परवेज़ की चढ़ाई का वर्णन करते हुए जहांगीर ने कुछ ऐसा लिखा जिससे पता चलता है कि उसकी सबसे बड़ी इच्छा के बीच महाराणा अमरसिंह दीवार बनकर खड़े थे। तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि
“मेरी ख्वाहिश है कि मावरुनहर पर फतह हासिल की जावे। वह मेरा वतन है, जहां मेरे बाप-दादों का राज था। मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान के उत्पाती और शैतानी लोगों का दमन कर अपने किसी बेटे को यहां छोड़ दूँ और खुद बड़ी फौज, हाथियों के साथ और बड़ा ख़जाना लेकर उस देश चला जाऊँ। इस ख़याल से परवेज़ को मैंने राणा अमर की ओर रवाना किया था, पर परवेज़ की चढ़ाई बेकार रही।”
जिन्हें लगता है कि मुगल हिंदुस्तान को मन से चाहते थे और यहीं राज करना पसंद करते थे, उन्हें जहांगीर के इस कथन को गौर से पढ़ना चाहिए। इस मामले में जहांगीर की सोच मुगल बादशाह बाबर से काफी मिलती है। हालांकि फिर भी उसे बाबर से कमतर ही कहा जाएगा, क्योंकि बाबर को तो हिंदुस्तान में दफन होना भी पसंद नहीं था।
मार्च, 1608 ई. में परवेज़ को आगरा बुला लिया गया और उसके स्थान पर महाबत खां को फ़ौज सहित मेवाड़ भेजना तय किया गया। अकबर के समय गयूर बेग नामक एक शख्स उसकी सेवा में हाजिर हुआ था, उसी का बेटा महाबत खां हुआ।
जहांगीर के शासनकाल में महाबत खां का ओहदा बड़ा था और वह जहांगीर का विश्वासपात्र था। महाबत खां का असली नाम ज़मान बेग था। मेवाड़ के विरुद्ध अभियान में नियुक्त करते ही जहांगीर द्वारा महाबत खां का मनसब दुगुना कर दिया गया।
जुलाई, 1608 ई. में महाबत खां फ़ौज सहित रवाना हुआ। तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “हमने राणा अमर पर फतह पाना तय कर लिया था। इस ख़ातिर हमने महाबत खां को 12 हज़ार जंगी सवार, 500 अहदी, 2 हज़ार बर्कन्दाज़, 70-80 तोप गजनाल और शुतरनाल, 60 हाथी और 20 लाख का ख़जाना दिया।”
जहांगीर आगे लिखता है कि “मैंने महाबत खां को 3 हज़ार जात और ढाई हज़ार सवार का मनसब, एक खिलअत, घोड़ा-हाथी और पटका, जड़ाऊ खंजर इनायत किया। दूसरे उमराव जो उसके साथ थे सबको इनआम देकर विदा किया”
बर्कन्दाज़ से आशय है बन्दूकची, गजनाल से आशय है हाथी पर लदी तोप, शुतरनाल से आशय है ऊँट पर लदी तोप, अहदी से आशय विशेष लड़ाइयों में भेजे जाने वाले निपुण योद्धाओं से है, जो कि मुगल बादशाह की निजी सेवा में रहते थे।
महाबत खां के साथ मेवाड़ कूच करने वाले बादशाही सिपहसालार :- मुइज़ुलमुल्क को मुगल फ़ौज का बख्शी बनाया गया। बख्शी का कार्य फ़ौज को वेतन देना होता था। जाफ़र खां को जहांगीर ने मुगल ध्वज, एक खिलअत व एक जड़ाऊ खंजर दिया।
शुजाअ़त खां को मुगल ध्वज, एक खिलअत व एक हाथी दिया। मंगली खां को एक घोड़ा व एक जड़ाऊ खंजर दिया। बहादुर खां को एक जड़ाऊ खंजर दिया। निजामुल्मुल्क को एक जड़ाऊ खंजर दिया।
मेवाड़ जाने वाले राजपूत सिपहसालारों में ओरछा के राजा वीरसिंह देव बुंदेला बुंदेलखंड की फ़ौज के साथ थे, जिन्होंने जहांगीर के आदेश से अबुल फजल की हत्या की थी। राजा वीर सिंह जहाँगीर के मित्र व सबसे खास सिपहसालारों में से एक थे। इनको एक खिलअत व एक घोड़ा देकर विदा किया गया।
राजा किशनसिंह राठौड़ को भी मेवाड़ के विरुद्ध भेजा गया। ये मारवाड़ के मोटा राजा उदयसिंह राठौड़ के 9वें पुत्र थे। ये किशनगढ़ रियासत के पहले शासक भी थे। किशनगढ़ वर्तमान में अजमेर जिले का हिस्सा है।
