1605 ई. में मुगल बादशाह जहांगीर ने शहज़ादे परवेज़ के नेतृत्व में लगभग 50 हज़ार की फ़ौज मेवाड़ के विरुद्ध भेजी। परवेज़ ने मांडल के मेवाड़ी थाने पर आक्रमण करके इस इलाके को जीत लिया। यहां देवगढ़ के रावत दूदा के पुत्र अचलदास चुंडावत बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद परवेज़ की फ़ौज चित्तौड़गढ़ दुर्ग की तरफ़ रवाना हुई।
परवेज़ ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग के मुगल किलेदार के स्थान पर मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह व रानी धीर बाई भटियाणी के पुत्र सगरसिंह को वहां का किलेदार नियुक्त किया। सगरसिंह जगमाल का छोटा भाई था और महाराणा अमरसिंह का काका था। सगरसिंह की मेवाड़ में बहुत निंदा हुई। इसका विस्तृत वर्णन समकालीन सदी के ग्रंथ राणा रासो में लिखा है।
राणा रासो में लिखा है कि “बादशाह ने सगर को राणा बनाकर चित्तौड़ सौंप दिया। चित्तौड़ उसके अधीन करना ऐसा लगा मानो सिद्धपीठ आश्रम को सूना देखकर कोई सामान्य जन वहां आकर सो गया हो। सभी ने यही कहा कि ये तो ऐसा ही हुआ जैसे कोई मूर्ख अपनी अंगूठी से रत्न को निकालकर उसकी जगह कांच लगवाले।”
राणा रासो में आगे वर्णित है कि “सगर को उसी प्रकार राणा बनाया गया, जैसे फूहड़ स्त्री मूल्यवान कर्ण आभूषण को छोड़कर उसकी जगह अपने कान में तिनके की सींको का उपयोग करती है। जैसे वणिक जर खरीद गुलामों द्वारा अपनी पूंजी में वृद्धि करता है, उसी प्रकार बादशाह ने मेवाड़ के लोभ में सगर को राणा बनाया। चित्तौड़ की गद्दी पर सगर के बैठने से सारा संसार कांप गया। मेवाड़ के साथ ही हिन्दू धर्म नष्ट हो जाने के भय से सब भयभीत हो गए।”
राणा रासो में आगे लिखा है कि “आजानबाहु महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध क्रुद्ध होकर सगर के विद्रोह करने पर उसे चतुर एवं कवि लोग व सुर, असुर, चंद्र, सूर्य सब धिक्कारने लगे। घर-घर में सब स्त्रियां भी धिक्कारने लगीं। उसी प्रकार नर एवं नाग सब उसकी निंदा करते हैं। उस सगर का कुयश चारों दिशाओं में फैल गया। यहां तक कि मुगल सेना में जो हिन्दू थे, वे भी सगर की निंदा कर रहे थे।”
जहाँगीर के निर्देशानुसार परवेज़ ने सगरसिंह को मालवे का थोड़ा सा टुकड़ा, चित्तौड़, फूलिया, बेगूं, सादड़ी, बागोर, खैराड़, आंतरी, कपासन आदि परगने दे दिए। ऐसा करने के पीछे जहाँगीर का मकसद था कि मेवाड़ के सामंत महाराणा अमरसिंह का साथ छोड़कर सगर के सामंत बन जावें। लेकिन मेवाड़ के सामंतों और प्रजा ने सगर का साथ नहीं दिया, कुछ को छोड़कर सभी ने महाराणा अमरसिंह को ही अपना महाराणा स्वीकार किया।
इस वक़्त बदनोर, हुरड़ा, जहांजपुर, मांडलगढ़, मांडल आदि इलाकों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था। महाराणा अमरसिंह के रुतबे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस वक़्त उनके पास मेवाड़ का पहाड़ी इलाका व उदयपुर के अलावा कुछ न था, फिर भी उन्होंने मेवाड़ की प्रजा और सामंतों को अपने पक्ष में बनाए रखा। कई मौके आए जब सामंतों की जागीरें बादशाही खालिसे में शुमार हो जाने के बाद भी सामंत महाराणा के साथ खड़े रहे।
चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे सगर ने चित्तौड़ में नए उमराव बनाना शुरु किया। महाराज शक्तिसिंह के पौत्र व अचलदास शक्तावत के पुत्र नारायणदास शक्तावत को 84 गांवों सहित बेगूं और 84 गांवों सहित रत्नगढ़ की जागीरें दे दीं। सगर ने सुरताण भाटी को भीवड़ा की जागीर दी।
