मेवाड़ महाराणा अमरसिंह जी (भाग – 28)

जहांगीर का मेवाड़ के खिलाफ अजमेर कूच करना :- सितम्बर, 1613 ई. को जहांगीर मेवाड़ पर आक्रमण करने के उद्देश्य से अजमेर के लिए रवाना हुआ। जहांगीर 1600 ई. और 1603 ई. में मेवाड़ आ चुका था, पर तब एक शहजादे की हैसियत से आया था, पर अब वह एक मुगल बादशाह की हैसियत से अजमेर जाना चाहता था।

मुगल बादशाह जहाँगीर के मेवाड़ अभियान से पहले इस बादशाह के बारे में कुछ बातें :- जहांगीर का जन्म 1569 ई. को शैख़ सलीम चिश्ती की कुटिया में हुआ। जहाँगीर ने अपने पिता के शासनकाल में ही बगावत का रास्ता अपनाया और अकबर के मरने पर बादशाह बना।

बादशाह बनते ही जहाँगीर ने नियमों में कई सुधार कार्य किए, जिससे जनता में उसने अपनी अच्छी छवि बनाई। जहांगीर ने अपने शासनकाल में कई नशीली चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया, परन्तु वह ख़ुद अपने नशे पर काबू नहीं पा सका। जहांगीर लिखता है कि “एक वक्त ऐसा आया जब मैं दिन के 20 प्याले शराब पीने लगा। मेरे हाथ इतने ज्यादा कांपने लगे कि प्याला तक उठाया नहीं जाता था। मेरे नौकर मुझे शराब पिलाने लगे।”

जहांगीर का शराब का प्याला

जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी लिखी, लेकिन अपनी शराब की बुरी लत के चलते यह तवारीख पूरी नहीं लिख पाया। उसके हाथ कांपने लगे और वास्तविक सत्ता गद्दी के पीछे नूरजहां संभालने लगी। बाद में 1624 ई. से इस तवारीख को मोतमिद खां ने पूरा किया।

जहाँगीर बन्दूक का अचूक निशाना लगाया करता था व इसे चित्रकारी का बड़ा शौक था। अगर उसके दरबार में दस चित्रकारों ने कोई चित्र बनाया होता, तो वह चित्र देखकर बता सकता था कि कौनसा हिस्सा किस चित्रकार ने बनाया है।

जहाँगीर को कई इतिहासकारों ने नेक व रहमदिल लिखा है, पर ऐसा नहीं था। जहाँगीर भी दूसरे बादशाहों की तरह सख्त बेरहम था। वीरविनोद में लिखा है कि “इस बादशाह ने इलाहाबाद में एक आदमी की खाल निकलवा कर उसमें भूसा भरवाया। ऐसी सज़ा इसके बाप ने भी कभी किसी को न दी थी”

सर टॉमस रो जब आगरा आया तब जहाँगीर ने उसके सामने महल की एक औरत को ज़िंदा ज़मीन में गड़वा दिया। इस बात का ज़िक्र टॉमस रो ने अपनी किताब में किया है।

हमें पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है कि जहांगीर ने अपने महल के नीचे न्याय की जंजीर लगवाई थी, जिसे कोई भी आदमी आकर बजाता तो उसे उसी वक्त न्याय दिया जाता। जबकि वास्तविकता में जहांगीर को अपने किसी भी कार्य में खलल बिल्कुल पसंद नहीं था।

ख़ुद जहाँगीर लिखता है कि “हम शिकार को निकले थे कि तभी हमारी फौज का एक सिपाही और दो कहार शिकार के बीच में आ गए, जिससे हम निशाना नहीं लगा पाए। हमने सिपाही को तो मरवा डाला और दोनों कहारों के पैर कटवा दिए”

जहांगीर ने सिखों के छठे गुरु अर्जुन सिंह की हत्या करवा दी थी। जहांगीर ने हिन्दू साधुओं की भी हत्या करवाई और यह तर्क दिया कि वे लोग अंधविश्वासी हैं और जनता को गुमराह करते हैं, जबकि जहांगीर स्वयं अंधविश्वासी था। जहांगीर ने लिखा है कि जब खुसरो की पुत्री का जन्म हुआ था तब ऐसी भविष्यवाणी की गई कि मैं 3 वर्षों बाद अपनी पोती का मुंह देखूं। जहांगीर ने ठीक ऐसा ही किया।

बादशाहनामे में मौलवी अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है कि “राणा अमर की मुहिम पर जाने से शहजादे परवेज़, महाबत खां व अब्दुल्ला खां ने सिवाय परेशानी व सरगर्दानी के कुछ फायदा न उठाया”