कुछ सिपहसालारों को मेवाड़ अभियान से हटाकर छुट्टी दे दी गई, जिनमें प्रमुख थे नारायणदास खंगारोत कछवाहा, जिनको मेवाड़ के विरुद्ध भेजा गया था। ये नराणे के जागीरदार थे। इनके पिता राव खंगार कछवाहा मेवाड़ के विरुद्ध 1583 ई. में हुई मांडल की लड़ाई में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के आक्रमण में काम आए थे। इसी तरह अली कुली दरमन, हिज़ब्र खां तहमतन आदि सिपहसालारों को भी छुट्टी दी गई।
28 जुलाई, 1608 ई. को मुगल फौज ने आगरा से प्रस्थान किया। महाबत खां बड़े गुरुर के साथ शहजादे परवेज़ की फौज की खराबी का बदला लेना चाहता था। महाबत खां अजमेर पहुंचा। अजमेर में कुछ दिन ठहरकर वह जगह-जगह मेवाड़ में थाने बिठाता हुआ ऊँठाळा पहुंचा। रास्ते में जितने मेवाड़ी थाने आए, सब महाबत खां द्वारा हटा दिए गए। उसने ऊँठाळा में अपनी कुल फौज को जमा किया।
ऊँठाळा में महाबत खां 2-3 दिन तक रहा। महाराणा अमरसिंह से यहां एक चूक हो गई। वे आवेश में आकर जल्दबाज़ी में फौज समेत पहाड़ियों से निकलकर उदयपुर आए और वहाँ से ऊँठाळा में तैनात कुल बादशाही फौज पर हमला कर दिया, जिससे महाराणा की फौज ने करारी शिकस्त खाई।
इस लड़ाई में राजा किशनसिंह राठौड़ ने मुगल पक्ष की ओर से महाराणा की फौज पर हमला किया, जिससे महाराणा के 20 बेहद खास योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। किशनसिंह ने मेवाड़ की प्रजा पर अत्याचार करते हुए 3 हज़ार मेवाड़ी नागरिकों को बन्दी बना लिया। इस लड़ाई में मेवाड़ के कई राजपूतों को अपने प्राण गंवाने पड़े।
मेवाड़ का एक वीर राजपूत सैनिक हाथ में भाला लिए किशनसिंह की तरफ दौड़ा और भाले का जोरदार प्रहार किया। किशनसिंह कुछ पीछे हट गए, लेकिन भाले से अपने पैर को नहीं बचा सके। भाला किशनसिंह के पैर पर लगा, जिससे ये घाव लंबे समय तक बना रहा।
बाद में जहांगीर ने राजा किशनसिंह की इस कार्रवाई से ख़ुश होकर किशनगढ़ के इस राजा का मनसब बढ़ाकर 2 हज़ार जात और 1 हज़ार सवार कर दिया था। महाराणा अमरसिंह बड़े दयालु शासक थे व प्रजा के हित को सर्वोपरि मानते थे, इसलिए महाराणा के लिए ये एक बड़ा आघात था। केवल प्रजा ही नहीं, मेवाड़ के कुछ घायल राजपूत भी मुगलों द्वारा जीवित पकड़ लिए गए।
मेवाड़ के विरुद्ध ऐसी निर्दयी कार्रवाई करने के बावजूद कुछ वर्षों बाद महाराणा अमरसिंह के प्रपौत्र महाराणा राजसिंह ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती को औरंगज़ेब के चंगुल से छुड़ाकर किशनगढ़ की अस्मिता की रक्षा की। इतिहास के पन्नों पर स्वयं के हितों के लिए बहुत लोग लड़े हैं, परन्तु जो दूसरों के हित, अस्मिता व गौरव की रक्षा करना अपना धर्म समझे, वही प्रेरणास्रोत बनकर इतिहास में युगों-युगों तक जीवित रहता है।
बहरहाल, महाराणा अमरसिंह को भारी कीमत चुकाने के बाद फौज समेत फिर पहाड़ियों में लौटना पड़ा। इस चूक का नतीजा ये हुआ कि मेवाड़ की फ़ौज महाबत खां को रोकने में असफल रही और महाबत खां लगातार आगे बढ़ता हुआ गिरवा तक पहुंच गया।
महाराणा अमरसिंह को अपनी इस चूक का बड़ा पछतावा हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि भविष्य में ऐसी गलती दोबारा नहीं होने देंगे। उन्होंने इस पराजय का प्रतिशोध लेने की खातिर समस्त मुगल फौज पर पूरी रणनीति के साथ छापामार तरीके से हमला करने का फैसला किया। मेवाड़ के दरबार में विचार विमर्श होने लगा कि महाबत खां जैसे सफल आक्रमणकारी को कैसे परास्त किया जाए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)