जहांगीर ने कुछ वर्ष अजमेर में ही रहना तय किया और 1613 ई. में खुर्रम (शाहजहां) को एक जोरदार रत्न पुष्पों से जड़ित काबा, एक जरीदार पगड़ी जिसमें मोतियों की लड़ियाँ थीं, एक जरीदार कमरबन्द जिसमें भी मोतियों की लड़ियाँ थीं, सारे साज सहित एक फतेहगज नाम का हाथी, एक खासा घोड़ा, एक जड़ाऊ तलवार, एक जड़ाऊ खपवा और फूल कटार भी दिये और मेवाड़ पर आक्रमण करने हेतु विदा किया।
अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “खानआजम मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका की कमान में जो फौज पहले से मेवाड़ में तैनात थी, उसके अलावा मैंने अपने बेटे खुर्रम को 12,000 जंगी सवार और दिये। ये फौज सिर्फ खुर्रम के लिए थी। मेवाड़ जाने वाली कुल फौज की गिनती बता पाना मुश्किल है। खुर्रम के साथ जाने वाले सिपहसालारों को अलग से फ़ौजें देकर विदा किया।”
खुर्रम की कमान में मेवाड़ जाने वाले सिपहसालार :- फिदायत खां को फौज का बख्शी बनाया गया अर्थात सेना को वेतन देना उसका कार्य था। ज़माल खां तुर्की को मांडल के थाने पर भारी फौज के साथ तैनात किया, ताकि मेवाड़ में तैनात मुगल फौज तक जाने वाली रसद को महाराणा अमरसिंह के साथी लूट ना पाएं।
जादूराय को दीवान बनाया गया। बैरमबेग को बीजापुर में तैनात किया गया। मिर्जा बदीउज्ज़मा, जो कि मिर्जा शाहरुख का बेटा था, उसको अच्छे बन्दूकधारियों समेत कुम्भलगढ़ पर तैनात किया गया। सैयद सैफ खां को झाड़ौल में तैनात किया।
सगर सिंह सिसोदिया, जो कि जगमाल का छोटा भाई था, उसे गोगुन्दा में भारी लश्कर के साथ तैनात किया। इस लश्कर के साथ महाराज शक्तिसिंह का पौत्र नारायणदास शक्तावत भी था। इस लश्कर में मेवाड़ के विश्वासघाती सिसोदिया राजपूत महाराणा अमरसिंह के खिलाफ तैनात थे।
फरेदूं खां को ओजणे में तैनात किया। इब्राहिम खां को जावर में तैनात किया। अरब खां को नाहरमगरे में तैनात किया। नाहरमगरे का इलाका शुरु से ही मेवाड़ महाराणाओं के शिकार करने का मनपसंद स्थान रहा है।
बूंदी के राव रत्नसिंह हाडा :- 1569 ई. में अकबर व राव सुर्जन हाड़ा के बीच हुई सन्धि की एक शर्त के अनुसार बूंदी के शासक को सेना सहित मेवाड़ के विरुद्ध नहीं भेजा जाना तय हुआ। परन्तु ये शर्त अकबर के पुत्र जहांगीर ने ताक पर रख दी और राव सुर्जन हाड़ा के पौत्र व राव भोज हाड़ा के पुत्र राव रत्नसिंह हाड़ा को बूंदी की फ़ौज सहित मेवाड़ की राजधानी चावण्ड में तैनात किया गया।
मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह राठौड़ :- इनको मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों की हज़ारों की फौज के साथ सादड़ी में तैनात किया गया। जहाँगीर द्वारा मेवाड़ पर इस हमले में भेजी जाने वाली फौज का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजपूताने की सबसे बड़ी रियासत मारवाड़ के राजा को उनकी फौज समेत महज़ एक थाने पर तैनात किया गया।
मिर्जा मुराद को मादड़ी में तैनात किया। सैयद हाजी को ऊँठाळे में तैनात किया। दोस्तबेग को कपासन के थाने पर तैनात किया। ख्वाजा मुहसिन को भी दोस्तबेग के साथ कपासन के थाने पर तैनात किया।
