परवेज़ व महाराणा अमरसिंह की सेनाओं के बीच हुई लड़ाइयां :- 1605 ई. में मुगल बादशाह जहांगीर ने परवेज़ को शाही सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। परवेज़ ने मांडल जीतकर चित्तौड़गढ़ का किला सगरसिंह सिसोदिया को सौंप दिया। फिर परवेज़ ने शाही फौज को मेवाड़ के अलग-अलग जगहों पर भेजना शुरु किया। महाराणा अमरसिंह ने भी जगह-जगह मुगलों से मुकाबला किया।
महाराणा ने देसूरी, बदनोर, मांडल, मांडलगढ़, चित्तौड़ की तलहटी, बस्सी के पहाड़ों पर तैनात मुगलों पर हमले किये। इतनी भारी तादाद में आए मुगलों से लड़ना आसान काम न था। मांडलगढ़ के किनारे हुई लड़ाई में बेगूं के रावत मेघसिंह के भाई अचलदास चुंडावत वीरगति को प्राप्त हुए।
राजपूतों और मुगलों के बीच बस्सी के पहाड़ों में लड़ाई हुई, जहां देवगढ़ के रावत दूदा के भाई जयमल चुंडावत कई मुगलों को मारकर वीरगति को प्राप्त हुए। ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि “उन दिनों कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता था कि मेवाड़ी राजपूतों ने शाही मुलाजिमों पर हमला न किया हो।”
डूंगरपुर महारावल का देहांत :- 1606 ई. में मेवाड़ का साथ देने वाले डूंगरपुर रावल साहसमल का देहांत हो गया। रावल साहसमल ने 2 दशक तक मेवाड़ का साथ दिया। बांसवाड़ा के उत्तराधिकार संघर्ष में भी उन्होंने महाराणा प्रताप के निर्देशों के अनुसार कार्य किया। 1606 ई. में रावल करण सिंह डूंगरपुर की राजगद्दी पर बिराजे।
सगरसिंह को भेंट :- इसी वर्ष 12 मार्च को जहांगीर ने जगमाल के छोटे भाई सगरसिंह सिसोदिया को चित्तौड़गढ़ से बुलवाकर नौ रोज के जलसे के दौरान 12 हज़ार रुपए दिए। कुछ दिन बाद जहांगीर ने सगर के लिए 3 हज़ार रुपए और भिजवाए। इस तरह सगरसिंह को समय-समय पर रुपए मिलते गए और उसने अजमेर में एक लाख रुपया खर्च करके एक भव्य मंदिर बनवाया।
तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “मेरे बेटे खुसरो ने बगावत कर दी, जिसके चलते मैंने अपने बेटे परवेज़ को हुक्म दिया कि वो राणा के पीछे कुछ सर्दार छोड़कर आसफ खां और इस मुहिम से जुड़े सारे सिपहसालारों समेत आगरा आ जाए। जब परवेज़ आगरा के लिए निकलने वाला था, तभी मैंने उसके नाम एक और पैगाम लिखा कि खुसरो भाग गया है, फिर भी तुम एक बार मुझसे आकर मिल लेना”
परवेज़ जहांगीर से मिला। खुसरो के विद्रोह के कारण इस समय जहांगीर ने परवेज़ को एक संकेत रूप में कहा था कि तुम ही अगले उत्तराधिकारी बनोगे। जहांगीर ने परवेज़ को पुनः फ़ौज सहित मेवाड़ की तरफ भेज दिया।
देबारी का युद्ध :- मार्च, 1606 ई. में शहजादा परवेज़ मेवाड़ी फौज से जगह-जगह होने वाली मुठभेड़ से तंग आकर चारों तरफ की फौजें मिलाकर ऊँठाळा और देबारी के बीच में आया। देबारी को पहले देवड़ाबारी के नाम से भी जाना जाता था।
महाराणा अमरसिंह ने भी अपनी फ़ौजी टुकड़ियां इकट्ठी कर दीं और मुगलों से सामना करने के लिए रवाना हुए। महाराणा अमरसिंह और भील सेना के सर्वप्रमुख राणा पूंजा के बेटे रामा जी ने शाही फौज पर रात के वक्त जोरदार हमला किया। इस युद्ध में दोनों पक्षों के मिलाकर लगभग 50 हज़ार सैनिकों ने भाग लिया।

ठाकुर मुकुन्ददास मेड़तिया समेत कई वीरों ने देबारी के इस युद्ध में बड़ी बहादुरी दिखाई। शाही फौज के कई सैनिक मारे गए और भीलों ने रसद वगैरह का सामान लूटकर मुगलों को भारी नुकसान पहुंचाया। 17 वर्षीय परवेज़, जिसे पहाड़ी लड़ाइयों का कोई अनुभव नहीं था, चारों खाने चित्त हुआ।
