मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 33)

ये गौरवगाथा एक ऐसे वीर योद्धा की है, जिसने अनबन के कारण मेवाड़ के शासक के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया, पर उसी सिर को मेवाड़ की ख़ातिर मातृभूमि के चरणों मे भेंट कर दिया और सिद्ध कर दिया कि जब मातृभूमि पुकारती है, तो एक सच्चा राजपूत अपना सर्वस्व समर्पण करने को तैयार हो जाता है।

देलवाड़ा के जैतसिंह झाला के पुत्र मानसिंह झाला महाराणा प्रताप के बहनोई थे, जो कि हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। मानसिंह झाला के 3 पुत्र हुए :- शत्रुसाल झाला, कल्याण झाला और आसकरण झाला। शत्रुसाल झाला गरम मिजाज़ के थे।

शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप की बहन के पुत्र थे। एक बार इनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई थी और इन्होंने कहा था कि “आज से मैं सिसोदियों की नौकरी न करुंगा।”

महाराणा प्रताप ने जब शत्रुसाल को रोकने के लिए उनके अंगरखे का दामन पकड़ा, तो शत्रुसाल ने अपने अंगरखे का दामन काट दिया। महाराणा प्रताप ने कहा था कि “आज के बाद शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूँगा”

इस तकरार के बाद शत्रुसाल मारवाड़ चले गए, तब महाराणा प्रताप ने क्रोध में आकर झाला राजपूतों से देलवाड़ा की जागीर ज़ब्त की। महाराणा प्रताप ने वीर जयमल मेड़तिया के पौत्र व मुकुन्ददास मेड़तिया के पुत्र मनमनदास को देलवाड़ा जागीर में दिया और वचन दिया की देलवाड़ा जीवनभर आपकी जागीर रहेगी।

ये जागीर मनमनदास को उनके पिता मुकुन्ददास मेड़तिया के जीवित रहते दी थी। कल्याण झाला और आसकरण झाला मेवाड़ के ही गांव चीरवा में रहे। जब मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह मुगलों से भीषण युद्ध कर रहे थे, उस समय कल्याण झाला ने भी महाराणा का साथ दिया।

महाराणा अमरसिंह ने खुश होकर कल्याण झाला को कोई जागीर देनी चाही, पर कल्याण झाला ने कहा कि हमें हमारे बाप-दादों की देलवाड़ा की जागीर ही दी जावे। महाराणा अमरसिंह ने कहा कि वह जागीर हमारे पूजनीय पिता ने मनमनदास को दी थी और वचन भी दिया था कि मरते दम तक जागीर उन्हीं की रहेगी। कल्याण झाला ने कहा कि आपको जागीर देने की इच्छा, हो तो देलवाड़ा ही जागीर में देवें।

महाराणा अमरसिंह

1614 ई. में जब शहज़ादा खुर्रम (शाहजहाँ) कुल हिंदुस्तान की फौज समेत मेवाड़ आया, तब महाराणा अमरसिंह ने कल्याण झाला की कर्तव्यपरायणता देखकर उनसे कहा कि हम देलवाड़ा की जागीर आपको देने के लिए तैयार हैं, आप जोधपुर जाकर अपने भाई शत्रुसाल को भी यहाँ ले आओ।

इसी दौरान संयोग से जोधपुर के राजा सूरसिंह राठौड़ के पुत्र कुँवर गजसिंह राठौड़ से शत्रुसाल झाला की तकरार हो गई। कुँवर गजसिंह ने शत्रुसाल से कहा कि “महाराणा अमरसिंह जी तो आजकल अपनी रानियों के साथ पहाड़ों में मारे-मारे फिरते हैं।”

शत्रुसाल झाला ये सुनते ही उठ खड़े हुए और कहा “हाँ संभव है उनको अपनी बहन-बेटियों का सम्मान अधिक प्रिय हो”। कुँवर गजसिंह ने कहा कि “महाराणा के ऐसे हितैषी को तो बादशाही फौज के हाथों मरना चाहिए”।

तब शत्रुसाल झाला ने कहा कि “आपकी इस नसीहत को याद रखते हुए मैं वचन देता हूँ कि मरूँगा तो सिर्फ महाराणा और मेवाड़ की खातिर और रही बात बादशाही फौज की तो उनको भी आज असल रजपूती तलवार का स्वाद चखा ही देता हूँ। उन्हें भी तो मालूम पड़े कि एक सच्चे राजपूत की तलवार कितना लहू पीती है।”

इतना कहकर मेवाड़ लौटते वक्त शत्रुसाल झाला की अपने भाई कल्याण झाला से मुलाकात हुई और पता चला कि महाराणा अमरसिंह ने उन्हें देलवाड़ा की जागीर लौटा दी है। ये सुनकर शत्रुसाल झाला की आंखें भर आईं, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की जागीर पुनः प्राप्त हो गई।

