मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 32)

1614 ई. में समूचे मुगल साम्राज्य और उसके अधीनस्थ राजाओं की फ़ौजें मेवाड़ महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध कहर बरपा रही थीं। मेवाड़ी योद्धा भी अद्भुत साहस का परिचय दे रहे थे। जहांगीर अजमेर में बैठकर समस्त कार्रवाइयों का बारीकी से निरीक्षण कर रहा था।

मुगलों द्वारा मेवाड़ के 18 हाथियों को कैद करना :- मार्च, 1614 ई. को मुगल सेनापति अब्दुल्ला खां को खबर मिली कि महाराणा अमरसिंह इस वक्त चावण्ड में हैं, तो उसने चावण्ड पर हमला किया। महाराणा अमरसिंह चावण्ड से निकलकर छप्पन के पहाड़ों की तरफ चले गए।

इस दौरान महाराणा के 5 हाथी पीछे रह गए थे, जिन्हें अब्दुल्ला खां ने पकड़ लिया और खुर्रम (शाहजहाँ) के पास ले गया। इन 5 हाथियों में एक आलम गुमान नाम का प्रसिद्ध हाथी भी था, जो महाराणा अमरसिंह को बड़ा प्रिय था। इस हाथी की चर्चा जहाँगीर के दरबार में भी हुआ करती थी।

आसपास में कुछ और जगह भी लड़ाइयां हुई, जिनमें मेवाड़ के हाथी शाही मुलाजिमों ने पकड़ लिए। इस लूट से खुर्रम की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे लगने लगा कि महाराणा अमरसिंह को भी वह जल्द पकड़ लेगा।

खुर्रम ने अपने पिता जहांगीर को खत लिखा कि “शाही फौज के धावनों ने राणा अमर के सबसे खास हाथी आलम गुमान के साथ और 17 हाथी पकड़ लिए हैं, राणा को भी जल्द ही पकड़ लिया जावेगा”

खुर्रम (शाहजहां)

इस तरह 11 मार्च को खुर्रम ने कुल 18 हाथी-हथिनी अपने दीवान जादूराय के ज़रिए अजमेर में जहांगीर को नज़र किए। जहांगीर लिखता है कि “बाबा खुर्रम ने राणा के कैद किए हुए हाथी हथिनी मेरे सामने पेश किए। उनमें से एक आलम गुमान नाम का हाथी मेरे हथसाल में रखने लायक था।”

21 मार्च को अजमेर में जहाँगीर ने नौरोज का जलसा रखा। इस दिन खुर्रम को मेवाड़ गए 3 माह बीत चुके थे। इसके अगले दिन जहांगीर आलम गुमान हाथी पर बैठकर प्रजा के बीच गया। वह यह प्रदर्शित करना चाहता था कि मेवाड़ पर वह काफी हद तक विजय पाने में सफल हो चुका है।

जहाँगीर द्वारा पुरस्कार वितरण :- मेवाड़ में तैनात बादशाही सिपहसालार मन लगाकर काम करे, इसके लिए खुर्रम की सिफारिश पर जहाँगीर ने सैफ खां बारहा का मनसब 200 सवार से, दिलावर खां का मनसब 200 सवार से, सरफराज़ खां का मनसब 300 सवार से व राजा किशनसिंह राठौड़ का मनसब 500 सवार से बढ़ा दिया।

जहाँगीर अजमेर में बैठकर मेवाड़ में मुगल कार्यवाहियों का जायज़ा भी ले रहा था। उसने दियानत खां को मेवाड़ भेजकर ये पता लगाने को कहा कि वहाँ कैसा काम हो रहा है। दियानत खां ने अजमेर आकर खुर्रम के काम की तारीफ की और कहा कि शहज़ादे खुर्रम ने वहां काफी अच्छे कायदे बना रखे हैं और सब लोग उन्हीं कायदों से काम करते हैं।

मेवाड़ में खुर्रम के नेतृत्व में मुगल सेना जहां-जहां से भी गुज़री वहां मंदिरों को तहस-नहस कर दिया गया। इस बात का कोई ध्यान नहीं रखा गया कि मंदिर तोड़ने से शाही सेना में मौजूद हिंदुओं पर क्या असर होगा। शाही सेना को किसी स्थान पर आसानी से तो किसी स्थान पर मुश्किल से विजय प्राप्त होती, परन्तु संख्याबल के कारण मुगल लगातार हावी होते जा रहे थे।

महाराणा अमरसिंह की बहादुरी :- खुर्रम द्वारा कुल हिंदुस्तान की फौज मेवाड़ के दक्षिणी पहाड़ों के चारों तरफ से चलाने के बावजूद महाराणा अमरसिंह हताश नहीं हुए। महाराणा अमरसिंह ने अब्दुल्ला खां के सैन्य पर हमला कर उसे पराजित किया व रसद वगैरह लूट ली।

