1602 ई. में महाराणा अमरसिंह द्वारा हाथीराम चन्द्रावत की जागीर जब्त करना :- पीपल्या हाथीराम चन्द्रावत की जागीर थी। महाराणा अमरसिंह का एक ऊँट पाटन से पीपल्या होता हुआ उदयपुर जा रहा था। इस ऊँट पर महाराणा अमरसिंह के वस्त्र लदे थे। हाथीराम ने ऊँट पकड़ लिया, जिससे नाराज होकर महाराणा अमरसिंह ने कल्याण सिंह शक्तावत को फ़ौज सहित भेजा, जो कि महाराज शक्तिसिंह के पौत्र थे।
कल्याण सिंह शक्तावत फ़ौज सहित पीपल्या पहुंचे, तो हाथीराम मेवाड़ी सेना को देखकर लड़ने की स्थिति में न रहे। कल्याण सिंह शक्तावत हाथीराम को कैद कर महाराणा के सामने हाजिर हुए। महाराणा अमरसिंह ने हाथीराम से पीपल्या की जागीर छीनकर कल्याण सिंह शक्तावत को दे दी।
कल्याण सिंह शक्तावत महाराज शक्तिसिंह के 13वें पुत्र राजसिंह शक्तावत के दूसरे पुत्र थे। पीपल्या ठिकाना मिलने के बाद कल्याण सिंह को महाराणा अमरसिंह ने रावत की उपाधि दी। इसके बाद इस ठिकाने पर पीढ़ियों तक शक्तावतों का राज रहा और बाद में यह ठिकाना मेवाड़ के द्वितीय श्रेणी के 32 ठिकानों की सूची में शुमार हो गया।
पीपल्या ठिकाना मिलने से पहले रावत कल्याण सिंह शक्तावत सतखंधे के स्वामी थे। हाथीराम चंद्रावत ने ऐसा सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी एक गलती उन पर इतनी भारी पड़ जाएगी।
यहां महाराणा अमरसिंह की प्रशंसा करनी होगी, क्योंकि उन्होंने जैसा तय किया था, वैसा कर दिखाया। यह पहले ही घोषित किया जा चुका था कि किसी सामंत का अधिकार उसके ठिकाने पर हमेशा रहे ये आवश्यक नहीं, गलती करने पर ठिकाना छीना भी जा सकता है और प्रशंसनीय कार्य करने पर ठिकाना दिया भी जा सकता है।
अबुल फज़ल का वध :- 12 अगस्त, 1602 ई. को अबुल फजल दक्षिण से आगरा लौट रहा था। सलीम नहीं चाहता था कि अबुल फजल अकबर तक पहुंच सके। सलीम ने ग्वालियर के समीप ओरछा के राजा वीर सिंह बुन्देला की मदद से अबुल फजल को मरवा दिया।
अबुल फ़ज़ल नागौर का रहने वाला था। ये अकबरनामा व आईने अकबरी का लेखक था। ये अकबर के सबसे विश्वासपात्र सेवकों में से एक था। तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “वीरसिंह बुन्देला ने मुझे तोहफे में शैख अबुल फजल का सर दिया”
सलीम ने इलाहाबाद में ख़ुद को मुगल बादशाह घोषित कर दिया और 30 हज़ार की फ़ौज समेत आगरा की तरफ़ रवाना हुआ, पर अकबर ने उसको धमकाकर रास्ते से ही लौटा दिया। फिर बेगम सलीमा सुल्तान ने बीच में पड़कर बाप-बेटे के बीच सुलह करवाई। सलीम ने अकबर के पैरों में अपना सिर रखकर माफी मांगी और अकबर ने सलीम के सिर पर पगड़ी रख दी।
अकबर का महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध तीसरा सैन्य अभियान :- अकबर के लिए अपने विशाल साम्राज्य में लंबे समय से चली आ रही मेवाड़ की स्वाधीनता असहनीय होती जा रही थी। महाराणा अमरसिंह की अकड़ उसको कांटे की तरह चुभ रही थी। 1600 ई. में सलीम की मेवाड़ पर चढ़ाई भी निष्फल रही थी।
महाराणा अमरसिंह लगातार मेवाड़ और मेवाड़ के निकटवर्ती क्षेत्रों में तैनात मुगल थानों पर आक्रमण करते जा रहे थे। अक्टूबर, 1603 ई. में अकबर ने सलीम को दोबारा मेवाड़ अभियान पर जाने हेतु अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया और उसको एक विशाल फ़ौज देकर कहा कि मेवाड़ का काम तमाम कर दो।
