मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 13)

सलीम का मुगल तख़्त पर बैठना :- 24 अक्टूबर, 1605 ई. को अकबर की मृत्यु के बाद उसका बड़ा बेटा नूरुद्दीन मुहम्मद सलीम मुगल बादशाह के तख़्त पर बैठा और जहांगीर नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अकबर की तरह जहांगीर के लिए भी विशाल मुगल साम्राज्य में मेवाड़ का स्वतंत्र अस्तित्व असहनीय था। इसके अलावा वो ऐसा काम करना चाहता था, जो अकबर अपने 50 वर्षों के शासनकाल में नहीं कर पाया था। यह कार्य था मेवाड़ विजय का। जहांगीर ने अपने साम्राज्य की सबसे बड़ी चुनौती मेवाड़ को माना और उसे जीतने का निश्चय किया।

मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद में कविराजा श्यामलदास लिखते हैं कि “तख़्त पर बैठते ही अपने बाप की उस उम्मीद को, जिसे वो दिल में लेकर मरा था, याद किया और कहा कि मेवाड़ के राणा की मुहिम मेरे बाप ने मेरे नाम लिख दी थी, इसलिए मुझे जरूर है कि पहले इस काम को करूँ और ऐसा दस्तूर भी है कि जब कोई राजा या बादशाह तख्तनशीन होता है, तो वो अपना रौब जमाने के लिए किसी मुश्किल काम को हाथ में लेता है।”

अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “राणा अमरसिंह और उसके बाप-दादों ने अपने घमंड और पहाड़ी मकामों के भरोसे कभी किसी बादशाह की ताबेदारी नहीं की। यह मुआमिला कहीं मेरे समय में बाकी न रह जावे”

ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “अनेक राजा मुगल बादशाह के चरणों में अपना मस्तक नवाते हैं। जितने भी श्रेष्ठ गज समान भारतवासी हिन्दू वीर हैं, सबके सब वह नट जैसे नचाता है, वैसे नाचते हैं। बचा है तो केवल एक अनम्र वीर महाराणा अमर ही, जिस प्रकार प्रलय समय में प्रयाग स्थित वह कल्प वृक्ष।”

महाराणा अमरसिंह जी

जहांगीर ने अपनी तख्तनशीनी के तुरन्त बाद सबसे पहला अभियान मेवाड़ फतह करने के लिए ही किया। जहांगीर ने अपने बेटे शहजादे परवेज को शाही फौज के साथ मेवाड़ भेजने का फैसला किया। यह सैन्य अभियान जहांगीर ने अपनी गद्दीनशीनी के एक माह के भीतर ही भेजा और ये उसके शासनकाल का पहला सैन्य अभियान था। इससे पता चलता है कि उस समय मेवाड़ की क्या अहमियत थी।

नवम्बर, 1605 ई. में भेजे गए इस सैन्य अभियान के बारे में जहांगीर लिखता है कि “मेरे बाप की मेवाड़ फतह करने की आरज़ू अधूरी रह गई थी। मुझे ख़याल आया कि क्यों न मेरे बेटे सुल्तान परवेज़ को मैं राणा के खिलाफ जंग करने भेज दूँ। राणा के काम अच्छे नहीं थे। राणा अमर हिन्दुस्तान का सबसे शैतानी ख़याल वाला काफिर था।”

जहांगीर आगे लिखता है कि “मेरे बाप ने भी राणा के खिलाफ कई फौजें भेजी, पर कामयाबी नहीं मिली। मेरी तख्तनशीनी के जुलूस के मौके पर कई सिपहसालार, जमींदार और राजे-रजवाड़ों ने शिरकत की थी। मैंने उन सबको मेवाड़ फतह करने की इस बड़ी मुहिम पर भेज दिया। मैंने अपने बेटे शहजादे परवेज़ की कमान में 20 हज़ार जंगी सवार मेवाड़ भेज दिए”

शहजादा परवेज़ :- ये जहांगीर व उसकी पत्नी साहिब जमाल का बेटा था। इसने मुगल फौज का नेतृत्व किया। इस समय इसकी उम्र 16 वर्ष थी। जहांगीर लिखता है कि “परवेज़ हमको बहुत मानता है और हमारी सेवा में बहुत सतर्क रहता है। पहली सेवा जो मैंने उसको सौंपी, वो उस काफ़िर राणा के ख़िलाफ़ थी। हमारे जो सरदार परवेज़ की सेवा में रखे गए, वे सब उसके सलूक से ख़ुश हैं।”

