5 फरवरी, 1615 ई. को हुई मेवाड़-मुगल सन्धि के बाद कुँवर कर्णसिंह जहांगीर के अजमेर दरबार में गए थे, जहां उन्हें बहुत ही कीमती तोहफे आदि देकर बहुत सम्मान दिया गया था। 21 मई, 1615 ई. को कुँवर कर्णसिंह को जागीर दी गई। इस जागीर के लिए जहांगीर ने एक फरमान जारी किया।
इस फरमान में लिखा है कि “इकरारों के मुवाफिक इस वक्त में बड़े दर्जे वाला फरमान मिहरबानी के तरीके से जारी किया जाता है कि पांच करोड़ तीस लाख छ: हजार आठ सौ बत्तीस दाम बुजुर्ग सरदार मिहरबानियों के लायक बादशाह के पसंदीदा कुँवर कर्ण, बड़ी इज्जत वाले खानदानी राणा अमरसिंह के बेटे की जागीर में मुकर्रर होकर सौंपे जाते हैं।” (बुजुर्ग से आशय पद व प्रतिष्ठा में बड़ा होना है)
इस फरमान में आगे लिखा है कि “मुनासिब है कि बड़े हाकिम अहलकार, जागीरदार और कामदार दीवानी वाले, बादशाही हुक्म मानने वाले और कामों को सम्हालने वाले, बड़े पाक हुक्म के मुताबिक तामील करके उन परगनों की ज़िक्र किये हुए आदमी के कब्जे में छोड़कर वहां के कायदों में किसी तरह का फ़र्क़ न डालें।”
फरमान में आगे लिखा है कि “चौधरी, कानूनगो, पटेल, रउम्मत और किसानों को चाहिए कि नीचे लिखे आदमी (कुँवर कर्ण) को अपना जागीरदार मुवाफिक फसल फसल पर और वर्ष वर्ष पर जवाबदिही करते रहें। किसी तरह इस काम में कमी न करें। कुँवर कर्ण के हिसाबी गुमाश्तों की सलाह और तदवीर से बर्ख़िलाफ़ न होकर उनकी जगह में उनके पास हाजिर होते रहे। हुक्म से बर्ख़िलाफ़ कोई काम न हो, अपने कायदे पर जमे रहे।”
इस फरमान का सीधा सा आशय ये है कि इसमें जहांगीर द्वारा जो परगने कुँवर कर्णसिंह को दिए गए, उनमें तैनात अधिकारियों को सतर्क रहने के लिए कहा गया है कि वे सब उनके नए जागीरदार कुँवर कर्णसिंह के आदेशों को माने और उनसे बगैर सलाह लिए कोई काम न करे। किसी प्रकार से कुँवर कर्णसिंह के आदेशों की अवहेलना न की जावे।
जहांगीर ने कुँवर कर्णसिंह को पांच हजार जात और पांच हजार सवार का मनसब दिया। इतना मनसब शुरुआत में किसी रियासत के कुँवर को तो क्या, बड़े से बड़े राजा को भी नहीं दिया जाता था। लेकिन कुँवर कर्णसिंह को ये मनसब मुगल दरबार में पहली दफा जाते ही मिल गया।
जहांगीर की तरफ से जो जागीरें कुँवर कर्णसिंह को सौंपी गई उनमें मेवाड़ की कुछ जागीरें तो थी ही, साथ में रतलाम, उज्जैन, नीमच, जीरन, अरनोद में से भी कुछ परगने थे। जहांगीर ने मेवाड़ के विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया को अजमेर में जो परगने दिए थे, उनका बड़ा हिस्सा फूलिया परगने समेत कुँवर कर्णसिंह को जागीर में दे दिया।
इन जागीरों में कुछ परगने वे भी थे, जो महाराणा अमरसिंह के क्षेत्राधिकार में आते थे। इनमें उदयपुर के कुछ परगने भी शामिल थे। इस प्रकार कुँवर कर्णसिंह को भरपूर जागीरें देने के बाद 5 जून, 1615 ई. को अजमेर से विदाई दे दी गई। 3 माह 17 दिन तक अजमेर में रहने के बाद 5 जून को कुँवर कर्णसिंह मेवाड़ के लिए रवाना हुए।
कुँवर कर्णसिंह से जितना सम्भव हो सका, मेवाड़ के उतने हिस्से को आबाद करते हुए उदयपुर पहुंचे। अनेक कीमती उपहारों, घोड़े व हाथियों समेत कुँवर कर्णसिंह ने उदयपुर के राजमहल में प्रवेश किया, तो अपने पिता को बहुत ही रंजीदा हालात में पाया।
इस समय महाराणा अमरसिंह अपने बनवाए हुए अमर महल में अकेले मौन बैठे थे। महाराणा को कुँवर कर्ण के आने की खबर मिली, तो वे अमर महल से बाहर आए और आते ही समस्त राजपाट कुँवर कर्णसिंह के हवाले कर दिया।
