मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 19)

1608 ई. में जहाँगीर ने शहज़ादे परवेज़ को मेवाड़ अभियान से हटाकर महाबत खां को फ़ौज सहित मेवाड़ भेजा था, जहां महाबत खां ने ऊँठाला के युद्ध में मेवाड़ी सेना को परास्त कर दिया और वह गिरवा की पहाड़ियों तक पहुंच गया। महाराणा अमरसिंह अपनी जल्दबाजी के कारण ये लड़ाई हार गए, जिसका उन्हें बड़ा पछतावा हुआ और उन्होंने तय किया कि महाबत खां को वे ऐसी शिकस्त देंगे, जिसकी कल्पना तक किसी मुगल ने नहीं की होगी।

महाबत खां के हाथों महाराणा अमरसिंह को मिली पराजय मुगलों के लिए केवल एक क्षणिक सफलता थी, क्योंकि मेवाड़ की सेना अभी भी आक्रामक स्थिति में थी। महाराणा अमरसिंह ने अलग-अलग स्थानों पर छापामार हमले करना शुरू कर दिया। महाराणा अमरसिंह ने पर्वतीय परिस्थितियों के अपने ज्ञान का पूरा उपयोग किया।

मेवाड़ नरेश आजानबाहु महाराणा अमरसिंह जी

मुगल सेना पर कभी इधर तो कभी उधर हर तरफ से मार पड़ने लगी। मुगल सेना महाराणा अमरसिंह की सूझबूझ के आगे चकरा गई। कोई दिन ऐसा नहीं जाता था जब मुगलों और मेवाड़ के राजपूतों की सैनिक टुकड़ियों में मुठभेड़ न हुई हो। चित्तौड़ से उदयपुर के बीच की समस्त भूमि रणभूमि में तब्दील हो चुकी थी।

महाबत खां ने मेवाड़ में मांडल से देबारी तक कुल 6 बड़े मुगल थाने बिठाए, जहां हज़ारों की सेना तैनात की गई। महाराणा अमरसिंह ने प्रजा को पहाड़ों में सुरक्षित कर दिया। फिर महाराणा अमरसिंह ने अपनी कुल फौज को पहाड़ों से निकलकर उदयपुर में जमा होने का आदेश दिया। महाराणा स्वयं भी उदयपुर के महलों में पधारे।

महाबत खां की करारी शिकस्त :- उदयपुर में महाराणा अमरसिंह ने अपने सामन्तों से विचार विमर्श कर रात में मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। आक्रमण किस प्रकार किया जाएगा, इसका सुझाव बेगूं के रावत मेघसिंह चुंडावत ने दिया। रावत मेघसिंह का सुझाव सुनकर सभी उत्साह से भर गए। महाराणा अमरसिंह ने रावत मेघसिंह के सुझाव की प्रशंसा की।

महाराणा अमरसिंह ने रावत मेघसिंह चुण्डावत को 500 घुड़सवार देकर महाबत खां पर आक्रमण करने भेजा। महाराणा स्वयं भी शेष फ़ौज सहित पीछे पीछे आए। रावत मेघसिंह सलूम्बर के रावत कृष्णदास चुण्डावत के भाई गोविंददास चुंडावत के पुत्र थे।

महाबत खां इस वक्त ऊँठाळा में अपनी हज़ारों की फौज के साथ तैनात था। रात का समय था। रावत मेघसिंह चुण्डावत ने अपनी होशियारी से अपने 10-20 राजपूतों को कीरों के लिबास में भैंसों के साथ करके शाही लश्कर में भेज दिया और उन भैंसों में खरबूजों के बदले आतिशबाजी भर दी।

जब ये लोग अपनी भैंसों को लेकर शाही लश्कर में महाबत खां की ड्योढि तक पहुंचे, तो रावत मेघसिंह ने 10-20 आदमियों को भैंसों व बैलों के सींगों से फलीते बंधवाकर तीन तरफ से चलाया। महाबत खां की ड्योढि पर उन राजपूतों ने भैंसो की आतिशबाजी में आग डाली। जंगल में बहुत सी रोशनी दिखाई देने से मुगलों को लगा कि तीन तरफ से बड़ा भारी लश्कर आ रहा है।

मुगलों के डेरों में अफरा-तफरी का माहौल हो गया। जिसका जिधर मुंह उठा भाग निकला। इतने में रावत मेघसिंह चुण्डावत ने अपने 500 वीरों के साथ मुगल फौज पर हमला कर दिया। महाबत खां अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागने लगा। इतने में महाराणा अमरसिंह भी अपनी कुल फौज के साथ मुगलों से भिड़ गए।