जहांगीर

जहांगीर ने तुजुक-ए-जहांगीरी में विस्तार से लिखा है कि उसे अजमेर क्यों जाना पड़ा। जहांगीर लिखता है कि “मैंने अजमेर जाने के लिए ज्योतिषियों से सही वक्त निकलवाया। सोमवार की रात सात घड़ी बीतने पर दो शाबान को, जो 24 शहरिया (7 सितंबर, 1613 ई.) होता है, उस दिन मैं खुशी से आगरा से अजमेर जाने के लिए रवाना हुआ।

मेरे अजमेर जाने के दो मकसद थे। पहला तो ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर जाना, जिसकी दुआओं से इस शाही घराने को बहुत फायदा हुआ था और जिसकी ज़ियारत के लिए मैं अपनी गद्दीनशीनी के बाद कभी न गया और दूसरा ये कि राणा अमरसिंह को हराकर पीछे हटाना। हिन्दुस्तान के सारे जमींदारों और राजे-रजवाड़ों में राणा अमरसिंह सबसे अहम था।

सारे राजे-रजवाड़े राणा और उसके बाप-दादों की कमान (नेतृत्व) और बड़प्पन को मानते थे। राणा के पुरखों ने लम्बे वक्त तक हुकूमत की। उन्होंने दक्षिण में कई मुल्कों पर फतह हासिल की। ये राजा नहीं लगाकर, रावल लगाते थे। उसके बाद मेवाड़ आ गए और धीरे-धीरे चित्तौड़ के किले पर इनका कब्जा हुआ।

राणा के पुरखों को हुकूमत करते-करते मेरी तख्तनशीनी के 8वें साल तक 1,471 साल हो गए। इनमें से 1,010 सालों तक 26 शासक हुए। इसके बाद के 461 सालों तक भी 26 शासक हुए। पहले इनको रावल का खिताब मिला, पर बाद में राणा के खिताब से मशहूर हुए।

इतने लम्बे वक्त तक हुकूमत करने के बावजूद इन्होंने हिन्दुस्तान के किसी बादशाह के सामने अपनी गर्दन नहीं झुकायी, बल्कि ये तो हिन्दुस्तान के हर बादशाह के राज में बगावत और मुश्किलें पैदा करते थे। मेरे पर-दादा बादशाह बाबर और राणा सांगा के बीच कई लड़ाईयाँ हुई। राणा सांगा 1 लाख 80 हज़ार घुड़सवार और लाखों की पैदल फ़ौज को लेकर चढ़ आया था, जिसको मेरे दादा ने शिकस्त दी। मेरे बाप ने भी इन बागियों के खिलाफ कई बार फौजें भेजी।

अपनी तख्तनशीनी के 12वें साल में उन्होंने राणा अमरसिंह के बाप और दादा से बड़ी मुश्किल से 4 महीने और 10 दिन की घेराबन्दी के बाद चित्तौड़ फतह किया। लौटते वक्त उन्होंने चित्तौड़ को तहस-नहस कर दिया। उन्होंने राणा अमरसिंह के बाप को काबू में करने के लिए कई फौजें भेजी, पर कामयाबी नहीं मिली।

मेरे बाप ने भी मुझे 2 बार राणा अमरसिंह को काबू में करने भेजा, पर कामयाबी नहीं मिली। मेरा बाप राणा के मुल्क को खत्म करना चाहता था। जब मैं बादशाह बना तो मैंने अपने बेटे शहजादे परवेज़ को एक बड़ी फौज, भारी खज़ाने और कई तोपों के साथ भेजा।

महाराणा उदयसिंह, महाराणा प्रताप, महाराणा अमरसिंह

खुसरो की बगावत के चलते मुझे परवेज़ को आगरा बुलाना पड़ा। खुसरो की बगावत कुचलने के बाद राणा की हरकतें देखते हुए मैंने महाबत खां के बाद अब्दुल्ला खां और उसके बाद कुछ और सिपहसालारों को भेजा। तब से लेकर अब तक हर वक़्त राणा अमर का मुल्क शाही फौज रौंदती रही, पर शाही फौज को वो कामयाबी नहीं मिली, जो हम चाहते थे।

हर काम का एक वक्त होता है, जब होना होता है, तभी काम होता है। मुझे ख़याल आया कि आगरा में मुझे कोई काम नहीं है और मेरे गए बिना मेवाड़ वाला काम ठीक से नहीं होगा। इस तरह मैंने खुद राणा को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए आगरा से अजमेर जाने का फैसला किया।”

जहांगीर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने से पूर्व मेवाड़-मुगल आक्रमणों का विस्तार से वर्णन किया है, परन्तु इसमें कुछ त्रुटियां हैं। जहांगीर ने महाराणा सांगा की फ़ौज बहुत ज्यादा बता दी, जिसका विस्तार से वर्णन मैं महाराणा सांगा के इतिहास लेखन में करूँगा। इसके अतिरिक्त जहांगीर ने जो 1010 ई. में और 461 ई. में 26-26 शासक होने की बात लिखी है, वो भी तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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