जनवरी, 1615 ई. :- समूचे मुगल साम्राज्य की फ़ौज ने आखिरकार मेवाड़ के नागरिकों पर अत्याचार करके मेवाड़ के राजपूतों को सन्धि हेतु विवश कर ही दिया। कर्नल जेम्स टॉड लिखता है कि “जो राणा अमरसिंह के साथ थे, वो उससे बिछुड़ने लगे, केसरिया के नीचे जान देने के लिए तत्पर लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई।”
मेवाड़ के सामन्तों ने कुँवर कर्णसिंह के पास जाकर उनको अपने पक्ष में कर लिया और फिर ख़ुर्रम के पास सन्धि की चर्चा करने पर विचार किया। सामन्तों ने कुँवर कर्णसिंह को तसल्ली दे दी कि यदि ख़ुर्रम महाराणा अमरसिंह को दरबार में न बुलाए जाने की शर्त पर सुलह करने को तैयार हो तो ठीक, वरना हम लोग राजपूत हैं, तलवार से सवाल-जवाब करेंगे।
सामंतों के कहने पर कुँवर कर्णसिंह ने महाराणा को बिना बताए ही शहज़ादे खुर्रम (शाहजहाँ) के पास राजराणा हरिदास झाला और शुभकर्ण पंवार को भेज दिया। शुभकर्ण पंवार महाराणा अमरसिंह के मामा थे।
दरअसल ये मात्र संधि की एक पहल थी, जिसमें सामंत खुर्रम के ज़रिए ये जानना चाहते थे कि बादशाह जहाँगीर कुँवर कर्णसिंह के दरबार में आने पर सुलह करने को तैयार है या नहीं। मेवाड़ से आए इन दोनों सामन्तों को देखकर ख़ुर्रम की खुशी का कोई ठिकाना न रहा।
उसे लगने लगा कि उसने इतना बड़ा कार्य कर लिया है कि अब उसको उत्तराधिकारी नियुक्त करने में जहांगीर को सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। खुर्रम ने ये ख़बर मौलवी शक्रुल्लाह व सुंदरदास के ज़रिए जहाँगीर तक भिजवाई, तो जहाँगीर को बड़ी खुशी हुई।
जहांगीर ने ये खुशखबरी सुनाने वाले मौलवी शक्रुल्लाह को ‘अफज़ल खां’ व सुंदरदास को ‘रायरायां’ का खिताब दिया। जहाँगीर ने खुर्रम को खत का जवाब दिया कि “तुम हर उस शर्त को कुबूल कर लो जो मेवाड़ वाले तुमसे कह रहे हैं, सुलह का ये मौका हाथ से न गंवाना”।
जहांगीर ने अपने हाथ के पंजे के निशान का एक फरमान सुन्दरदास के ज़रिए ख़ुर्रम को भेजा। ख़ुर्रम ने झाला हरिदास और शुभकरण पंवार को ये फ़रमान दिखाया और तसल्ली दी कि अगर राणा अमरसिंह हमसे मिलने आए तो उनसे कोई दगा नहीं किया जाएगा। दोनों राजपूत सरदारों को इस फ़रमान सहित महाराणा के पास भेज दिया गया और साथ में सुन्दरदास को भी भेजा गया।
खुर्रम ने कुँवर कर्णसिंह तक ख़बर पहुंचा दी कि मुगल दरबार में राणा अमर की जगह तुम्हारे आने पर भी सुलह हो सकती है। साथ ही खुर्रम ने जहाँगीर का भेजा हुआ एक फ़रमान भी कुँवर कर्णसिंह तक पहुंचा दिया, तब कुँवर कर्णसिंह सभी सामंतों के साथ मिलकर महाराणा अमरसिंह के सामने हाजिर होने को चले।
जहांगीर का फ़रमान हाथ में लिए कुँवर कर्णसिंह सभी सामंतों सहित महाराणा अमरसिंह के पास पहुंचे और महाराणा से कहा कि “दाजीराज, हमसे मेवाड़ की प्रजा पर अत्याचार नहीं देखे जा रहे थे और रनिवास पर भी संकट मंडरा रहा था, इस ख़ातिर हमने आपसे बग़ैर पूछे ही ख़ुर्रम से सन्धि की चर्चा करवा ली, हमारे अपराध क्षमयोग्य नहीं है परन्तु हमारा वचन है कि आपके सम्मान को आंच नहीं आएगी।”
महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “जब तुम सबने मिलकर तय ही कर दिया है, तो मैं अकेला क्या कर सकता हूं। दाजीराज के अंतिम वचनों का मान रखने की मेरी प्रबल इच्छा थी। लगता है अब तुम सबकी और मेरी सोच में फ़र्क रह गया है, सो अब मैं शेष जीवन उदयपुर के राजमहलों में एकांतवास में रहूँगा। संधि के बाद से राजपाट का सारा काम मैं कुँवर कर्ण को सौंपता हूं। वैसे तो अब तुम सबको मेरी जरूरत भी न होगी, पर विशेष मसला हो तब ही मुझको याद किया जावे।”
कुँवर कर्णसिंह ने अपने पिता के मुख से ऐसे वचन सुनकर उनको मनाने की बड़ी कोशिश की, पर महाराणा एकांतवास में रहने की बात पर अटल रहे। सामन्तों द्वारा समझाने पर भी महाराणा नहीं माने।
