1614 ई. में जहाँगीर कुल हिन्दुस्तान की फौज को खुर्रम (शाहजहाँ) की कमान में मेवाड़ विदा कर चुका था। खुर्रम ने मेवाड़ में सैंकड़ों थाने कायम कर दिए। खुर्रम ने मांडल से उदयपुर तक 6 बड़े मुगल थाने तैनात किए, ताकि मुगलों तक रसद वगैरह पहुंचती रहे। ये 6 मुगल थाने कुछ इस तरह हैं :-
खुर्रम ने मांडल में जमाल खां तुर्की, कपासन में दोस्त बेग, ऊँठाळा में सैयद हाजी, नाहरमगरा में अरब खां, डबोक में अपने एक विश्वस्त सेनानी व देबारी में सैयद शिहाब को अलग-अलग सेनाओं सहित तैनात किया। इस प्रकार मांडल से उदयपुर तक का रास्ता मुगलों के लिए साफ हो गया।
महाराणा अमरसिंह पर उनके पूर्वजों की महान परंपरा के निर्वहन का सीधा दायित्व था। महाराणा अमरसिंह भलीभांति जानते थे कि उनके कमजोरी दिखाने पर मेवाड़ का सारा इतिहास बदल जाएगा। शाही सेना की असंख्य संख्या और उसकी साज सज्जा भी महाराणा अमरसिंह की दृढ़ता को नहीं हिला सकी।
मेवाड़ के उत्तरी पहाड़ों पर पूरी तरह से मुगलों का कब्जा हो गया। महाराणा अमरसिंह अपने सर्दारों व परिवार समेत मेवाड़ के दक्षिणी पहाड़ों में चले गए। महाराणा अमरसिंह ने अपने सभी सामंतों से विचार विमर्श किया कि इतनी भारी तादाद में आए मुगलों का सामना कैसे किया जाए। कुछ सामंतों ने मुगलों से संधि की बात रखी, जिस पर महाराणा अमरसिंह ने कहा कि
“दाजीराज के आखिरी समय में हमारे साथ-साथ आप सब ने भी बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर कहा था कि मेवाड़ को आखिरी सांस तक स्वाधीन रखेंगे। आप सबको हमारा साथ देना ही होगा। हमने तय किया है कि जब तक मेवाड़ का आखिरी राजपूत जीवित है, तब तक मेवाड़ का केसरिया किसी के आगे नहीं झुकेगा।”
महाराणा अमरसिंह ने अपनी सेना को कई टुकड़ों में बांट दिया और हर टुकड़ी का एक नेतृत्वकर्ता बनाया। सभी नेतृत्वकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिए कि जहां तक सम्भव हो शाही सेना को पहाड़ी इलाकों में आने से रोका जाए और पहाड़ी इलाकों में जो मुगल पहले से तैनात हैं, उनको वहां से समतल प्रदेशों की तरफ खदेड़ा जाए, जहां कहीं शाही सेना की रसद दिखाई दे, उसे लूटा जाए।
इस समय महाराणा अमरसिंह का साथ बेदला के राव बल्लू चौहान, कानोड़ के रावत भाण सारंगदेवोत, कोठारिया के रावत पृथ्वीराज चौहान, बड़ी सादड़ी के राजराणा हरिदास झाला, बेगूं के रावत मेघसिंह चुण्डावत, सलूम्बर के रावत मानसिंह चुण्डावत आदि वीरों ने दिया।
देलवाड़ा के झाला मानसिंह के पुत्र कल्याण झाला, रूपनगर के ठाकुर वीरमदेव सोलंकी, सरदारगढ़ के ठाकुर जयसिंह डोडिया, केशवदास सोनगरा, मनमनदास राठौड़, कृष्णदास राठौड़, सांवलदास राठौड़, महाराणा अमरसिंह के मामा बिजौलिया के राव शुभकर्ण पंवार, पानरवा के राणा रामा आदि वीर भी अपने प्राण हथेली पर लिए विशाल शाही सेना से लड़ने को तैयार खड़े थे।
खानआज़म मिर्जा अजीज कोका एक वर्ष से मेवाड़ में था, पर कुछ हासिल नहीं कर सका। जब खुर्रम वहां पहुंचा, तो दोनों में काम करने का तालमेल नहीं बैठा। खुर्रम ने उसकी शिकायत जहांगीर से की। दरअसल यहां खास बात ये थी कि खानआज़म की बेटी की शादी खुसरो से हुई थी। खुसरो मुगल तख़्त का एक दावेदार होने के कारण पहले ही खुर्रम को बहुत खटकता था।
जहांगीर ने अजमेर से इब्राहिम हुसैन को मेवाड़ भेजा, ताकि वो मिर्जा को समझा सके। जब वह नहीं माना तो जहांगीर ने महाबत खां को उदयपुर भेजकर मिर्जा को अजमेर बुला लिया, जहाँ से उसे ग्वालियर किले के कारागार में डाल दिया।
तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “खानआज़म ने मुझसे राणा के ख़िलाफ़ जाने की गुज़ारिश की थी। मैंने उसको तोपखाने से जैसी तोपें उसको चाहिए थीं, वैसी तोपें देकर विदा किया। जब वो मेवाड़ गया तो उसने मुझको ख़त लिखा कि जब तक शाही झंडे इस इलाके में नहीं आएंगे, तब तक यहां फतह हासिल करना मुश्किल है। फिर उसी की सलाह मानकर मैंने ख़ुद अजमेर जाना तय किया था।
जब खुर्रम मेवाड़ गया तो खानआज़म ने काम में मन लगाना बन्द कर दिया। वो अपने ही बेहूदा ढंग से काम करता रहा। मैंने उसको समझाने के लिए इब्राहिम हुसैन को मेवाड़ भेजा। मैंने बहुत सा काम खानआज़म की सलाह से किया, फिर भी उसने जंग के मैदान से अपने पैर पीछे खींच लिए।
मैं अब तक कभी खुर्रम से जुदा नहीं हुआ था। मैंने खानआज़म पर भरोसा करके खुर्रम को मेवाड़ भेजा था, क्योंकि खानआज़म को उस पहाड़ी इलाके का इल्म था। इब्राहिम हुसैन ने खानआज़म को समझाया और उसको कहा कि खुर्रम के हुक्म को माने और अगर उसने ऐसा नहीं किया, तो इसे बग़ावत समझी जाएगी।
इब्राहिम हुसैन ने उसको हर तरह से समझाया, पर खानआज़म अपने पागलपन से पीछे नहीं हटा। खुर्रम ने मुझे ख़त लिखकर कहा कि खानआज़म पर मैंने निगरानी रखी, तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि उसका मेवाड़ रहना किसी भी तरह से मुनासिब नहीं है, वो यहां के हालात बिगाड़ रहा है।
खुर्रम का खत पढ़ने के बाद मैंने महाबत खां को उदयपुर भेजा और खानआज़म को अजमेर लाया गया। फिर मैंने मोहम्मद ताकी को मंदसौर भेजकर खानआज़म के बाल बच्चों को अजमेर बुलवा लिया।”
इस प्रकार जहांगीर ने इस घटना का विस्तार से वर्णन किया। बहरहाल, मेवाड़ में खुर्रम ने अपनी उम्र से अधिक सूझबूझ दिखाई। उसने माण्डल में ठहरकर मेवाड़ के राजपूत व भीलों की नीतियों का बारीकी से विश्लेषण किया।
पिछली छापामार लड़ाइयों में ऐसा होता था कि शाही सेना जब किसी पहाड़ी प्रदेश में प्रवेश करती, तो मेवाड़ के बहादुर एक पहाड़ी से निकलकर दूसरी तरफ से भीषण प्रहार करते थे। इसलिए खुर्रम ने तय किया कि मेवाड़ के दक्षिणी पहाड़ी प्रदेश को चारों तरफ से घेरा जाए।
22 वर्षीय खुर्रम ने अपनी हज़ारों की फौज के 4 भाग किए और इनको मेवाड़ के दक्षिणी पहाड़ों के चारों तरफ से अन्दर प्रवेश करवाया। मुगल फौज के 4 भाग के नेतृत्वकर्ता :- 1) फिरोज़ जंग अब्दुल्ला खां 2) दिलावर खां काकड़ 3) सैयद सैफ खां व किशनगढ़ के राजा किशनसिंह राठौड़ 4) मुहम्मद तकी।
खुर्रम के आदेश से सेना के इन चारों भागों ने पहाड़ी गांवों को लूटना, प्रजा पर अत्याचार करना, बाल बच्चों व औरतों को कैद करना, पहाड़ी इलाकों में उगने वाली फ़सलें जलाना शुरू किया। महाराणा अमरसिंह अपनी प्रजा को बहुत चाहते थे, इसलिए उन पर होने वाला हर एक ज़ुल्म महाराणा अमरसिंह के लिए किसी आघात से कम नहीं था।
मेवाड़ के बहादुर भील व राजपूत योद्धाओं ने जगह-जगह मुगलों से लड़ाइयां लड़ीं। पहाड़ों में भयंकर रक्तपात होने लगा। संख्याबल के कारण मुगल हावी अवश्य हो रहे थे, परन्तु पहाड़ी जानकारी होने के कारण मेवाड़ वाले भी मुगलों की फ़ौज को भारी जन-धन का नुकसान पहुंचा रहे थे।
रंग हैंवर नर चाढ़े बेगर, कुंजर घाण मथाण कर। मेवाड़ां डूंगर मेवाड़ां, आछै रंग रंगिया अमर।। अर्थात महाराणा अमरसिंह ने मुगल बादशाह की फ़ौज के यवनों को पर्वतों के घाटे रूपी मटकों में उकालकर उनके रक्त रूपी जल से अपने पुराने पर्वतों को रंगीन कर दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
नमन है उन थोड़े से वीरो को जो असंख्य दलालो और शत्रुओ से कभी न झुके।
हमेशा नमन है, मेवाड़ की माटी को जिसने वीर दिये हमारे देश को
सादर अभिवादन उन राजपूत वीरो का जिनकी वजह से हम आज भी हिन्दू है वरना आज ये कमेंट उर्दू में लिख रहे होते