1600 ई. हुए ऊँठाळा के भीषण युद्ध में महाराणा अमरसिंह ने मुगल सेनापति कायम खां को मारकर विजय प्राप्त की। इस पराजय से घबराकर कोशीथल वगैरह मुगल थानों के थानेदार बिना लड़े ही भाग निकले।
महाराणा अमरसिंह ने बुलन्द हौंसलों के साथ राजा मानसिंह और सलीम द्वारा मेवाड़ में तैनात मोही, मदारिया, पुर, मांडल, रामपुर, बागोर, ऊँठाळा समेत 30 मुगल थानों पर हमले कर विजय प्राप्त की। इन उपलब्धियों के कारण राजप्रशस्ति में महाराणा अमरसिंह को ‘चक्रवीर’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
1600 से 1601 ई. के बीच लड़ा गया कालीखोह का युद्ध :- ऊँठाळा के युद्ध में महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्रों कुँवर दलपत शक्तावत व कुँवर भूपत शक्तावत ने बड़ी बहादुरी दिखाई थी। जब इन दोनों भाइयों की बहादुरी के बारे में सलीम ने सुना, तो उसने अपने योग्य सेनापति मीर रूकुन्दी को फौज समेत भेजा व इन दोनों भाइयों को ललकारा।
माण्डलगढ़ के समीप कालीखोह नामक स्थान पर दोनों पक्षों का युद्ध हुआ। इस युद्ध में कुँवर दलपत व कुँवर भूपत दोनों ही भाई बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। मीर रूकुन्दी के विजयी होने की ख़बर सलीम तक पहुंची, तो सलीम बड़ा खुश हुआ।
कांठल का युद्ध :- रावत अचलदास शक्तावत, जो कि महाराज शक्तिसिंह जी के पुत्र व बान्सी के पहले रावत साहब थे, उन्होंने अपने दोनों भाइयों की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए महाराणा अमरसिंह से फौजी मदद मांगी। महाराणा अमरसिंह ने रावत अचलदास को फौज देकर विदा किया।
इस समय मीर रूकुन्दी कांठल के थाने पर फौज समेत तैनात था। रावत अचलदास ने कांठल पर आक्रमण किया और कई मुगलों का संहार किया। मीर रूकुन्दी भाग निकला व रावत अचलदास विजयी होकर लौटे। महाराज शक्तिसिंह के सभी पुत्रों में रावत अचलदास युद्धों में उड़न राजकुमार पृथ्वीराज सिसोदिया की तरह चतुर व बहादुर थे।
1601 ई. में अकबर ने असीरगढ़ किले पर अधिकार किया। ये अकबर की अन्तिम विजय थी। इसी वर्ष बंगाल में अफगानों ने बगावत कर दी, जिसे कुचलने के लिए राजा मानसिंह कच्छवाहा मेवाड़ से बंगाल रवाना हुए।
इसी वर्ष सलीम भी मेवाड़ अभियान से निराश होकर लौट गया। अबुल फजल लिखता है कि “अपने काम को पूरा किये बगैर ही शहजादे सलीम मेवाड़ से रुखसत हुए”
सलीम अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में मेवाड़ अभियान की असफलता के बारे में सफाई देते हुए लिखता है कि “मेरे बाप ने अपनी हुकूमत के पिछले दिनों में दक्खन पर चढ़ाई की। उसी दिन मुझे भी कई भरोसेमंद सिपहसालारों और बड़ी फौज के साथ राणा अमर पर चढ़ाई करने भेजा, पर हम दोनों की चढ़ाइयां बेमतलब रही, जिनका हाल मैं जगह की कमी के चलते यहां नहीं लिख रहा।”
1600 से 1601 ई. के बीच मेनार प्रजा द्वारा दिखाई गई बहादुरी :- उस वक़्त मेनार गांव में मुख्यतः मेनारिया ब्राह्मण सहित कुछ अन्य निवासी थे। सलीम मेवाड़ से जाने से पहले मेवाड़ में कई सैनिक छावनियां तैनात करके गया था। इन्हीं छावनियों में से एक छावनी मेनार में तैनात थी।
महाराणा अमरसिंह ने बुलंद हौंसलों के साथ ऊँठाला दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी। जब मेनारवासियों को महाराणा की इस विजय का समाचार मिला तो गाँव के वीरों की भुजाएं भी फड़क उठीं। सभी गाँव के वीर ओंकारेश्वर चबूतरे पर एकत्र हुए और युद्ध की योजना बनाई।
होली के दिनों में मेनार वासियों ने योजना बनाकर मेनार के मुगल थाने पर हमला कर दिया। मुगल पराजित हुए व मेनार के कई ब्राह्मण वीरगति को प्राप्त हुए। यह दिन चेत्र सुदी द्वितिया का था, इसी उपलक्ष्य में अब तक यहां होली के बाद जमराबीज मनाई जाती है।
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह ने मेनारवासियों के पराक्रम पर प्रसन्न होकर लाल झाजम, रणबांकुरा ढोल, सिर पर कलंगी धारण करने का अधिकार एवं मेहता परिवार की पदवी प्रदान की। इस दौरान मेनार को 52 हज़ार बीघा भूमि दी गई।
आज भी प्रतिवर्ष पारम्परिक रीति रिवाज के अनुसार मेनार गांव के सभी लोग जमरा बीज पर्व पर तलवार से गैर नृत्य करते हैं। पटाखों और बंदूकों से हवाई फायर के बीच तलवारें टकराने की आवाजें देर रात तक आती रहती है। मेनार की गैर समूचे हिंदुस्तान में प्रसिद्ध है।
महाराणा अमरसिंह द्वारा कल्याणमल की पराजय :- ईडर के राय नारायणदास राठौड़ महाराणा प्रताप के ससुर थे। इन्हीं नारायणदास राठौड़ का छोटा बेटा राय कल्याणमल जब ईडर का शासक बना तब से ही मेवाड़ के खिलाफ रहा। राय कल्याणमल ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली व मेवाड़ के इलाकों पर कब्ज़ा करने लगा।
कल्याणमल ने मेवाड़ के ओगणा व पानरवा नामक क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। महाराणा अमरसिंह ने इस बात की सूचना मिलते ही फ़ौरन ओगणा व पानरवा पर चढ़ाई कर विजय प्राप्त की व राय कल्याणमल को मेवाड़ से बाहर खदेड़ दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
मेनारिया ओ को ठाकुर और उमराव 17 की उपाधि दी गई ऐसा भी सुन ने में आता है