महाराणा अमरसिंह ने शमशान के निकट बनवाए हुए महलों की तरफ प्रस्थान किया और वहीं शेष जीवन बिताना तय किया। संघर्ष के काल में मेवाड़ के बहुत से लोग मेवाड़ छोड़कर चले गए थे, इसलिए कुँवर कर्णसिंह ने प्रजा को बुला-बुलाकर मेवाड़ को पुनः आबाद किया।
कुँवर कर्णसिंह ने मेवाड़ में व्यापार को प्रोत्साहन दिया। मेवाड़ में पुनः किसानों ने समतल भूमि पर खेती करना प्रारंभ किया। कलाकार, साहित्यकार आदि विद्वानों को भी मेवाड़ में प्रोत्साहन दिया गया। मेवाड़ पुनः फलने फूलने लगा। जो बर्बादी अब तक हुई थी, उसकी भरपाई होने लगी।
महाराणा अमरसिंह के विश्वासघाती काका सगरसिंह सिसोदिया को उसकी हैसियत पता चल गई। क्योंकि जब जहांगीर का काम बन गया, तो उसने सगरसिंह से ‘राणा’ का खिताब छीन लिया और उसे चित्तौड़ का किला छोड़कर अपनी सेवा में हाजिर होने का आदेश दिया।
सगरसिंह मुगल दरबार में गया, जहां उसे मालूम हुआ कि चित्तौड़ जैसा विशाल किला तो उसके हाथ से गया ही था, साथ-साथ अजमेर के फूलिया आदि परगने भी उसके हाथ से निकलकर कुँवर कर्णसिंह के हाथों में चले गए। जहांगीर ने सगरसिंह को ‘रावत’ की पदवी दे दी।
जहांगीर ने सगरसिंह को भदौरा का परगना जागीर में दे दिया, जहां अब तक सगरसिंह के वंशज मौजूद हैं। इस तरह सगरसिंह को अपमान का विष पीना पड़ा। कोई पुख़्ता तथ्य नहीं है, परन्तु कहा जाता है कि सगरसिंह ने इन अपमानों को सहने के बाद आत्महत्या कर ली।
भंवर जगतसिंह का अजमेर प्रस्थान :- कुँवर कर्णसिंह जहांगीर के पास कुछ अर्ज़ियाँ भेजना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र भंवर जगतसिंह को हरिदास झाला समेत बहुत से राजपूतों के साथ अजमेर भेजा। कुछ दिन के सफर के बाद भंवर जगतसिंह अजमेर पहुंचे।
जहांगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “मेवाड़ के कुँवर कर्णसिंह का बेटा जगतसिंह मेरे पास आया, उसकी उम्र 12 साल थी। उसने अपने दादा राणा अमरसिंह और पिता कर्णसिंह की तरफ से कुछ अर्ज़ियाँ पेश की। जगतसिंह के चेहरे से उसके महान कुल का तेज साफ झलक रहा था। मैंने उसको एक खिलअत देकर उसके साथ अच्छा बर्ताव किया।”
कुछ दिन अजमेर में ठहरकर भंवर जगतसिंह ने मेवाड़ प्रस्थान की तैयारी की। जहांगीर लिखता है कि “जगतसिंह की रुखसत के दिन मैंने उसको 20 हज़ार रुपए, एक घोड़ा, एक हाथी, एक खिलअत और एक खास दुशाला दिया। राणा के खास सरदार और जगतसिंह के अर्तालीक (शिक्षक) हरिदास झाला को 5 हज़ार रुपए, एक घोड़ा और एक खिलअत दी। साथ ही मैंने राणा अमरसिंह के लिए एक सोने की छड़ी भी उनके साथ भिजवाई।”
इस प्रकार मेवाड़-मुगल सन्धि के बाद जहांगीर लगातार अनेक कीमती उपहार मेवाड़ वालों को भेंट करता जा रहा था। वह स्वयं भी मेवाड़ को एक महान वंश का दर्जा देने से हिचकिचाता नहीं था। परन्तु क्या मेवाड़ के कुँवर कर्णसिंह मन से इस शान-ओ-शौकत को पसन्द कर चुके थे !
निसंदेह, कुँवर कर्णसिंह जिन्होंने कभी शाही दरबार नहीं देखे थे, जो पैदा ही जंगलों में हुए और वहीं पले बड़े हुए, उनके लिए अचानक से इतने परिवर्तन और शान देखकर चौंकना आश्चर्य की बात नहीं थी। लेकिन कुँवर कर्णसिंह जानते थे कि मेवाड़ के लिए ये शांतिकाल भविष्य में मेवाड़ को मुगल सत्ता से चुनौती लेने में अवश्य मददगार सिद्ध होगा। कुँवर कर्णसिंह जानते थे कि मेवाड़ के पुनः सक्षम हो जाने पर इस सन्धि का भंग होना तय है।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)