महाराणा अमरसिंह के परिवार की विस्तृत जानकारी :- महाराणा अमरसिंह की 26 रानियां थीं, जिनमें से मुझे 5 के बारे में ही जानकारी प्राप्त हो सकी है, जो कुछ इस तरह है :- 1) महारानी आरती बाई चौहान, जो कि मेवाड़ की पटरानी थीं। 2) रानी साहबकंवर, जो कि ठाकुर शालिवाहन शाह की पुत्री थीं। इनके पुत्र कुंवर कर्णसिंह हुए।
3) इनका नाम नहीं मिल पाया है। ये देलवाड़ा के झाला मानसिंह जैतावत की पुत्री थीं। इनके पुत्र कुंवर सूरजमल व कुंवर बाघसिंह हुए। 4) इनका भी नाम नहीं मिल पाया है। ये वीरपुरा के अखैराज कान्हावत की पुत्री थीं। इनके पुत्र कुंवर भीमसिंह हुए।
5) इनका भी नाम ज्ञात नहीं हो सका है। ये भानीदास हरराजोत देवड़ा की पुत्री थीं। इनके पुत्र कुँवर अर्जुनसिंह हुए। मुहणौत नैणसी के अनुसार कुंवर अर्जुनसिंह बीजा देवड़ा के दोहिते थे।
महाराणा अमरसिंह की 2 पुत्रियों की जानकारी मिलती है :- 1) केसर कुमारी :- महाराणा अमरसिंह की पुत्री केसर कुमारी का विवाह सिरोही के राव सुरताण देवड़ा से हुआ था। यह सम्बन्ध महाराणा प्रताप ने तय करवाया था। केसर कुमारी ने राव सुरताण के बड़े बेटे कुँवर राजसिंह देवड़ा को जन्म दिया। 2) बलवन्तां बाई, जिन्हें बछवन्तां बाई के नाम से भी जाना जाता है।
महाराणा अमरसिंह के पुत्र :- 1) कुंवर कर्णसिंह :- महाराणा अमरसिंह के पहले पुत्र कुंवर कर्ण सिंह हुए, जो आगे चलकर मेवाड़ के महाराणा बने। कुंवर कर्ण सिंह का जन्म 7 जनवरी, 1584 ई. को हुआ। ये बड़े पितृभक्त थे।
2) कुंवर सूर्यमल्ल :- इन्हें कुँवर सूरजमल के नाम से भी जाना जाता है। ये महाराणा अमरसिंह के दूसरे पुत्र थे। कुँवर सूरजमल मेवाड़ छोड़कर बादशाही सेवा में चले गए। कुँवर सूरजमल के पुत्र सुजानसिंह को मुगल बादशाह शाहजहां ने शाहपुरा का राजाधिराज बना दिया। कुँवर सूरजमल के वंशज गांगावास, शाहपुरा, सरवाणिया, बड़लियास, नरेला में बसते हैं।
3) कुंवर भीमसिंह :- अपने नाम के अनुरुप ही इनका युद्धभूमि में कोई सानी नहीं था। इनकी वीरता के चर्चे अक्सर मुगल दरबार में हुआ करते थे। रणभूमि में जब घोड़े पर सवार होकर ये एक हाथ में तलवार व दूसरे हाथ में भाला लेकर शत्रुओं की सेना को चीरते हुए आगे बढ़ते थे, तब देखने वालों को साक्षात महाराणा प्रताप का स्मरण स्वतः ही हो जाता था।
4) कुंवर अर्जुनसिंह :- कुँवर अर्जुनसिंह ने आखिर तक महाराणा अमरसिंह का साथ दिया। कुँवर अर्जुनसिंह की कोई संतान नहीं हुई। 5) कुंवर रत्नसिंह :- ये भी निस्संतान रहे।
6) कुंवर बाघसिंह :- कुँवर बाघसिंह को परवेज़ से नाममात्र की सन्धि के दौरान आगरा भेजा गया था, जहां 6 माह रहकर वे पुनः मेवाड़ लौट आए। कुँवर बाघसिंह के पुत्र सबलसिंह हुए, जो कि पृथ्वीराज के पुत्र बाघ के दोहिते थे।
मुहणौत नैणसी के अनुसार बाघसिंह संवत 1665 में मारवाड़ नरेश महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ से मिलने पहुंचे थे, तब मारवाड़ नरेश ने उनको 20 गांव जागीर में देने चाहे, पर बाघसिंह ने लेने से इनकार किया और मेवाड़ लौट आए।
संवत 1665 अर्थात वर्ष 1608 ई. में मारवाड़ के राजा सूरसिंह थे, ना कि महाराजा जसवंतसिंह। मुहणौत नैणसी स्वयं महाराजा जसवंतसिंह के दरबारी थे, फिर भी न जाने उनसे इस लेख में चूक कैसे हो गई। मेरे विचार से यह घटना सही है, परन्तु मुहणौत नैणसी ने संवत गलत लिख दिया।