भागते हुए मुगलों का पीछा किया गया। कई मुगल मारे गए व महाराणा के आदेश से मुगल फौज का खज़ाना लूट लिया गया। लूट का कार्य राणा पूंजा के बेटे रामा जी के नेतृत्व में भीलों द्वारा किया गया। मुगलों ने इस लड़ाई में करारी शिकस्त खाई और महाबत खां ने भागकर अपनी जान बचाने में गनीमत समझी।

महाबत खां

जो 6 मुगल थाने महाबत खां ने बिठाए थे, उन सभी पर मेवाड़ी बहादुरों ने एक ही रात में आक्रमण किया और हर एक मुगल थाने को तहस-नहस करके जला दिया। वे सब थाने एक ही रात में उखाड़ फेंके गए।

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “मेवाड़ में जगह-जगह महाबत खां ने जो सफलता प्राप्त की थी, वो एक ही रात की आतिशबाजी में स्वाहा हो गई। यह सैन्य अभियान मुगलों की अव्यवस्थित भगदड़ में समाप्त हो गया, जो अपने शत्रुओं की गुरिल्ला चतुराइयों का सामना न कर सके।”

जहांगीर को इस घटना का पता चला तो वो बहुत नाराज हुआ और उसने महाबत खां को इस अभियान से हटाकर आगरा बुला लिया। अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “राणा अमर से लड़ाई की जैसी उम्मीद थी, वैसी लड़ाई ना होने से महाबत खां को मैंने आगरा बुला लिया”

आगरा लौटने से पहले महाबत खां मेवाड़ के मोही गांव में पहुंचा, वहां उसने किसी से पूछा कि राणा अमरसिंह का परिवार कहाँ रहता है, तो किसी ने झुठी बात कह दी कि महाराणा अमरसिंह के बाल-बच्चे जोधपुर के महाराजा सूरसिंह राठौड़ के मुल्क के सोजत परगने में रहते हैं।

महाबत खां ने राजा सूरसिंह से सोजत का परगना जब्त कर करमसेन राठौड़ को देकर कहा कि राणा और उसका परिवार उस तरफ आवे, तो हमको फौरन खबर कर दो। इस तरह सबको होशियार करके महाबत खां आगरा लौट गया। सोजत पर करमसेन राठौड़ का कब्ज़ा हो गया।

मुगल लेखक अक्सर उन घटनाओं का विस्तार से वर्णन नहीं करते थे, जिनमें वे परास्त होते। जहांगीर ने भी बिना पूरी घटना का वर्णन किए अपनी बात समाप्त कर दी। लेकिन फिर भी यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि महाबत खां ने बड़ी करारी शिकस्त खाई और हज़ारों मुगल इस लड़ाई में बिना कुछ खास लड़ाई लड़े मर गए।

इस बात का एक प्रमाण ये भी है कि जब पराजित शाही फ़ौज आगरा पहुंची, तो जहांगीर ने महाबत खां का कोई सम्मान नहीं किया। यह सैन्य अभियान भेजते समय जहांगीर ने बड़े गर्व से जिन सिपहसालारों के नाम लिखकर हर एक का सम्मान किया था, उस अभियान के लौटने के बाद किसी सिपहसालार का सम्मान तो दूर की बात, नाम तक नहीं लिया गया।

जहांगीर ने केवल एक सिपहसालार का सम्मान किया और वो किशनगढ़ के राजा किशनसिंह राठौड़ थे, जिनकी वजह से महाराणा अमरसिंह को भारी कीमत चुकानी पड़ी। जहांगीर ने राजा किशनसिंह का सम्मान किया और उनके मनसब में वृद्धि कर दी।

जहांगीर

जहांगीर ने नारायणदास कछवाहा को कुछ समय के लिए मेवाड़ अभियान से छुट्टी दी थी, परन्तु महाबत खां की पराजय के बाद उनको पुनः मांडल के थाने पर तैनात कर दिया गया। ये 1583 ई. में महाराणा प्रताप के आक्रमण में मुगलों की तरफ से काम आने वाले राव खंगार कछवाहा के पुत्र थे।

मांडल के थाने पर राजा मानसिंह के काका जगन्नाथ कछवाहा पहले से ही तैनात थे। इस प्रकार जहाँगीर ने मांडल की सुरक्षा बढ़ा दी और वह मेवाड़ पर नए सेनापति को फ़ौज देकर आक्रमण करने का विचार करने लगा। इस बार उसे ऐसा सेनापति चाहिए था, जो मेवाड़ पर अधिक से अधिक सख़्ती से कार्रवाई कर सके।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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