मेवाड़ महाराणा अमरसिंह भाग – 29

मेवाड़ पर सबसे बड़े आक्रमण के लिए जहांगीर द्वारा आगरा से कूच करना :- जहाँगीर ने आगरा से निकलने से पहले ही तमाम हिंदुस्तान के बादशाही सिपहसालारों को पैगाम भिजवाकर ये हुक्म दिए कि वे अपने-अपने इलाकों में जरूरत की फौज तैनात करके बाकी फौजों के साथ अजमेर पहुंचे।

साथ ही बीकानेर, आमेर, बूँदी, मारवाड़, अमरकोट, किशनगढ़, नूरपुर के राजपूत राजाओं को उनकी फौज समेत अजमेर पहुंचने का हुक्म दिया। जहाँगीर ने अपने बेटे खुर्रम (शाहजहाँ) को भी उसकी तमाम फौज के साथ हाजिर होने को कहा।

7 सितंबर, 1613 ई. को मुगल बादशाह जहांगीर भारी-भरकम फ़ौज सहित मेवाड़ पर सबसे बड़ा पर आक्रमण करने के लिए अजमेर हेतु रवाना हुआ। आगरा से रवाना होकर उसने दहरा बाग में पड़ाव डाला। इस बाग में जहांगीर 8 दिनों तक रहा।

वहां से उसने ख्वाजाजहा को एक हाथी और एक खिलअत देकर आगरा के राजकोष और किले की हिफाज़त करने के लिए विदा किया। फिर जहांगीर फ़ौज सहित रवाना हुआ और अगला पड़ाव रूपवास में डाला। यहां जहांगीर 11 दिनों तक रुका। ये जगह शिकार के लिए प्रसिद्ध थी, इसलिए जहांगीर ने यहां हर दिन शिकार किया।

फिर जहांगीर रूपवास से रवाना हुआ और अजमेर में प्रवेश करने का मुहूर्त निकलवाया जो कि सोमवार के दिन का था। लगभग 2 माह की यात्रा के बाद 4 नवम्बर को वह अजमेर पहुंचा। सुबह जहांगीर को ख्वाजा की दरगाह दिखाई दी। वहां से जहांगीर 2 कोस की पैदल यात्रा करते हुए दरगाह पहुंचा।

दरगार पहुंचकर जहांगीर ने बहुत सारा धन फकीरों में लुटाया और दरगाह के लिए एक बड़ी देग भेंट की। ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में कुल 2 बड़ी देग भेंट की गई थी, जिनमें से पहली देग अकबर ने 1567 ई. में भेंट की थी व दूसरी जहांगीर ने 1613 ई. में। आशय यह है कि अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण से ठीक पूर्व ये भेंट की थी और जहांगीर ने भी मेवाड़ पर आक्रमण से पूर्व देग भेंट की।

इस तरह मुगल बादशाह जहांगीर ने मेवाड़ विजय की मन्नतें मांगीं। कुछ दिन बाद जहांगीर पुष्कर की तरफ गया और वहां जाकर उसने ऐसा काम किया, जो इस बात पर मुहर लगा देता है कि वे हिन्दू जो मुगलों के अधीन थे, बादशाह के सामने उनका कोई बस नहीं चल सकता था, चाहे उनका पद कितना ही बड़ा क्यों न हो।

पुष्कर में जहांगीर ने एक मंदिर का ज़िक्र किया है और उसको मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के पुत्र सगरसिंह द्वारा बनवाया गया बताया, जो कि जगमाल का भाई व महाराणा अमरसिंह का विद्रोही था। लेकिन जहांगीर को ये बात मालूम नहीं थी कि वह प्रसिद्ध मंदिर चौहान शासक अर्णोराज द्वारा 12वीं सदी में बनाया गया है। ये वराह मंदिर था, जहां भगवान विष्णु के वराह अवतार की भव्य मूर्ति थी।

उस मंदिर में सगरसिंह सिसोदिया ने 1 लाख रुपए खर्च करके जीर्णोद्धार कराया था। जब से ये मंदिर बना, तब से ही बड़ी-बड़ी रियासतों के राजाओं ने जब भी पुष्कर में कदम रखा, इस मंदिर में तुलादान करवाया। मेवाड़ के प्रतापी शासकों ने भी यहां कई तुलादान किए थे।

पुष्कर स्थित वराह मंदिर

जहांगीर अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में लिखता है कि “पुष्कर हिंदुओं का पुराना तीर्थ है, जिसके बारे में ऐसी-ऐसी बातें हैं जिन पर कोई भी समझदार आदमी यकीन नहीं करेगा। पुष्कर अजमेर से 3 कोस की दूरी पर है। वहां तालाब में 2-3 दिन तक मैंने बत्तखों का शिकार किया। वहां एक मंदिर के आसपास कई सारे मंदिर बने थे, जिनको काफिरों की ज़ुबान में देवरा बोलते हैं।

इनमें से एक मंदिर राणा अमर के चाचा सगर ने बनवाया था। सगर मेरी सल्तनत में बड़े दर्जे का सरदार है। यह देवरा बहुत बड़ा है, इसको बनाने में सगर ने 1 लाख रुपया खर्च किया था। मैं इस मंदिर को देखने गया। मैंने देखा कि काले पत्थर की एक मूर्ति रखी हुई है।

