मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 37)

5 फरवरी, 1615 ई. को हुई मेवाड़-मुगल सन्धि के बाद महाराणा अमरसिंह उदयपुर के राजमहलों में गए और कुँवर कर्णसिंह ने ख़ुर्रम के साथ अजमेर जाने की तैयारी शुरू की। महाराणा अमरसिंह शोक व आत्मग्लानि में डूबे हुए थे।

महाराणा अमरसिंह ने एकांतवास में रहने की ठान ली थी और राजपाट पहले ही कुँवर कर्णसिंह को सौंप दिया था, परन्तु कुँवर कर्णसिंह के अजमेर से वापस आने तक मेवाड़ का कार्यभार महाराणा अमरसिंह ने ही संभाला। इस दौरान महाराणा ने तय किया कि वे एकांतवास के दौरान उदयपुर राजमहलों में ना रहकर शमशान के पास रहेंगे।

महाराणा अमरसिंह ने शमशान के निकट कुछ साधारण कमरे बनवाए। एकांतवास में जाने से पूर्व महाराणा अमरसिंह ने लक्ष्मीनाथ को होली नाम का गांव दान में दिया और डूंगरसिंह को मेवाड़ का मुख्यमंत्री बनाया।

महाराणा अमरसिंह ने राजराणा हरिदास झाला को कुछ समय के लिए कानोड़ की जागीर दी। बाद में ये जागीर पुनः सारंगदेवोत राजपूतों को दे दी गई थी। इस प्रकार राजकाज के जो आवश्यक कार्य थे, वो कार्य महाराणा ने निपटाए।

महाराणा अमरसिंह

मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह राठौड़ ने मेवाड़ के खिलाफ कार्रवाई में ख़ुर्रम का अच्छा साथ दिया था। ख़ुर्रम ने राजा सूरसिंह की कार्रवाइयों की सिफारिश जहांगीर से की, तो जहांगीर ने राजा सूरसिंह को सादड़ी, नाडौल समेत 3 परगने दिए।

इसी वर्ष मुन्तखब-उत-तवारीख के लेखक अब्दुल कादिर बदायूनी की मृत्यु हो गई। अब्दुल कादिर बदायूनी ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और इस युद्ध का आंखों देखा हाल लिखा था। बाद में इसने अकबर के बांसवाड़ा अभियान में भी भाग लिया था।

सन्धि के 13 दिन बाद 18 फरवरी, 1615 ई. को ख़ुर्रम कुँवर कर्णसिंह को साथ लेकर अजमेर पहुंचा। अजमेर के देवरानी गांव में ख़ुर्रम ने पड़ाव डाला और मुहूर्त के हिसाब से अगले दिन जहाँगीर के सामने हाजिर होना तय किया। ख़ुर्रम अगले दिन देवरानी गांव से रवाना हुआ और बादशाही महलों में पहुंचा।

जहां जहांगीर के आदेश से सब अमीरों ने ख़ुर्रम और कुँवर कर्णसिंह की पेशवाई की। 19 फरवरी को ख़ुर्रम जहांगीर के सामने हाजिर हुआ, उस वक्त मुगल दरबार में इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम का एलची सर टॉमस रॉ भी मौजूद था।

टॉमस रॉ लिखता है “बादशाह जहाँगीर कभी भी मेवाड़ के राणा अमरसिंह को बल से नहीं जीत सका। उसने राणा के साथ दूसरे तरीकों से सुलह की थी। उसको अधीन करने से बादशाह की आय में कोई वृद्धि नहीं हुई, उल्टा बादशाह को बहुत कुछ देना पड़ा। बादशाह जहाँगीर ने कुँवर कर्णसिंह को पहले तो दाहिनी तरफ सब मनसबदारों से आगे पहले स्थान पर खड़ा किया, फिर कटहरे के भीतर बुलाया और उसका सिर चूमा।”

कुँवर कर्णसिंह

अपनी आत्मकथा में जहांगीर कुँवर कर्णसिंह के बारे में विस्तार से लिखता है कि “मैंने अपने बेटे ख़ुर्रम को गले लगाया और उसका सिर चूमा। फिर मैंने कहा कि कर्ण को आगे बुलाया जावे। मैंने ख़ुर्रम की गुज़ारिश पर कर्ण को मेरे सामने दाहिने हाथ की तरफ बिठाया। मैंने कर्ण को बहुत बढ़िया खिलअत और जड़ाऊ तलवार दी।

कर्ण का स्वभाव जंगली था। वो पहाड़ियों में रहा था और उसने कभी शाही दरबार नहीं देखे थे। उसके आने के दूसरे दिन मैंने उसको एक जड़ाऊ खंजर और तीसरे दिन एक जीन समेत ईराकी घोड़ा दिया। कर्ण जब शाही जनाने में गया, तो वहां नूरजहां बेगम ने उसको एक जड़ाऊ खंजर, एक जड़ाऊ तलवार, एक जीन समेत घोड़ा और एक हाथी दिया।

