1600 ई. की शुरुआत में मुगल बादशाह अकबर के आदेश से शहज़ादे सलीम और राजा मानसिंह कछवाहा के नेतृत्व में मुगल सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई करके जगह-जगह थाने बिठा दिए। राजा मानसिंह ने पुत्र वियोग के कारण इस अभियान में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। सलीम ने फौज सहित उदयपुर के खाली पड़े महलों पर कब्ज़ा कर किया और वहीं डेरे डालकर पड़ा रहा।
वीरवर झाला मानसिंह के पुत्र राजराणा देदा झाला झाडौल की जिम्मेदारी अपने बेटे हरिदास झाला को सौंपकर स्वयं महाराणा अमरसिंह की सेवा में उपस्थित हुए। महाराणा अमरसिंह ने दरबार बुलाया और मंत्रणा की कि मुगलों का सामना किस प्रकार से किया जाए। अधिकतर सामन्तों ने रक्षात्मक प्रणाली अपनाते हुए पहाड़ों में रहकर लड़ाई करने की सलाह दी, लेकिन महाराणा अमरसिंह इस बात से सहमत नहीं हुए।
महाराणा अमरसिंह ने कहा कि “इस समय मुगल सेना का एक बड़ा भाग अकबर के नेतृत्व में दक्षिण की तरफ गया है और मेवाड़ में तैनात सलीम का नेतृत्व इतना मज़बूत मालूम नहीं पड़ता है। हम जानते हैं कि वह किसी भी हालत में मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेश में जाने की हिम्मत नहीं करेगा, इसलिए इस बार हम रक्षात्मक नहीं, आक्रामक रणनीति अपनाकर मुगलों को उनके ही इलाकों में जाकर परास्त करेंगे।”
महाराणा अमरसिंह ने फ़ौज सहित कूच किया और जो मुगल थाना उनके सामने आया, वह लूटकर जला दिया गया। महाराणा अमरसिंह ने मांडल में तैनात मुगल थाने पर आक्रमण किया और इस चौकी को तहस-नहस करते हुए मुगलों को आमेर के समृद्ध क्षेत्र मालपुरे तक खदेड़ दिया।
महाराणा अमरसिंह ने कुछ दिनों तक मालपुरा को जमकर लूटा और जहां-तहां शाही चौकियों को ध्वस्त कर दिया। मालपुरा से महाराणा को अच्छी मात्रा में धन संपदा हाथ लगी। प्रजावत्सल महाराणा अमरसिंह ने मालपुरा की प्रजा को जन-धन की कोई हानि नहीं पहुंचाई, केवल मुगल थानों व विरोधी पक्ष के लोगों को लूटा गया।
अबुल फजल लिखता है कि “अजमेर में नशे से फुर्सत निकालकर शहजादे सलीम ने उदयपुर पर हमला किया। राणा अमर ने पहाड़ियों के दूसरी तरफ से निकलकर जबर्दस्त उत्पात मचाना शुरु कर दिया। राणा ने मालपुरे को लूट लिया और कई इलाकों में फसलों को तहस-नहस कर दिया।”
सलीम ने मालपुरा पर महाराणा अमरसिंह के आक्रमण का समाचार सुना, तो राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह कछवाहा को फ़ौज देकर उस ओर भेजा। माधोसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था।
अबुल फजल लिखता है कि “शहजादे सलीम ने माधोसिंह को फौजी टुकड़ी के साथ राणा अमर को काबू में करने भेजा। राणा पहाड़ियों में चला गया, पर रात के वक्त उसने शाही फौज पर अचानक हमला कर दिया। हमला करने के बाद वह फिर पहाड़ियों में चला गया। शहज़ादे सलीम ने अपना काम सही तरीके से नहीं किया।”
मालपुरा के नज़दीक महाराणा अमरसिंह का मुकाबला रेज़ा कुली, लाला बेग, मुबारिज़ बेग, आलिफ़ खां के नेतृत्व में तैनात मुगल फ़ौज से हो गया। इसी समय महाराणा अमरसिंह को खबर मिली की उनका ध्यान मालपुरे से हटाने के लिए मिर्जा शाहरुख के नेतृत्व में एक फौज मेवाड़ भेज दी गई है।
मालपुरे की लड़ाई लड़ते हुए महाराणा अमरसिंह शाही खेमों में तबाही मचाते हुए मेवाड़ की तरफ लौटे। महाराणा के मेवाड़ पहुंचने पर मिर्ज़ा शाहरुख माण्डल में आमेर के जगन्नाथ कच्छवाहा को तैनात करते हुए खुद बांसवाड़ा की तरफ भाग निकला।
महाराणा अमरसिंह की बागोर व रामपुरा विजय :- सलीम ने बागोर के शाही थाने पर सुल्तान खां गौरी को तैनात किया था। महाराणा अमरसिंह ने बागोर के शाही थाने पर आक्रमण किया और सुल्तान खां गौरी को स्वयं अपने हाथों से कत्ल किया।
महाराणा अमरसिंह ने रामपुर शाही थाने पर अचानक आक्रमण किया। रामपुर शाही थाने का मुख्तार भाग निकला और महाराणा ने रामपुर पर अधिकार किया। इन्हीं छापामार लड़ाईयों के दौरान वीर जयमल राठौड़ के पुत्र माधोदास राठौड़ मुगलों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। नीमड़ी के चन्दन सिंह राठौड़ भी वीरगति को प्राप्त हुए।
मेवाड़ में मुगल सेना जगह-जगह परास्त होती जा रही थी, परन्तु उदयपुर के राजमहलों में सलीम को इसकी कोई परवाह न थी। वह मेवाड़ को नहीं, हिंदुस्तान को हस्तगत करने के ख़्वाब देख रहा था। सलीम की इस उदासीनता का महाराणा अमरसिंह ने भरपूर लाभ उठाया।
1600 ई. में ही महाराणा प्रताप के शुभचिन्तक बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ का देहान्त हो गया। इन्होंने “बेलि किसन रुक्मिणी री” की रचना की थी। इसी वर्ष मेवाड़ के सामंत जवास के चन्द्रभान सिंह चौहान का देहान्त हुआ। जसवन्त सिंह चौहान जवास की गद्दी पर बैठे।
महाराणा अमरसिंह ने पुनः दरबार बिठाया और मंत्रणा की। इस मंत्रणा में मेवाड़ के एक ऐसे दुर्ग को मुगलों से जीतना तय किया गया, जिसकी गाथाएं आज तक मेवाड़ के लोगों की ज़ुबान पर हैं। इस महायुद्ध का वर्णन अगले भाग में किया जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)