शत्रुसाल झाला ने कल्याण झाला से कहा कि “पिछली बार मैंने अपने मामा महाराणा प्रताप से झगड़ा किया था। अब अगर मैं इस तरह महाराणा अमरसिंह के सामने गया, तो वे कहेंगे कि शत्रुसाल इतने वर्षों बाद मेवाड़ आया है और वो भी खाली हाथ। महाराणा के सामने खाली हाथ जाना ठीक न होगा, क्यों न मैं अपने प्राण ही दे दूँ”

दोनों भाईयों ने अपने कुछ गिने-चुने 100-200 झाला राजपूतों के साथ मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। मेवाड़-मारवाड़ की सीमा पर आंवड़-सांवड़ की नाल में नवाब अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। (नाल :- मेवाड़ में तंग पहाड़ी घाटियों को नाल कहा जाता था। यहां देसूरी की नाल, केवड़ा की नाल, आंवड़-सांवड़ की नाल प्रसिद्ध थी।)

दोनों भाईयों का मुकाबला अब्दुल्ला खां की फौज से हुआ। कई मुगल मारे गए व मेवाड़ की तरफ से भोपत झाला समेत कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। संख्या में कम होने के कारण दोनों भाई अलग-अलग पहाड़ियों में चले गए पर गम्भीर रुप से घायल हुए।

शत्रुसाल झाला तो मेवाड़ की पहाड़ियों में गए, पर कल्याण झाला के घोड़े ने अपने प्राण त्याग दिए, जिस कारण वे पास के ही एक मन्दिर में रुके। अब्दुल्ला खां को कल्याण झाला की ख़बर मिली, तो मुगल फौज ने उनको घेर लिया।

एक अकेला राजपूत तब तक लड़ता रहा, जब तक उसके तीर समाप्त न हो गए। कल्याण झाला के पास जब तक तीर थे, तब तक किसी को अपने पास तक नहीं आने दिया, पर तीर खत्म होने के बाद अब्दुल्ला खां उन्हें कैद कर खुर्रम के पास ले गया।

ख़ुर्रम

बादशाहनामे में लिखा है कि “शहज़ादे खुर्रम ने कल्याण झाला की मरहम पट्टी वगैरह की और उसे जीवित छोड़ दिया”। मेवाड़ में अत्याचारों की सभी हदें पार करने वाले ख़ुर्रम ने यहां ऐसी दरियादिली कैसे दिखा दी, ये तो वक्त ही जानता है।

कल्याण झाला को तो जीवनदान मिल गया, पर शत्रुसाल झाला तो जोधपुर से महाराणा के लिए मरना ठान के निकले थे, इस खातिर उन्होंने पहाड़ों में ही अपने घाव ठीक किए और कुछ दिन बाद गोगुन्दा के शाही थाने पर हमला कर दिया।

गोगुन्दा में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काका और जगमाल के छोटे भाई विश्वासघाती सगरसिंह सिसोदिया के नेतृत्व में हज़ारों की फौज तैनात थी। इस लड़ाई में शत्रुसाल झाला के कुल 39 घाव लगे, जिससे गोगुन्दा के पास रावल्या गांव में वे वीरगति को प्राप्त हुए।

इस तरह शत्रुसाल झाला ने अपने जीवन में जितने भी वचन लिए, पूरे किए। अनेक शत्रुओं और विश्वासघातियों को यमलोक भेजकर उन्होंने अपनी लहू की अंतिम बूंद तक युद्ध लड़ा। निश्चित ही यदि इस समय महाराणा प्रताप जीवित होते, तो अपने भांजे की इस वीरता पर अति प्रसन्न होते।

महाराणा अमरसिंह ने ये नियम बना रखा था कि कोई भी जागीर सदा एक ही सामंत या उसके वंशजों के पास रहे, ये जरूरी नहीं। जागीर वंश परंपरा के अनुसार नहीं, बल्कि कर्तव्यपरायणता के अनुसार दी जाएगी। शत्रुसाल झाला की ये वीरता निश्चित ही उनके वंशजों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुई।

गोगुन्दा के राजमहल

महाराणा अमरसिंह ने शत्रुसाल झाला की बहादुरी देखकर गोगुन्दा की जागीर शत्रुसाल झाला के पुत्र कान्ह झाला को दे दी, तब से लेकर आज तक गोगुन्दा झाला राजपूतों का ठिकाना रहा है। इस तरह शत्रुसाल झाला को मरणोपरांत गोगुन्दा के पहले “राजराणा” की उपाधि दी गई व कान्ह झाला दूसरे राजराणा कहलाए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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