इसके बाद मैंने कर्ण को एक कीमती मोतियों की माला दी और अगले दिन एक खास सजा हुआ हाथी दिया। मैं उसको हर तरह के तोहफे देना चाहता था। मैंने उसको 3 बाज़, एक ख़ास तलवार और 2 अंगूठियां दी। एक अंगूठी में लाल और दूसरी अंगूठी में पन्ना जड़ा हुआ था।

महीने के आख़िर में मैंने अहदियों को हुक्म दिया कि हर तरह के कपड़े, गलीचे, तकिए, इत्र, सोने के बर्तन, दो गुजराती गाड़ियां और कपड़े 100 खूणों में रखकर कुँवर कर्ण के पास भेजने के लिए तैयार किए जावें। फिर अहदी लोग ये सब सामान दीवान-ए-आम में लाए, जहां कर्ण को ये सारा सामान दे दिया गया।

1024 हिजरी के सफर मास (मार्च, 1615) में मेरी गद्दीनशीनी के 10वें साल का जश्न मनाया गया। इस मौके पर मैंने कुँवर कर्ण को तोहफे में घोड़ा दिया। फिर मैंने एक जड़ाऊ तलवार और एक कमरपेटी कर्ण को दी।

कर्ण का मन लगाना जरूरी था। इस खातिर मैं उसको हर रोज़ महंगे-महंगे तोहफे देता था। मेवाड़ से सुलह करके हमको आमदनी के तौर से नुकसान ही हुआ था, क्योंकि जो कुछ तोहफे हमें मेवाड़ वालों से मिले, उससे कई ज्यादा मैं सिर्फ कर्ण को दे चुका था। फिर धीरे-धीरे कर्ण की रुखसत के दिन करीब आए।

मैं उसे अपना अचूक निशाना दिखाना चाहता था। मैंने फौरन पता लगवाया कि आसपास शेर कहाँ है। कुछ देर बाद पता चला कि शेर तो नहीं है पर शेरनी दिखी है। मेरी आदत थी कि मैं सिर्फ शेर का ही शिकार करता था, पर मैंने सोचा कि कर्ण के जाने से पहले कोई शेर मिले या ना मिले।

इस वजह से मैं उस शेरनी के शिकार के लिए निकला। मैं हथिनी पर सवार था। मेरे और कर्ण के बीच तय हुआ कि मैं बन्दूक से शेरनी की आँख में निशाना लगाऊंगा। उस वक्त हवा थोड़ी तेज चल रही थी और हथिनी शेरनी को देखकर थोड़ी घबरा गई, जिस वजह से निशाना लगाना बड़ा मुश्किल लग रहा था। फिर भी मेरा निशाना ठीक शेरनी की आँख में लगा।

अल्लाह का शुक्र है कि उसने मुझे उस मेवाड़ी शहजादे की नज़रों में शर्मसार होने से बचा लिया। निशानेबाजी के बाद मैंने कुँवर कर्ण को एक तुर्की बंदूक तोहफे में दी। फिर मैंने उसको 1 लाख दरब दिए। (आधे रुपए के चांदी के सिक्के को दरब कहा जाता था) उसके बाद मैंने कर्ण को 20 घोड़े, 12 हिरण, 10 अरबी कुत्ते और कश्मीरी कपड़े का एक कोट दिया।

मैंने कुँवर कर्ण को 41 घोड़े दिए। उसके बाद 20 घोड़े और अलग से दिए। फिर मैंने कर्ण को 10 पगड़ियां, 10 कोट, 10 सदरिया दी। इसके पांच दिन बाद मैंने उसको एक हाथी दिया। आख़िरकार कर्ण की रवानगी का दिन आ गया।

उसके जाने के दिन मैंने उसको एक घोड़ा, एक खास हाथी, एक खिलअत, 50 हज़ार रुपए की मोतियों की माला, 2 हज़ार रुपए का एक जड़ाऊ खंजर दिया। जब तक कर्ण यहां ठहरा मैंने उसको कुल 2 लाख रुपए के सामान के अलावा 110 घोड़े और 5 हाथी दे दिए थे। ख़ुर्रम ने उसको जो दिया वो इससे अलग था।

फिर मैंने मुबारिक खां शिकारी को बुलाया और उसको एक घोड़ा और एक हाथी देकर कुँवर कर्ण के साथ जाने का हुक्म दिया। मैंने राणा अमर के लिए कई बातें भी कहलवाई।”

जहांगीर

इस तरह जहांगीर ने कुँवर कर्ण को दिए तोहफों का लंबा ज़िक्र किया है। वास्तव में इस सन्धि से मुगल सल्तनत को फायदे कम व नुकसान ज्यादा हुए। प्रत्यक्षदर्शी लेखक टॉमस रॉ लिखता है कि “मुगल बादशाह मेवाड़ को तलवार के ज़ोर से नहीं हरा सका, उसने तो मेवाड़ को बराबरी की सन्धि से अधीन किया।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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