इस प्रकार सगर ने एक तरह से मेवाड़ के भीतर ही मेवाड़ के शत्रुओं को खड़ा करना शुरू कर दिया। जहांगीर की तरफ से सगर को ये निर्देश दिया गया कि जो इलाका महाराणा अमरसिंह का है, धीरे-धीरे उस पर भी अधिकार करो। लेकिन सगर से ऐसा ना हो सका।
जगमाल व सागर का छोटा भाई अगरसिंह सिसोदिया भी जहांगीर का मनसबदार बन गया। अगरसिंह रानी धीरबाई भटियानी का तीसरा बेटा था। सगरसिंह ने अपने बेटे मानसिंह सिसोदिया को भी जहाँगीर के पास भेज दिया, जहाँ जहाँगीर ने उसे दो हज़ार जात और 600 सवार का मनसब दे दिया।
जहांगीर के दरबार में ब्रिटिश महारानी का एक राजदूत था, जिसकी पुस्तक का हवाला देते हुए कर्नल जेम्स टॉड ने उस समयकाल में चित्तौड़ की दशा का सटीक वर्णन किया है। उसने लिखा है कि तत्कालीन समय में चित्तौड़गढ़ में लगभग 100 मंदिर और एक लाख पत्थर से बने मकानों के खंडहर थे। बस्ती बहुत कम थी, लेकिन जंगली जानवर और पक्षी बहुत अधिक थे।
कर्नल जेम्स टॉड ने सगर के चित्तौड़ की गद्दी पर बैठने के बारे में लिखा है कि “अपने पूर्वजों के खंडित गौरव और इस निर्जनता के बीच सगर ने 7 वर्षों की जाली स्वामिभक्ति स्वयं अपने को समर्पित कराई। परन्तु यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है कि चित्तौड़ का ये दुष्यवृत्ति पुत्र भी उन घटनाओं के स्मरण करने से उठने वाले भावों को नहीं रोक सका।”
जेम्स टॉड आगे लिखता है कि “सगर यद्यपि अपने भतीजे महाराणा अमरसिंह को चित्तौड़ से अलग रखने के लिए चट्टान सा दृढ़ हो गया, परन्तु जिन वीरों ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए अपना जीवन दे दिया था, उनकी ड्योढ़ियों से उठने वाली निःशब्द निंदा को सहने में वह असमर्थ रहा।”
जेम्स टॉड आगे लिखता है कि “राजाओं के समूह को पराजित करने की स्मृति में खड़ा किया गया विजय स्तम्भ सगर की अपकीर्ति का स्मारक हो गया। वह किले की विस्तृत भूमि में से एक अंगुली बराबर जमीन पर से भी बिना ऐसे अवशेष को पार किये नहीं निकल सकता था, जो उसके पूर्वजों के महान कार्यों और स्वयं सगर की अयोग्यता से उसे अवगत कराता रहता था।”
28 दिसम्बर, 1605 ई. को आगरा के किले में एक घटना घटी, जिसके बारे में जहांगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहाँगीरी में वर्णन किया है। जहांगीर लिखता है कि “आमेर के कुछ कछवाहों ने मेरे खिलाफ बगावत कर दी। इनके नाम अभयराम, विजयराम, श्यामराम थे। ये राजा भगवानदास के पोते व अखैराज के पुत्र थे। ये अपने परिवार समेत आगरा में रहते थे।”
जहांगीर आगे लिखता है कि “अभयराम की एक बात मुझे पता चली कि वो राणा अमर का ताबेदार बनने मेवाड़ जाना चाहता है। जब मेरे सिपहसालारों ने इनसे कहा कि अपने हथियार उतारो, तो इन्होंने इंकार कर दिया और लड़ने के लिए तैयार हो गए। मैंने अपने महल के चौक में अभयराम समेत उन तीनों भाईयों का कत्ल करवा दिया। अभयराम के 2 और साथी भी लड़ने आए, जो कत्ल हुए”
इस घटना के समय जहांगीर के कई हिन्दू सिपहसालार भी वहां उपस्थित थे, परन्तु किसी का साहस न हुआ इस हत्याकांड को रोकने का। इस घटना से मालूम होता है कि मुगल अधीनस्थ हिंदू, चाहे वे बड़े पद पर व मनसबदार ही क्यों न हो, बादशाह के आदेशों के सामने सभी नतमस्तक थे। इस घटना के बाद भी कोई प्रतिशोध नहीं लिया गया और अगले दिन सभी इस तरह भूल गए जैसे कुछ हुआ ही न हो।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)