1614 ई. के अंतिम 2-3 माह में ख़ुर्रम के नेतृत्व में समूचे मुगल साम्राज्य की सेनाओं ने मेवाड़ के राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों तक रसद पहुंचनी बन्द हो गई। खेत पहले ही जला दिए गए थे। मेवाड़ के जो राजपूत जिन पहाड़ियों में थे, वे वहीं फंस गए।
इन दिनों महाराणा अमरसिंह ने जिन परिस्थितियों का सामना किया, ऐसी भयंकर परिस्थितियों का सामना तो कभी महाराणा प्रताप को भी नहीं करना पड़ा। पर इन परिस्थितियों से भी महाराणा अमरसिंह के मन में एक पल के लिए भी अपने पूर्वजों की महान परंपरा को तोड़ने का ख्याल नहीं आया।
परन्तु मेवाड़ के सामंत और कुँवर कर्णसिंह आदि के मन वर्षों से रक्तपात और 1614 ई. के भयंकर आक्रमण से टूटने लगे, क्योंकि जिस मातृभूमि की रक्षा की ख़ातिर वे बरसों से अपना सर्वस्व दांव पर लगाने को तत्पर थे, वह मातृभूमि इतने प्रयासों के बाद भी परतंत्रता की ओर बढ़ रही थी।
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “लंबे समय से चली आ रही यह अत्यंत पीड़ादायी लड़ाई मेवाड़ के लिए ऐसी आपदा बन चुकी थी, जिससे निस्तार का कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेवाड़ पर बहुत अत्याचार हो रहे थे। जन साधारण का विनाश, मंदिरों का विध्वंस, मृत शरीरों का छिन्न-भिन्न करके छितराया जाना, आम जनता की औरतों और बच्चों को नीलाम करना, घरों को फूंकना, पकी फसलों को जलाना आदि अत्याचारों से मेवाड़ का सामाजिक व आर्थिक ढांचा हिल गया।”
महाराणा अमरसिंह व रहीम के बीच पत्र व्यवहार :- महाराणा अमरसिंह की सेना दिन-दिन कम होती गई और प्रजा पर अत्याचार होने लगे, तो महाराणा बड़ी दुविधा में फँस गए। एक तरफ उनकी प्रजा सरेआम नीलाम हो रही थी और दूसरी तरफ पिछले 1050 वर्ष पहले गुहिल से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता दाँव पर लगी थी।
दुविधा ये की इन दोनों में से महाराणा को किसी एक को चुनना था। महाराणा अमरसिंह ने एक दोहा लिखा और कहा कि इसे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना के पास भेज दिया जावे।
कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना बैरम खां का बेटा था। ये वही सिपहसालार था, जिसकी बेगमों को महाराणा प्रताप के समय कुँवर अमरसिंह ने बन्दी बनाया था व महाराणा प्रताप ने सभी को मुक्त किया। तब से रहीम मेवाड़ का तरफदार रहा।
महाराणा अमरसिंह ने इस दोहे के ज़रिए रहीम से पूछा कि कब तक मुझे और मेरे साथियों को वन में भटकना चाहिए :- गोड़ कछाहा राठवड़, गोखा जोख करंत। कहजो खानांखान ने, वनचरु हुआ फिरंत।। तँवरां सूं दिल्ली गई, राठौड़ां सूं कन्नौज। अमर पूछे खान ने, सो दिन दीसै अज्ज।।
अर्थात् महाराणा अमरसिंह रहीम से कहते हैं कि तंवर राजपूतों के हाथ से दिल्ली गई थी, राठौड़ राजपूतों के हाथ से कन्नौज गया था। आज फिर वही दिन आया लगता है, हमारे हाथ से मेवाड़ जाने लगा है।
अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने महाराणा को जवाब में ये दोहा लिखा :- धर रहसी रहसी धरम, खपजासी खुरसाण। अमर विशंभर ऊपरा, राखो निहचो राण।। अर्थात् हे राणा अमरसिंह ! धरती रहेगी, धर्म भी रहेगा, पर मुगल साम्राज्य एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा। गैरत के आराम से इज्जत की तकलीफ अच्छी, इसलिए आपको धैर्य रखना चाहिए।
रहीम के इस संदेश से महाराणा अमरसिंह को कुछ तसल्ली हुई, जिसके बाद वे कुछ और लड़ाइयां लड़े, परन्तु समूचे मुगल साम्राज्य के सामने मेवाड़ की छोटी सी सेना कब तक सामना करती। मेवाड़ के लोगों और अपनों की हालत देखकर मेवाड़ के सामन्तों और कुँवर कर्णसिंह के हौंसले अब पस्त होने लगे।