राजा किशनसिंह राठौड़ :- ये किशनगढ़ के पहले राजा थे। इनके पिता मारवाड़ नरेश मोटा राजा उदयसिंह थे। राजा किशनसिंह ने मेवाड़ के विरुद्ध एक सैन्य अभियान में 3 हज़ार नागरिकों को बंदी बनाकर जहांगीर के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा सिद्ध की थी। राजा किशनसिंह को किशनगढ़ रियासत की फौज समेत मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्र में तैनात किया गया।
राजा सूरजमल तंवर :- ये पंजाब के नूरपुर के राजा थे। ये 1611 से 1613 ई. तक मेवाड़ के विरुद्ध सैन्य अभियान में भाग लेने वाले राजा बासु तंवर के पुत्र थे। राजा सूरजमल नूरपुर की फ़ौज सहित मेवाड़ आए। राजा बासु के दूसरे पुत्र राजा जगतसिंह तंवर भी महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध राजा सूरजमल के साथ तैनात रहे। जहाँगीर ने जगतसिंह को राजा का खिताब दिया था।
बारहा का सैयद शिहाब :- मुगलों में सैयदों की फौज सबसे काबिल मानी जाती थी, इस खातिर इसे सैयदों की भारी जमात के साथ डबोक व देबारी के थाने पर तैनात किया, जो कि उदयपुर का प्रवेश द्वार था। प्रवेश द्वार होने के कारण इसकी महत्ता बहुत अधिक थी। किसे कहाँ तैनात करना है ये सब जहांगीर पहले ही तय कर चुका था।
उसका पुत्र खुर्रम केवल अपने पिता के आदेशों के अनुरूप चल रहा था। इस बात में रत्ती भर संदेह नहीं होना चाहिए कि मेवाड़ के विरुद्ध की गई कार्रवाई में जहांगीर ने अपने पिता अकबर को भी पछाड़ दिया। जहांगीर ने बहुत सोच समझकर हर एक को अलग-अलग थानों पर तैनात करवाया।
सुलेमानबेग, मीर हिसामुद्दीन, अबुल फतह, राजा विक्रमाजीत भदौरिया चौहान, तरवियत खां, सैयद अली (सलावत खां), रज़ाक बेग उज़बक, मुहम्मद तकी मीरबख्शी, नवाजिश खां आदि नामी सिपहसालारों को भी उनकी फ़ौजी टुकड़ियों सहित मेवाड़ में जगह-जगह तैनात किया गया।
खुर्रम (शाहजहाँ) ख़ुद हज़ारों मुगलों समेत उदयपुर में तैनात रहा। मारवाड़ नरेश राजा सूरसिंह ने खुर्रम को सलाह दी थी कि आप ऊँठाळा में पड़ाव डालें, लेकिन खुर्रम ने उदयपुर में ही तैनात रहना तय किया।
मालवा की फ़ौज को मेवाड़ के विरुद्ध भेजना :- जहाँगीर ने मालवा की फौज समेत सरदार खां को बहुत से सिपहसालारों समेत मेवाड़ भेजा। 1613 ई. में मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका को भी मेवाड़ भेजा गया था। मिर्ज़ा भी पहले मालवा में ही तैनात था, इसलिए मालवा की आधी फ़ौज पहले ही मिर्ज़ा के नेतृत्व में मेवाड़ में तैनात थी। मेवाड़ में इस समय खुर्रम के बाद दूसरा सबसे अहम पद मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका का ही था।
गुजरात की फ़ौज का मेवाड़ के विरुद्ध कूच :- जहाँगीर के आदेश से गुजरात में तैनात मुगल फौज फिरोज़जंग अब्दुल्ला खां की कमान में मेवाड़ भेजी गई। अब्दुल्ला खां 1609 ई. से 1611 ई. तक मेवाड़ में ही था। ये भारी लश्कर के साथ मेवाड़ी पहाड़ों में चला गया, क्योंकि इसे मेवाड़ की पहाड़ियों के रास्ते पता थे।
