मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 36)

समूचे मुगल साम्राज्य की सेना द्वारा मेवाड़ की प्रजा पर अत्याचार करने के बाद आखिरकार मुगल शहज़ादे ख़ुर्रम और महाराणा अमरसिंह के बीच गोगुन्दा में 5 फरवरी, 1615 ई. को मेवाड़-मुगल सन्धि हुई। आख़िरकार एक लंबे संघर्ष के बाद मेवाड़ को शांति मिली।

सन्धि में मेवाड़ की तरफ से अधिक शर्तें जोड़ी गई थीं, जो की ख़ुर्रम को स्वीकार करनी पड़ी। ख़ुर्रम की तरफ से कोई विशेष शर्तें नहीं जोड़ी गई थीं, क्योंकि जहांगीर नहीं चाहता था कि ये सन्धि किसी भी कारण से भंग हो। वह केवल इतना चाहता था कि मेवाड़ की सदियों से चली आ रही स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का सौभाग्य उसे प्राप्त हो।

सन्धि के समय महाराणा अमरसिंह अपने साथ अपने 2 भाई सहसमल व कल्याण, 3 पुत्र भीमसिंह, सूरजमल व बाघसिंह सहित 100 अन्य राजपूत सामंतों आदि को साथ ले गए। महाराणा अमरसिंह अपने ज्येष्ठ पुत्र कुँवर कर्णसिंह को भी साथ लेकर गए, पर उनको कुछ मील दूर खड़े रहने का आदेश दिया, ताकि यदि मुगलों की तरफ से कोई दगा होता, तो पीछे कुँवर कर्णसिंह मेवाड़ का राज सम्भाल सके।

जब महाराणा अमरसिंह गोगुन्दा के पश्चिमी पहाड़ों में ढाणा नामक स्थान पर स्थित शाही डेरों के सामने पहुंचे थे, तब ख़ुर्रम ने बड़े दर्जे के सरदारों को महाराणा का स्वागत करने भेजा। इन सरदारों में गुजरात का सूबेदार अब्दुल्ला खां, राजा नरसिंह देव बुन्देला, मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह राठौड़, सैयद सैफ खां बारहा, सुखदेव आदि शामिल थे।

महाराणा अमरसिंह ख़ुर्रम से मिले और उसके बाई तरफ बैठे। जहांगीर ने इस अवसर का ज़िक्र करते हुए महाराणा अमरसिंह के लिए कुछ अपमानजनक बातें भी लिखीं, जिनको राजेन्द्र शंकर भट्ट जैसे विख्यात इतिहासकारों ने ख़ारिज किया है।

अधिकतर इतिहासकारों ने यही लिखा है कि ये सन्धि “सम्मानजनक” थी, क्योंकि इसमें महाराणा अमरसिंह का कोई अपमान नहीं किया गया। यदि वहां महाराणा का कोई अपमान होता, तो ये सन्धि शुरू ही ना होती। राजप्रशस्ति में लिखा है कि “सस्नेह महाराणा अमरसिंह और ख़ुर्रम आपस में प्रशंसनीय रीति से आदरपूर्वक मिले।”

जहांगीर

बहरहाल, सन्धि के अवसर पर महाराणा अमरसिंह ने ख़ुर्रम को एक बहुमूल्य लाल, 7 हाथी और 9 घोड़े, कीमती वस्त्र, मिठाईयां व कुछ अलंकृत वस्तुएं भेंट कीं। लाल हीरे को कहा जाता है। जहाँगीर ने लिखा है कि राणा के भेजे हुए कुछ हाथी मेरे हथसाल में रखने लायक थे।

ये लाल मारवाड़ के राव मालदेव का था, जिन्होंने इसे अपने पुत्र राव चंद्रसेन राठौड़ को दिया। राव चंद्रसेन ने इस लाल को अपने मुश्किल दिनों में महाराणा उदयसिंह को 60 हज़ार रुपए में बेचा था, फिर महाराणा उदयसिंह से ये लाल महाराणा प्रताप के पास व महाराणा प्रताप से महाराणा अमरसिंह के पास आया। ये लाल तौल में 8 टांक का था।