बांसी के रावत अचलदास शक्तावत का देहांत :- 1609 ई. में महाराणा अमरसिंह ने महाराणा प्रताप के भाई महाराज शक्तिसिंह के पुत्र रावत अचलदास शक्तावत को मेवाड़ का सेनापति घोषित किया। रावत अचलदास अपने पिता की भांति वीर व साहसी थे। उन्होंने महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में कई लड़ाइयों में बहादुरी दिखाकर अपनी योग्यता सिद्ध की थी।
रावत अचलदास शक्तावत के बारे में प्रसिद्धि है कि उन्होंने अकबर के दरबार में उसके सामने अपनी तलवार डालने से मना कर दिया था। इस घटना का पता जब महाराणा प्रताप को चला तो उन्होंने रावत अचलदास को अपने पास बुलाकर देसूरी का पट्टा दे दिया। महाराणा प्रताप के समय में जब कुंवर अमरसिंह ने मुगल थाने उठाए उनमें रावत अचलदास ने भी अपना सहयोग दिया था।
रावत अचलदास ने महाराणा प्रताप के आदेश से राव पत्ता हाड़ा को भी पराजित किया था। अचलदास शक्तावत को बान्सी की जागीर मिली। ये बान्सी के पहले रावत साहब थे। मेवाड़ के लिए इन्होंने ऊँठाळा समेत कई युद्धों में भाग लिया।
1597 ई. में चीताखेड़े की लड़ाई में सैयदों व देवलिया की मिली जुली फौज से लड़ते हुए रावत अचलदास के भाई जोधा शक्तावत वीरगति को प्राप्त हुए थे। कुछ वर्षों बाद रावत अचलदास शक्तावत ने अपने भाई जोधा की मृत्यु के लिए देवलिया के भानुसिंह के बेटे सिंहा को उत्तरदायी ठहराते हुए महाराणा अमरसिंह से फौज की मांग की।
महाराणा ने रावत अचलदास की ज़िद के चलते देवलिया पर मेवाड़ी फौज ले जाने की अनुमति दे दी। रावत अचलदास ने देवलिया को घेरकर बर्बाद किया और सिंहा को कैद कर महाराणा के सामने हाजिर हुए। सिंहा के माफी मांगने पर महाराणा ने उसे जीवनदान दिया।
अचलदास शक्तावत महाराणा अमरसिंह के पास आए और उनसे कहा कि मुझे अब भी लगता है कि सैयद ही मेरे भाई के हत्यारे हैं। मैं सैयदों पर हमला करना चाहता हूँ, इसलिए मुझे वहां मेवाड़ी फौज ले जाने की अनुमति देवें।
महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “आपने अपने भाई की मृत्यु का बैर निकालने की खातिर पूरे देवलिया को बर्बाद कर दिया। मेवाड़ की फौज निजी लड़ाई झगड़ों के लिए नहीं है”।
अचलदास अपनी बात पर अड़े रहे। अचलदास लाख समझाने पर भी नहीं माने, तो महाराणा अमरसिंह ने अचलदास की तरफ देखा और बोले :- “सवायो सगत” (शक्तिसिंह जी बड़े उग्र स्वभाव के थे। इसलिए महाराणा के कहने का अर्थ था कि तुम उग्र स्वभाव के मामले में अपने पिता से भी आगे हो।)
ऐसा कहा जाता है कि अचलदास शक्तावत ने यह ताना सुनते ही उसी समय तलवार निकाली और अपना सर काटकर एकलिंग जी को समर्पित कर दिया। इस बात का महाराणा को बड़ा रंज हुआ।
रावत अचलदास शक्तावत के देहांत के कुछ और किस्से भी बताए जाते हैं, परन्तु इसका कोई ठोस प्रामाणिक वर्णन उपलब्ध नहीं हो सका है। कुछ पुस्तकें रावत अचलदास जी के किसी युद्ध में वीरगति पाने का उल्लेख करती हैं।
एक पुस्तक के अनुसार महाराणा अमरसिंह ने रावत अचलदास को सवायो सगत कहा, उसमें सगत का आशय सगरसिंह से निकाला गया है। सगरसिंह जगमाल का छोटा भाई था। परन्तु मेरे विचार से ये तथ्य गलत है, क्योंकि सगरसिंह का नाम विश्वासघात करने वालों की सूची में शुमार है और रावत अचलदास ने केवल उग्र प्रवृत्ति प्रदर्शित की थी, अन्यथा उनका हर एक कार्य अपनी मातृभूमि को समर्पित था।
बहरहाल, वास्तविकता जो भी हो, मेवाड़ ने एक वीर, साहसी व आक्रामक प्रवृत्ति के योद्धा को खो दिया। रावत अचलदास शक्तावत की 9 रानियाँ थीं। इनके सबसे बड़े पुत्र नाहरदास शक्तावत (नरहरि) हुए, जो बड़े बहादुर थे। महाराणा अमरसिंह ने बान्सी का अगला रावत नाहरदास शक्तावत को बनाया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)