महाराणा अमरसिंह जी

मुगलों ने फिर महाराणा अमरसिंह को घेरा तो महाराणा ने धैर्य से काम लिया। महाराणा अमरसिंह ने ना केवल मुगलों का घेरा तोड़ा, बल्कि ईडर के पहाड़ों के पीछे तैनात एक मुगल चौकी पर आक्रमण कर विजय भी प्राप्त की। इसी दौरान महाराणा अमरसिंह के एक पुत्र ने भी एक मुगल चौकी पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की।

मुगलों पर अकाल की मार :- इन्हीं दिनों खुर्रम ने कुंभलगढ़ क्षेत्र में नवाजिश खां के नेतृत्व में हज़ारों मुगलों का महत्वपूर्ण थाना कायम किया। संयोग से कुंभलगढ़ में भीषण अकाल पड़ गया। कुंभलगढ़ में तैनात मुगल फौज तक पहुंचने वाली रसद को मेवाड़ के भीलों ने लूट लिया। इसके परिणाम स्वरूप नवाजिश खां अपने सैंकड़ों सैनिकों समेत अकाल की मौत मारा गया।

1614 ई. में देवीदास सोनगरा चौहान पाली का पट्टा छोड़कर मेवाड़ महाराणा अमरसिंह की सेवा में हाजिर हुए। ये महाराणा प्रताप के छोटे मामा उदयसिंह सोनगरा के पौत्र व सूरजमल सोनगरा के पुत्र थे।

आमेर के राजा मानसिंह कछवाहा का देहांत :- 6 जुलाई, 1614 ई. को एलिचपुर में राजा मानसिंह का देहांत हो गया। राजा मानसिंह ने 1576 ई. में हल्दीघाटी युद्ध का नेतृत्व किया था। हल्दीघाटी युद्ध के बाद इन्होंने गोगुंदा पर विजय प्राप्त की। इसी वर्ष अकबर के साथ पुनः मेवाड़ अभियान पर आए और गोगुन्दा पर दोबारा आक्रमण किया।

राजा मानसिंह 1578 ई. में शाहबाज़ खां के नेतृत्व में कुम्भलगढ़ अभियान में शामिल हुए और शाहबाज़ खां के कहने पर अभियान बीच में छोड़कर जाना पड़ा। 1599 ई. में अकबर के आदेश पर सलीम के साथ पुनः मेवाड़ अभियान पर गए।

राजा मानसिंह कछवाहा

जहांगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “राजा मानसिंह की मृत्यु हो गई। मैंने इस राजा को दक्षिण में भेजा था। उसकी मृत्यु के बाद मैंने भावसिंह को वहां भेज दिया, जो कि उसका वैध वारिस था। जब मैं शहज़ादा था, तब उसने मेरी अच्छी सेवा की थी। हिंदुओं के रिवाज के मुताबिक महासिंह आमेर का राजा होना चाहिए था, जो कि राजा मानसिंह के बड़े बेटे जगतसिंह का बेटा था। पर मैंने महासिंह को राजा नहीं माना और भावसिंह को मिर्ज़ा राजा की पदवी देकर 4 हज़ार जात और 3 हज़ार सवार का मनसब दे दिया।”

मेवाड़ में जगह-जगह लड़ाइयों का दौर चलता रहा, जिनमें मरने वाले प्रमुख बादशाही सिपहसालार :- उदयपुर में हुई लड़ाई में महाराणा अमरसिंह के हमले से फिदायत खां मारा गया। कुछ दिन बाद उदयपुर में फिर लड़ाई हुई, जिसमें महाराणा अमरसिंह के हमले से फरीदूं खां बर्लास मारा गया। जहाँगीर को इसके मरने से बड़ा रंज हुआ, क्योंकि बर्लास जाति वालों में बस यही एक सरदार बचा था।

मेवाड़ में इन दिनों होली क्या और दीवाली क्या, हर दिन लहू की नदियां बहती थीं। दीवाली के दिन उदयपुर में हुई लड़ाई में सिकन्दर मुइन करावल मारा गया। ये जहांगीर का खास सिपहसालार था, इसलिए इसके शव को अजमेर ले जाया गया, जहां जहांगीर के आदेश से उसे सगरसिंह सिसोदिया के बनाये हुए तालाब के पास दफन किया गया।

मेवाड़ के राजपूतों ने एक मुगल थाने पर आक्रमण कर दिया, जहां मारवाड़ के राठौड़ राजपूत तैनात थे। मेवाड़ी फौज के आक्रमण से मारवाड़ नरेश सूरसिंह राठौड़ के साथी राठौड़ पिरागदास मानसिंहोत की मृत्यु हो गई।

इन्हीं दिनों रणकपुर के मंदिरों के निकट अब्दुल्ला खां का डेरा था। इसी रास्ते से मारवाड़ के पुरोहित करण अपने साथियों सहित नाडौल से शाहपुरा जा रहे थे। अब्दुल्ला खां को ख़बर मिली कि करण इसी ओर आ रहा है। उसने पुरोहित करण को मेवाड़ का कुँवर कर्णसिंह समझ लिया। अब्दुल्ला खां ने भ्रम में आकर पुरोहित करण को उनके 13 साथियों समेत बेरहमी से मार डाला।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!