मेवाड़ अभियान पर जाने के लिए ज्योतिषियों से मुहूर्त निकलवाया गया। विजयादशमी के शुभ दिन सलीम शाही फ़ौज के साथ अजमेर की तरफ रवाना हुआ। सलीम के रवाना होने से पहले अकबर ने उसको बहुत कुछ नसीहतें दीं कि मेवाड़ में कैसे क्या करना है।
सलीम के साथ इस अभियान में मेवाड़ कूच करने वाले राजपूत सिपहसालार :- आमेर के राजा मानसिंह के काका जगन्नाथ कछवाहा, राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह कछवाहा, बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़, राजा रायसिंह के पुत्र कुँवर दलपत सिंह, मारवाड़ के मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र कुँवर दलपत सिंह राठौड़, मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र कुँवर विक्रमाजीत, रामपुरा के राव दुर्गा सिसोदिया, बूंदी के राव भोज हाड़ा व अन्य।
जब अकबर ने 1569 ई. में रणथंभौर पर आक्रमण किया था, तब राव सुर्जन हाड़ा व अकबर के बीच सन्धि हुई, जिसमें एक शर्त ये रखी गई थी कि बूंदी के शासकों को मेवाड़ के विरुद्ध सैन्य अभियानों में न भेजा जावे। परन्तु सलीम के इस अभियान में यह शर्त भी ताक पर रख दी गई और राव भोज हाड़ा को मेवाड़ के विरुद्ध भेजा गया।
सलीम के साथ इस अभियान में मेवाड़ कूच करने वाले मुगल सिपहसालार :- सादिक खां, हाशिम खां, इस्लाम कुली, शेर बेग, अमीर बेग व अन्य। अकबर ने इस भारी भरकम फौज के साथ सलीम को नेतृत्वकर्ता बनाकर बड़ी उम्मीदों के साथ भेजा, परन्तु सलीम ने अकबर की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
सलीम शाही फौज के साथ फतेहपुर सीकरी तक गया और वहीं पड़ाव डाल दिया। यहां सलीम के विचारों ने गति पकड़ी और वह मेवाड़ के पिछले सैन्य अभियानों के बारे में सोचने लगा। वह जानता था कि मेवाड़ पर विजय प्राप्त करने में ना तो राजा मानसिंह कछवाहा जैसे योग्य सेनापति सफल हो सके और ना मुगल बादशाह अकबर। स्वयं सलीम भी 1600 ई. के सैन्य अभियान में महाराणा अमरसिंह से बुरी तरह परास्त हुआ था।
मेवाड़ के राजपूतों और भीलों को पहाड़ों व घाटियों में परास्त करने के लिए जो सैन्य उत्साह, शत्रु पर टूट पड़ने की उत्कंठा, संगठन की शक्ति और युक्ति चातुर्य चाहिए था, वह उस वक़्त सलीम में दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा था। मेवाड़ से दोबारा खाली हाथ लौटने का अपमान वह सहन नहीं करना चाहता था।
सलीम फतेहपुर सीकरी में बहाने बनाने लग गया। उसने अकबर को खत लिखा कि उसे मेवाड़ के खिलाफ जंग के लिए हथियार वगैरह बेहद कम मुहैया करवाए गए हैं। साथ ही ये भी लिखा कि सेना और अन्य सामान वग़ैरह भी काफी नहीं है। अकबर को भलीभांति पता चल गया था कि सलीम मेवाड़ नहीं जाना चाहता है।
अकबर का जवाब आया कि ज्योतिषियों ने कहा है कि इस वक्त लौटना मुनासिब नहीं है। फिर कुछ दिन बाद अकबर ने सलीम की मनोदशा समझकर उसे एक और खत लिखकर इलाहाबाद जाने की आज्ञा दे दी। अकबर का खत पाकर सलीम इलाहाबाद की तरफ चला गया और वहीं मद्यपान और भोगविलास में लिप्त हो गया। लेकिन अकबर ने अभी भी मेवाड़ विजय के सपने देखना बन्द नहीं किया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)