(रहीम व महाराणा अमरसिंह के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा सत्य घटना मानते हैं, परन्तु अन्य बहुत से इतिहासकार इस घटना को इसलिए खारिज करते हैं क्योंकि उस समय मेवाड़ चारों ओर से घिरा हुआ था और वहां से आगरा तक पत्र व्यवहार सम्भव नहीं था। बहरहाल, सत्य जो भी हो, मेवाड़ के महाराणा का हृदय धर्मसंकट में पड़ गया।)
तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेवाड़ में जहां-जहां रहने की जगह खराब थी और बीहड़ जंगल थे, वहां भी ख़ुर्रम ने राणा के पीछे एक के बाद एक फ़ौज भेजकर थाने बिठा दिए। शहज़ादे ने भारी गर्मी और भारी बरसात की भी कोई फिक्र नहीं की। मेरे हुक्म से मेरे बेटे खुर्रम ने राणा अमर के मुल्क के लोगों को कैद कर लिया। राणा को पैगाम भेजा गया कि या तो अपने मुल्क के लोगों की हिफाजत के लिए बादशाही मातहती कुबूल करे या उनकी परवाह किये बगैर अपने मुल्क को छोड़कर चला जावे”
क्या यहां कुँवर कर्णसिंह को दोष दिया जाना उचित है ? जी नहीं, कुँवर कर्णसिंह का तो जन्म ही जंगलों में हुआ था, वनवासी की तरह उन्होंने जीवन के 28 वर्ष इन जंगलों में रहकर बिताए और हर लड़ाई में अपने पिता का साथ दिया।
क्या यहां मेवाड़ के सामन्तों को दोष दिया जाना चाहिए ? जी नहीं, मेवाड़ के इन सामन्तों की कई पीढ़ियों ने मातृभूमि की ख़ातिर अनेक बलिदान दिए और वे स्वयं भी बलिदान देने से पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन दिनों जीवन का बलिदान देना मेवाड़ के बहादुरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बात प्राणों की नहीं, मान सम्मान की थी, क्योंकि अब राजपरिवार और सामन्तों की स्त्रियों पर भी संकट आने का भय था। मेवाड़ जिस मान सम्मान के लिए लड़ रहा था, यदि वो मान सम्मान ही संकट में हो तो फिर किसकी रक्षा की जाए। कुँवर कर्णसिंह व मेवाड़ के सामन्त भलीभांति महाराणा अमरसिंह के हृदय को समझ सकते थे।
महाराणा अमरसिंह का हृदय कांपने लगा। परन्तु ये कंपन ना तो अपने प्राणों के लिए थी और ना ही किसी भय के कारण। ये कंपन थी मेवाड़ की महान स्वतंत्र परंपरा को तोड़ने का अपमान सहन करने की। ये कंपन थी प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह की प्रजा के सरेआम नीलाम होने की।
मेवाड़ के सामंतों ने मिलकर सलाह की, जिसमें मुगल शहज़ादे खुर्रम से संधि की बात करना तय रहा, लेकिन सामंतों ने संधि वाली बात महाराणा अमरसिंह को बताना ठीक नहीं समझा, क्योंकि उन्हें पता था कि महाराणा इसके लिए कभी राजी नहीं होंगे।
साथ ही सभी सामंत ये भी जानते थे कि महाराणा अमरसिंह कभी भी दूसरे राजाओं की तरह बादशाही दरबार में जाकर मुगल बादशाह को सलाम नहीं करेंगे, इसलिए सामंत चाहते थे कि संधि कुछ इस तरह से हो कि महाराणा को मुगल दरबार में हाजरी ना देनी पड़े और महाराणा की जगह कुँवर कर्णसिंह को दरबार में भेज दिया जावे।
सभी सामंत एकमत से कुँवर कर्णसिंह के पास गए और उनसे कहा कि “बादशाही फ़ौज इस कदर हावी हो चुकी है, कि हमारी स्त्रियों और बच्चों तक के पकड़े जाने का खतरा मंडराने लगा है, प्रजा पर अत्याचार हो रहे हैं, इस ख़ातिर आप यदि तैयार हों, तो हम सन्धि की बात आगे बढ़ाएं।”
कुँवर कर्णसिंह ने कहा कि “हम स्वयं भी यही कहना चाहते थे, परन्तु दाजीराज के सामने ये कहने का साहस नहीं है मुझमें। पर आप सभी साथ हों, तो इस सन्धि की वार्ता के लिए मैं ख़ुर्रम से बात करने को तैयार हूं।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)