जहांगीर ने परवेज़ को एक खिलअत, एक रत्नजड़ित तलवार, एक रत्नजड़ित खंजर, एक खास घोड़ा जड़ाऊ जीन सहित, एक मस्त हाथी, डंका, झंडा, 72 हज़ार रुपए का कीमती हीरों का हार, 3 हज़ार तोपें, 2 हज़ार घुड़सवार, ईराकी और तुर्कमानी घोड़े व कई प्रसिद्ध हाथी देकर मेवाड़ भेजा।

शहज़ादा परवेज़

जहांगीर लिखता है कि “राणा के मामले में सबसे बड़ा काम यही था कि अगर वह बागी हमारी सेवा में आ जाए, तो उसे उसकी हैसियत के हिसाब से मनसब देकर उसको इज्जत दूँ।”

जहांगीर आगे लिखता है कि “मैंने परवेज़ को विदा करते वक्त उसको कहा कि अगर राणा खुद तुम्हारे पास आवे या अपने बड़े बेटे करण को भेजकर हमारा ताबेदार बनना चाहे, तो तुम उसकी बात मान लेना और उसके मुल्क को कोई नुकसान मत पहुंचाना”

जहांगीर के बयान पर एक फ़ारसी तवारीख में लिखा गया है कि “अगर राणा अमर हमारी बात न मानकर लड़ने के लिए मैदान में आएगा, तो उसके ख़िलाफ़ जितनी फ़ौज की जरूरत पड़ेगी, उतनी फ़ौज भेजी जाएगी। किसी मुल्क को लेने का मतलब सिर्फ वहां के लोगों और वहां के राजा की मातहती है, इसलिए हमने सेना को लड़ाई का हुक्म नहीं दिया। हमने ख़ुदा के बंदों का खून पागलपन और नासमझी से नहीं बहने दिया।”

इस तवारीख में आगे लिखा है कि “हमने परवेज़ को राणा पर नियत करके उसका मुल्क परवेज़ को दे दिया। आगरा की जागीरदारी भी परवेज़ के हाथ में ही रहने दी, ताकि वह पूरी तरह बेफ़िक्र रहे। अगर राणा अमर अपनी ख़राब नियत से हमारी सेवा से सिर हटा लेगा, तो इस जर्रार फ़ौज के साथ उसके सिर पर पहुंच कर उसको जड़ समेत खोद दिया जाएगा।”

आसफ खां वज़ीर :- इसे परवेज़ का संरक्षक घोषित किया गया, जो जरुरत पड़ने पर परवेज को सलाह-मशवरा भी दिया करे। आसफ़ खां इससे पहले हल्दीघाटी युद्ध में बख्शी बना था। उसे मेवाड़ के विरुद्ध सैन्य अभियानों का लंबा अनुभव प्राप्त था। निश्चित ही जहांगीर ने उसको परवेज़ के साथ भेजकर बुद्धिमानी का परिचय दिया।

जहांगीर ने आसफ़ खां का पद बढ़ाकर इसे 2500 सवार के मनसब के स्थान पर 5000 सवार का मनसब दिया। जहांगीर ने आसफ खां का सम्मान करते हुए उसे जड़ाऊ कमरबंद, एक रत्नजड़ित तलवार, एक घोड़ा और एक मस्त हाथी दिया।

आसफ़ खां

जहांगीर के बयान पर तवारीख में लिखा है कि “मेरे बाप के वक़्त आसफ़ खां से बड़ा कोई सिपहसालार दरबार में नहीं था। मैं ख़ुद आसफ़ खां को बाप की तरह मान देता हूँ। आसफ़ खां जाफ़र बेग इसका नाम है और ये कजदीन का रहने वाला है। मेरे बाप ने उसको आसफ़ खां की पदवी और मीर बख्शी का पद दिया था। बाद में वह वज़ीर बना। मैंने इसको वज़ीर से अमीर बना दिया, क्योंकि ये दिमाग़ और याद्दाश्त के मामले में बहुत तेज़ था।”

जहाँगीर ने सभी सिपहसालारों को आदेश दिया कि वे सभी आसफ खां के हुक्म को माने, चाहे वे सिपहसालार आसफ खां के पद से बड़े ही क्यों न हो, चाहे वे किसी भी मज़हब के हों, बग़ैर आसफ़ खां की राय लिए कोई भी सरदार कहीं न जाए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

1 Comment

  1. जामा कोलर
    July 16, 2021 / 2:14 pm

    हे पुज्य भूमि भारत मेरा भी सोभाग्य है जो तेरा ही पावन सरण मिला
    ओर मेरा प्रम सोभाग्य हैं हर रोज महाराणा जी के सरण रज मुझे मिले🙏🙏

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