इस मूर्ति का गर्दन से ऊपर का हिस्सा सुअर जैसा दिखाई दे रहा था और बाकी हिस्सा इंसान जैसा था। हिंदुओं के धर्म में कहा गया है कि एक बार जरूरत पड़ने पर उनके भगवान ने इस अवतार में जन्म लिया था। मैंने उस मूर्ति को तोड़कर तालाब में फिंकवाने का हुक्म दिया।

इस मंदिर को देखने के बाद एक पहाड़ी पर एक सफेद गुम्बद दिखाई दिया, जहां सब लोग आया करते थे। इसके बारे में मैंने पूछताछ की तो लोगों ने बताया कि वहां एक जोगी रहता है। मैंने हुक्म दिया कि इस जोगी की जगह को खत्म कर दिया जाए और जोगी को यहां से निकाल दिया जाए। मेरे हुक्म से उस गुम्बद में रखी हुई मूर्ति भी तोड़ दी गई।”

पुष्कर स्थित वराह मंदिर, जिसको देखते ही मालूम पड़ता है कि मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया गया है

जहांगीर द्वारा ऊपर लिखित वर्णन से हिंदुओं के प्रति उसकी भावनाएं साफ ज़ाहिर हैं। पाठकों को ये जानकर आश्चर्य होगा कि जिस समय ये घटना घटित हुई, उस समय शायद ही कोई राज्य हो जहां से कोई हिंदू वहां मौजूद न हो। जहांगीर द्वारा ये अनैतिक कार्य कोई मामूली हरकत नहीं थी, लेकिन निश्चित ही उसे अपने अधीनस्थ हिंदुओं का कोई भय नहीं रह गया था।

जो शासक मुगल अधीनता स्वीकार करके मनसबदारी ले चुके थे, वे हिंदुत्व के प्रति सहानुभूति होने के बावजूद भी कुछ न कर सके। यही कारण था कि मेवाड़ सदा से ही इन सल्तनतों का प्रखर विरोध करता आ रहा था। यहां जहांगीर ने सगरसिंह को भी उसकी हैसियत दिखा दी थी कि वह इस शतरंज के खेल का महज़ एक अदना सा प्यादा है।

ये पहला मौका नहीं था, जब जहांगीर ने ऐसा कारनामा किया हो। तारीख-इ-सलीम-शाही में लिखा है कि “बादशाह जहांगीर ने राजा मानसिंह कछवाहा के बनाए हुए मंदिर की जगह मस्जिद बनाने के लिए उसको तुड़वा दिया था।” इसी तरह उसने गुजरात के जैनियों द्वारा बनवाए गए एक मंदिर को तुड़वाकर उसकी मूर्ति को मस्जिद की पहली सीढ़ी के नीचे लगवा दिया।

जहांगीर के शासनकाल के बाद भगवान वराह के इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया गया और उसके पौत्र औरंगज़ेब ने पुनः इसे ध्वस्त कर दिया। बाद में मंदिर का दोबारा पुनर्निर्माण करवाया गया। बहरहाल, सच ही कहा गया है कि मंदिर बनवाना मुश्किल नहीं, परन्तु उस दौर में मंदिर बचाना हिंदुओं के लिए मुश्किल होता जा रहा था।

वह मेवाड़ जो कभी किसी सल्तनत के सामने नहीं झुका और अब तक उसकी लड़ाई सीधी सल्तनत से हुआ करती थी, अब उसी मेवाड़ को झुकाने के लिए उस दौर का समस्त हिंदुस्तान जो मुगल साम्राज्य की सीमाओं में आता था, जहांगीर के मुगलीय ध्वज तले तैयार खड़ा था।

जहांगीर जब भारी-भरकम सेना सहित अजमेर पहुंचा और उसने कई राजे रजवाड़ों को इस शाही फ़ौज में शामिल होने का हुक्म दे दिया, तो महाराणा अमरसिंह तक ये ख़बर पहुंचने में देर नहीं लगी, परन्तु प्रश्न ये कि इतने बड़े आक्रमण का सामना कैसे किया जाए, कैसे प्रजा को बचाया जाए, कैसे राजपरिवार व सामन्तों की स्त्रियों और बच्चों को बचाया जाए, कैसे मेवाड़ के दुर्गों, यहां के मंदिरों को बचाया जाए।

प्रश्न अनेक थे, समस्याएं अनेक थीं, परन्तु महाराणा अमरसिंह ने अपना धैर्य नहीं खोया। प्रजा को पहाड़ियों में आश्रय दिया गया, लेकिन महाराणा अमरसिंह जानते थे कि इस बार शाही सेना पहाड़ियों के बाहर इंतजार नहीं करेगी, बल्कि भीतर तक प्रवेश करने का भरसक प्रयत्न करेगी।

महाराणा अमरसिंह जी

राजपरिवार व सामन्तों की स्त्रियों व बच्चों को गुप्त स्थानों पर रखा गया। मेवाड़ के ख़ज़ाने की सुरक्षा के लिए भामाशाह जी के पुत्र जीवाशाह को सतर्क कर दिया गया। हज़ारों भीलों को पहाड़ी नाकों पर तैनात रखा गया। मेवाड़ी बहादुरों ने अपनी तलवारों की धार तेज़ कर ली और तैयार हो गए जहां तक सम्भव हो वहां तक पराक्रम दिखाने के लिए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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