ये लाल जहांगीर को बहुत अधिक पसंद आया। उसने अपनी आत्मकथा में विस्तार से लिखा है कि “राणा का दिया हुआ एक लाल ख़ुर्रम ने मुझे तोहफे में भेजा। इसकी कीमत 60 हज़ार रुपए थी। मेरा ख्याल था कि इस लाल को अपनी बांह में बाँधूं। मेरी इच्छा हुई कि एक ही तरह के दो अच्छे मोती मिल जाये, तो उनको इस लाल के साथ लगवाकर बांह पर बांध लूं।”

जहांगीर आगे लिखता है कि “मुकर्रब खां ने 20 हज़ार रुपए का एक मोती नौरोज पर मुझको दिया था। फिर उसी तरह के एक और मोती के बारे में ख़ुर्रम ने मुझको बताया, तो मैंने वो मोती मंगवाया। फिर राणा के दिये हुए लाल के दोनों तरफ मोती लगवाकर मैंने उसे बांह पर बांध लिया और सिजदे में मैंने अपना सिर ज़मीन पर टिकाकर अल्लाह का शुक्रिया अदा किया।”

ऐसा नहीं था कि जहांगीर ने अपने जीवन में इससे अधिक कीमती लाल न देखा हो। उसके पास हीरे जवाहरातों का भंडार था। इसी तरह उसके पास हाथियों की भी कोई कमी नहीं थी। फिर भी जहांगीर ने अपनी गद्दीनशीनी के जुलूस के मौके पर महाराणा अमरसिंह के कैद किए हुए हाथी आलम गुमान पर बैठकर सवारी की थी।

इसी तरह मेवाड़ से भेंट में आया ये लाल उसने अपनी बांह पर बांधा, ताकि दुनिया जाने कि उसने वो कर दिखाया है, जो उसके पुरखे कभी न कर सके। जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में बार-बार लिखा है कि उसने उस मेवाड़ को परास्त कर दिया, जिसे सदियों से कोई बादशाह शिकस्त न दे सका।

कविराजा श्यामलदास ने ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि “जहांगीर ने महाराणा अमरसिंह के दिए हुए लाल पर ‘दसुल्तान ख़ुर्रम दर हीने मुलाजमात राणा अमरसिंह पेशकश नमूद’ खुदवाया, जिसका मतलब है कि राणा अमरसिंह ने ये लाल ख़ुर्रम को भेंट किया। ये लाल 1881 ई. में हिंदुस्तान में बिकने को आया, जिसके बारे में मैंने बहुत से अखबारों में पढ़ा और लोगों से सुना है।” (अर्थात जहांगीर के बाद ये लाल विदेशों में बेच दिया गया होगा, फिर कई सालों बाद फिर से हिंदुस्तान में बेचा गया।)

ख़ुर्रम की तरफ से महाराणा अमरसिंह को एक खिलअत, एक जड़ाऊ तलवार, एक सोने के जड़ाऊ जीन सहित घोड़ा और चांदी से सुसज्जित एक हाथी भेंट किया गया। इसके अतिरिक्त ख़ुर्रम ने महाराणा अमरसिंह के साथ आए हुए राजपूतों को 100 सिरोपाव, 50 घोड़े और 12 जड़ाऊ खंजर भेंट किए।

जब सन्धि की सभी चर्चाएं और उपहारों का आदान-प्रदान समाप्त हो गया, तो ख़ुर्रम ने महाराणा अमरसिंह को विदाई दी और अपने बड़े दर्जे के सरदारों शुक्रुल्लाह, अफ़ज़ल खां, सुन्दरदास आदि को महाराणा अमरसिंह को बाहर तक आदर सहित पहुंचाने भेजा।

