़बर महाराणा अमरसिंह के पास पहुंची तो महाराणा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने रावत मेघसिंह को चेतावनी देकर भैंसरोडगढ़ की जागीर फिर से पंवार राजपूतों को दे दी।

जब रावत मेघसिंह अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रहे थे, तब उन्होंने महाराणा अमरसिंह के पास अर्जी भिजवाई और कहलवाया कि मेरे मरने के बाद मेरे ठिकाने का मालिक मेरे बेटे राजसिंह को बनाया जावे।

महाराणा अमरसिंह ने आपस के झगड़े मिटाने के लिए नरसिंहदास चुंडावत को गोठोलाई की बड़ी जागीर और राजसिंह चुंडावत को बेगूं, रतनगढ़ आदि जागीरें देकर दोनों को बराबर का दर्जा दिया। महाराणा अमरसिंह द्वारा दिखाई गई इस सूझबूझ ने एक बड़े कलह को रोक लिया।

बेगूं के महल

सिरोही का बखेड़ा :- सिरोही के शासक इस समय राव राजसिंह देवड़ा थे, जो कि महाराव सुरताण देवड़ा के पुत्र थे। राव राजसिंह कुँवर कर्णसिंह के भाणजे थे। सिरोही के सामंत पृथ्वीराज देवड़ा अपना वर्चस्व बढ़ाकर सिरोही पर कब्ज़ा करने की योजना बना रहे थे।

कुँवर कर्णसिंह ने सिसोदिया पर्वतसिंह को राव राजसिंह की मदद खातिर भेजा। लेकिन एक दिन पृथ्वीराज देवड़ा ने राव राजसिंह की धोखे से हत्या कर दी। पृथ्वीराज ने राव राजसिंह के 2 वर्षीय पुत्र अखैराज को भी मारना चाहा, परंतु उनकी धाय ने उनको बचा लिया।

कुँवर कर्णसिंह ने ये बात एकांतवास में रह रहे महाराणा अमरसिंह को बताई, तो महाराणा ने फौज भेजकर पृथ्वीराज को सिरोही की गद्दी से खारिज किया और बालक अखैराज को सिरोही का मालिक बनाया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!