किसी तरह जान बचाकर शहज़ादा परवेज़ भागकर मांडल की ओर चला गया। इस तरह महाराणा अमरसिंह ने देबारी के इस युद्ध में शाही फौज को करारी शिकस्त दी। “जंगल से निकला राणा अमर, देबारी पर ठहर गया। गिरी अरावली की चोटी पर, केसरिया झंडा फहर गया।।”
1607 ई. – बाघसिंह प्रकरण :- खुसरो के विद्रोह के कारण जहांगीर ने परवेज़ को जल्द से जल्द मेवाड़ का मसला निपटाकर आगरा आने का हुक्म दिया, जिससे परवेज़ ने युद्ध ना करके सन्धि के जरिये मसला सुलझाना चाहा। परवेज के संरक्षक आसफ खां ने महाराणा अमरसिंह के पास सन्धि का प्रस्ताव भिजवाया।
महाराणा अमरसिंह ने अपने सामंतों से विचार विमर्श किया, तो सलाह मिली कि इस समय परवेज़ जल्दबाज़ी में है, इसलिए आप और कुँवर कर्ण मुगल दरबार में ना जायें परंतु आप अपने किसी छोटे पुत्र को वहाँ भेज दीजिए, इसमें कोई हानि नहीं और ना ही मान सम्मान के साथ कोई समझौता होगा।
महाराणा अमरसिंह ने एक पत्र लिखकर परवेज़ को भेजा कि हम हमारे छोटे पुत्र कुँवर बाघसिंह को तुम्हारे पास भेजने को तैयार हैं बशर्ते बादशाही फौजें दोबारा मेवाड़ में पैर ना रखें। परवेज़ ने महाराणा को पत्र के जवाब में लिखा कि अगर महाराणा ख़ुद या अपने बड़े बेटे को भेजे, तभी सुलह हो सकती है।

महाराणा अमरसिंह ने इसका कोई जवाब नहीं दिया, तो कुछ समय बाद परवेज़ ने फिर ख़त लिखकर महाराणा की बात मान ली। उदयपुर से 100 मील उत्तर-पूर्व में मांडलगढ़ में दोनों पक्षों के बीच सन्धि की वार्ता हुई और कुँवर बाघसिंह को भेजना तय रहा।
जहाँगीर लिखता है “राणा अमर ने आसफ खां की मार्फत कहलाया कि अगर शहज़ादा माने तो मैं अपने बेटे बाघा को उसके पास भिजवा दूं, पर शहज़ादे ने कहा कि अगर राणा ख़ुद या अपने बड़े बेटे को भेजे तो सुलह हो सकती है। इतने में खुसरो की बगावत की खबर परवेज़ तक पहुंची जिससे उसने जल्दबाज़ी में काम निपटाना चाहा। इस खातिर राणा के बेटे बाघा से मांडलगढ़ में मिलना तय हुआ। परवेज़ और आसफ खां कुँवर बाघा को लेकर आगरा आ गए”
जहांगीर ने संधि की बात को तोड़-मरोड़कर ऐसे पेश किया जैसे सन्धि की पहल महाराणा अमरसिंह ने की हो, लेकिन ये भूला नहीं जा सकता कि महाराणा प्रताप के समय भी सन्धि की पहल मुगल पक्ष की ओर से ही हुई थी। विचार करना चाहिए कि जिस परवेज़ को महाराणा ने देबारी से मांडल तक भागने को विवश कर दिया, उसके पास वे स्वयं संधि का प्रस्ताव लेकर कैसे जा सकते थे।
जगन्नाथ कछवाहा, अब्दुर्रज्ज़ाक मअमूरी वगैरह कई सिपहसालार अब भी मेवाड़ में तैनात थे। परवेज़ आगरा पहुंचा, तो जहांगीर ने उसको 25 हज़ार रुपए का कीमती लाल दिया। फिर जहांगीर ने अपने बेटे परवेज़ का निकाह अपने भाई मुराद की बेटी से करवा दिया।
जहाँगीर ने 6 महीने तक कुँवर बाघसिंह को 3 हज़ार का मनसब वगैरह देकर अपने यहीं रखा और फिर मेवाड़ भेज दिया, क्योंकि जहाँगीर को लगा कि मेवाड़ का राणा अब भी स्वतंत्र ही है और ये सन्धि केवल नाम मात्र की थी। जहाँगीर ने संधि की शर्तों के विरुद्ध जाकर परवेज़ को दोबारा शाही फौज के साथ मेवाड़ भेजने पर विचार किया।
महाराणा अमरसिंह द्वारा महाराणा प्रताप के नाम से शिवालय बनवाना :- पितृभक्त महाराणा अमरसिंह ने मेवाड़ के हरिद्वार कहे जाने वाले मातृकुंडिया में प्रतापेश्वर महादेव के नाम से एक शिवालय बनवाया। बाद में महाराणा राजसिंह ने इस शिवालय और उसके नज़दीक कुछ और कार्य भी करवाए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)