गुजरात से आने वाली इस फौज के अन्य सिपहसालारों को भी अलग-अलग स्थानों पर तैनात किया गया। दिलावर खां काकड़ को आंजणे में तैनात किया। सज़ावार खां को पानड़वे में तैनात किया। ज़ाहिद को केवड़े में तैनात किया। यारबेग को भी पहाड़ी प्रदेश में तैनात किया।
दक्षिण भारत में तैनात फ़ौज व बुंदेलखंड की फ़ौज का मेवाड़ के विरुद्ध कूच :- जहाँगीर के आदेश से दक्षिण भारत में तैनात शहज़ादा परवेज़ हज़ारों की मुगल फौज व कई सिपहसालारों समेत मेवाड़ पहुंचा। इस फ़ौज में मुहम्मद खां, याकूब खां नियाज़ी, हाजीबेग उज़बक, गजनी खां जालौरी, मिर्ज़ा मुराद सफ़वी, अल्लाहयार कूका, शिर्ज़ा खां आदि सिपहसालार थे।
परवेज़ की इस फ़ौज में ओरछा के राजा वीरसिंह देव बुन्देला भी थे। परवेज़ के कहने पर राजा वीरसिंह देव ने अपनी फ़ौज को भी शामिल कर लिया और मेवाड़ की तरफ कूच किया। वीरसिंह देव बुंदेला ने अबुल फज़ल की हत्या की थी। ये जहाँगीर के खास सिपहसालार व मित्र थे।
कविराज श्यामलदास लिखते हैं कि “इन थानों में हर एक पर इतनी फौज रक्खी गई, कि एक-दूसरे की मदद का सहारा न देखे। जहांगीर अजमेर में बैठकर कुल हिन्दुस्तान की फौज को मेवाड़ के पहाड़ों में विदा कर चुका था”
ऊपर जिन-जिन थानों के नाम लिखे गए हैं, वहां हर एक पर मुगल फौज के कब्ज़े से पहले मेवाड़ी राजपूतों ने अपने व शत्रु के लहू से धरती लाल कर दी, हज़ारों शत्रु मारे गए, लेकिन संख्या में ज्यादा होने के कारण समतल स्थान के हर थाने व कई पहाड़ी इलाकों पर मुगलों का कब्ज़ा हुआ।
महाराणा अमरसिंह बहुत सी प्रजा को मेवाड़ के सुरक्षित पहाड़ों में ले गए, लेकिन बहुत से लोग समतल इलाके छोड़कर पहाड़ों में नहीं गए, वे सभी मुगल फौज के अत्याचारों तले मारे गए, बहुत से बन्दी बना लिए गए, घर जला दिए गए, फ़सलें लूट ली गईं।
इस फ़ौज की संख्या का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जहांगीर को इसकी गिनती तक नहीं पता। गुजरात, मालवा, दक्षिण भारत, राजपूताना, आगरा, बुंदेलखंड समेत भारतवर्ष के हर जगह से सेनाओं ने मेवाड़ के विरुद्ध कूच किया। इतनी ज्यादा फ़ौज राजपूताने की किसी रियासत तो क्या, 10वीं सदी के बाद के समूचे भारत के इतिहास में कभी किसी रियासत के विरुद्ध नहीं भेजी गई।
जहांगीर द्वारा मेवाड़ भेजी गई फ़ौज की तादाद लाखों में थी। बड़े-बड़े राजाओं को महज थानों पर तैनात किया गया। दूसरी तरफ महाराणा अमरसिंह के पास फ़ौज इस तुलना में काफी कम थी। महाराणा अमरसिंह जब गद्दी पर बैठे, तब 16 हज़ार घुड़सवार, 40 हज़ार पैदल सिपाही और करीब 30 हज़ार भील थे, जो 1597 से 1613 ई. तक लगातार 16 वर्षों तक चली अनगिनत लड़ाइयों के बाद आधे भी नहीं बचे।
धन्य है मेवाड़ और धन्य है महाराणा अमरसिंह जी, जिनके पराक्रम ने दिखा दिया कि यदि एक सच्चा राजपूत अपने स्वाभिमान और देशप्रेम पर उतर आए, तो उसे झुकाने के लिए इतनी फ़ौज की जरूरत पड़ जाती है कि उस फ़ौज से उड़ने वाली धूल से आसमान दिखाई देना मुश्किल लगने लगे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
अद्भुत प्रसंग जो इतिहास में नहीं मिलता . एक विनम्र सुझाव है कि अपने लेखन के स्रोत का भी उल्लेख अवश्य किया करें.
Very Nice