महाराणा अमरसिंह की ये आत्मग्लानि यूं ही नहीं थी। वे जानते थे कि इतिहास में उनके संघर्षों को याद नहीं रखा जाएगा, क्योंकि मेवाड़ की स्वतंत्रता का पतन उन्हीं के शासनकाल में होने जा रहा था। पितृभक्त महाराणा अमरसिंह लाख प्रयत्नों के बाद भी अपने महान पिता महाराणा प्रताप को उनके जीवन के अंतिम क्षणों में दिए गए वचन को नहीं निभा सके।
इतिहासकार वेनीप्रसाद लिखते हैं कि “जन साधारण के भौतिक हितों के लिए शांति आवश्यक हो गई। आधी शताब्दी से भी अधिक के युग की विभीषिकाओं में डूबी सभ्यता के पुनर्निर्माण के लिए शांति प्रारंभिक आवश्यकता थी।”
अपनी आत्मकथा में जहांगीर लिखता है कि “जब मैं अजमेर के पास शिकार में मशगूल था, तब ख़ुर्रम का नौकर मुहम्मद बेग एक पैगाम लेकर आया कि राणा अपने बेटों समेत ख़ुर्रम से मिलने आ रहा है। मैंने फ़ौरन ज़मीन पर सिर टिकाकर अल्लाह का शुक्रिया अदा किया और मुहम्मद बेग को एक घोड़ा, एक हाथी, एक जड़ाऊ खंजर और जुलफीकार खां की पदवी दी।”
5 फरवरी, 1615 ई. को गुहिल से चली आ रही पिछले 1050 वर्षों की मेवाड़ की स्वाधीनता का अंत हुआ। हालांकि ये अंत सदा के लिए नहीं था। जहाँगीर की तरफ से खुर्रम व महाराणा अमरसिंह के बीच ये संधि गोगुन्दा में हुई।
मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्तें :- 1) चित्तौड़गढ़ समेत मेवाड़ के वे सारे क्षेत्र महाराणा अमरसिंह को दिये जाएंगे, जिन पर मुगलों का कब्ज़ा है। मेवाड़ के महाराणा को चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत व किलेबंदी करवाने का अधिकार नहीं होगा।
2) जब भी मुगल बादशाह को आवश्यकता हो, तब महाराणा अपने एक हज़ार घुड़सवार मुगल सेवा में भेजेंगे। 3) महाराणा अमरसिंह स्वयं मुगल दरबार में कभी भी उपस्थित नहीं होंगे, उनकी जगह कुंवर कर्ण सिंह को भेजा जावेगा। इसी तरह भविष्य में भी मेवाड़ के महाराणा कभी मुगल दरबार में पैर नहीं रखेंगे।
4) मेवाड़ मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करेगा, यदि इसके लिए मेवाड़ पर दबाव बनाया गया, तो ये सन्धि उसी समय समाप्त हो जाएगी। 5) मेवाड़ के कुँवर जब मुगल दरबार तक जाएंगे, तो वहां जाने तक कुँवर के सम्मान में नगाड़े बजाए जाएंगे।
6) मेवाड़ के शासक पहले शाही प्रदेशों पर धावा बोलते थे, पर अब शाही क्षेत्रों में मेवाड़ नरेश के बिना अनुमति के आने पर प्रतिबंध होगा। 7) मुगल दरबार में मेवाड़ के कुँवर का स्थान अन्य सभी राजे रजवाड़ों से ऊपर होगा। मेवाड़ के कुँवर को मुगल शहजादों से ऊपर बादशाह के दाहिने पहली बैठक में स्थान दिया जाएगा।
इस प्रकार यह सन्धि उन सभी संधियों से बिल्कुल अलग थी, जो अन्य राजपूत राजाओं के साथ की गई थी। मुगल दरबार में केवल मेवाड़ के शासक को ही न आने की छूट दी गई थी। जहांगीर हर हालत में बस इतना चाहता था कि ये सन्धि सफल हो जाए, चाहे महाराणा जो मन आये शर्त रखे।
55 वर्ष की उम्र में महाराणा अमरसिंह ने अपनी प्रजा की रक्षा की खातिर मुगलों से सन्धि की, जो मेवाड़-मुगल सन्धि कहलाती है। इस संधि को इतिहास ने महाराणा अमरसिंह की कायरता, नासमझ व भूल कहा, लेकिन मेरी नज़र में ये महाराणा अमरसिंह का केवल दुर्भाग्य था। दुर्भाग्य ये कि जब मेवाड़ का सैन्यबल सबसे कम था, तभी शत्रु का सैन्यबल सबसे अधिक रहा।
दुर्भाग्य ये कि महाराणा अमरसिंह 1567 ई. से 1614 ई. तक 47 वर्ष जंगलों और छोटे महलों में रहे, लेकिन उनके इस त्याग को इतिहास ने मात्र एक भूल कहा। दुर्भाग्य ये कि महाराणा अमरसिंह ने मुगल सल्तनत से 17 बड़े युद्ध लड़े व 100 से अधिक मुगल चौकियों पर अधिकार किया, जिन्हें इतिहास ने एक संधि के कारण कायरता कहा।
इतिहासकार ओझा जी लिखते हैं कि “महाराणा अमरसिंह ने महाराणा प्रताप से भी अधिक लड़ाईयां लड़ी, लेकिन संधि के कारण उन्हें वो स्थान नहीं मिल पाया, जो महाराणा प्रताप का है।”
इस सन्धि का शेष वर्णन अगले भाग में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
हुकुम महाराणा अमर सिंह जी का जीवन पुस्तकों में पढ़ाया जाना चाहिए|