दयाल कवि कृत ‘राणा रासो’ में लिखा है कि इस समय महाराणा अमरसिंह और ख़ुर्रम के बीच एक गुप्त सन्धि भी हुई। इस गुप्त सन्धि में ये तय हुआ कि जहांगीर के बाद ख़ुर्रम को मुगल साम्राज्य का तख़्त दिलाने में महाराणा अमरसिंह मदद करेंगे। हालांकि इस गुप्त सन्धि के बारे में राणा रासो के अतिरिक्त कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता।

कुँवर कर्णसिंह

महाराणा अमरसिंह अपने साथी राजपूतों समेत पुनः उस स्थान पर आए, जहां उन्होंने कुँवर कर्णसिंह को छोड़ा था। फिर जब महाराणा को तसल्ली हो गई कि कोई दगा नहीं होगा, तो उन्होंने कुँवर कर्णसिंह को शाही डेरों में भेजा और स्वयं अपने महलों की तरफ लौट गए।

कुँवर कर्णसिंह जब शाही डेरों के सामने पहुंचे, तो अफ़ज़ल खां और सुन्दरदास उन्हें सम्मान सहित भीतर लाए। ख़ुर्रम ने कुँवर कर्णसिंह को एक खिलअत, जड़ाऊ खंजर, सोने से सुसज्जित घोड़ा व चांदी से सुसज्जित हाथी चांदी के झूल सहित भेंट किया।

ख़ुर्रम ने कुँवर कर्णसिंह को अपने साथ अजमेर चलने के लिए कहा, तो कुँवर कर्णसिंह ने मेवाड़ के हालात ख़राब होने और आर्थिक तंगी का बहाना बनाते हुए कुछ समय बाद आने का वादा किया, पर ख़ुर्रम ने कुँवर को अजमेर के सफर खर्च के लिए 50 हज़ार रुपए भेंट करते हुए कहा कि आप हमारे साथ अजमेर आकर बादशाह से मिलिए, तो कुँवर कर्णसिंह साथ चलने को राजी हो गए।

अंग्रेज लेखक विलियम इर्विन लिखता है कि “मेवाड़ वाले सुलह के बावजूद मुसलमानों के संपर्क से दूर रहना ही पसंद करते थे और उनको अपनी बेटी ब्याहना अपमान समझते थे, इसलिए उन्होंने इस अपमान का टीका कभी अपने सिर नहीं लगने दिया। मेवाड़ के राणा आमेर व जोधपुर राजघरानों की तरह कभी बादशाही दरबार में स्वयं नहीं गए। वे अपनी जगह अपने बड़े बेटे या किसी प्रतिनिधि को भेजकर ही काम चलाया करते।”

ओझा जी लिखते हैं “केवल मेवाड़ के राजाओं के गद्दीनशीन होते ही फ़रमान, खिलअत वगैरह घर बैठे आ जाते थे और 5 हजारी मनसबदारी भी सेवा में रहे बिना ही प्रतिष्ठा के चिन्हस्वरूप मिल जाया करती थी। मुगलों के समय इतनी प्रतिष्ठा किसी हिन्दू राजा की नहीं थी, जितनी कि मेवाड़ वालों की।”

महाराणा अमरसिंह जी

इस प्रकार ये सन्धि हुई। सन्धि के बाद महाराणा अमरसिंह ने उदयपुर के राजमहलों की तरफ प्रस्थान किया और कुँवर कर्णसिंह ने अजमेर की तरफ। शोक और ग्लानि में डूबे महाराणा अमरसिंह निशब्द हो गए। सन्धि के बावजूद भी मेवाड़ की प्रजा महाराणा की वाहवाही कर रही थी, परन्तु विचारों का जो संग्राम महाराणा अमरसिंह के हृदय में चल रहा था, उसका अनुमान आज तक लगाना मुमकिन नहीं।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. Amit Kumar
    August 11, 2021 / 3:59 pm

    इतिहास बनाने और बचाने वाले गिनती मे मुट्ठीभर भर ही होते है परन्तु इनकी गाथाए लिखने के लिए अम्बर भी छोटे पड़ जाते है।

error: Content is protected !!