मेवाड़ महाराणा अमरसिंह (भाग – 5)

महाराणा अमरसिंह द्वारा जागीरें देना :- प्रसिद्ध चारण कवि दुरसा आढा मेवाड़ पधारे। महाराणा अमरसिंह इस समय उदयपुर के राजमहलों में थे। महाराणा ने दुरसा जी का भव्य स्वागत किया और उनकी रचनाओं से प्रसन्न होकर उन्हें 1 करोड़ पसाव भेंट किए। जब जागीर देने की बारी आई, तो दुरसा जी ने महाराणा अमरसिंह से रायपुर जागीर में मांगा, तो महाराणा ने उसी समय उन्हें यह जागीर दे दी।

रायपुर का नाम कहीं-कहीं रायपुरिया भी लिखा है। बाद में रायपुरिया जागीर के सांसण गांव में दुरसा जी ने एक बावड़ी बनवाई। दुरसा जी ने महाराणा अमरसिंह के लिए दोहे लिखे, जिनका सारांश है कि “सिसोदिया राजपूतों ने सबका ऋण चुका दिया, इसके साक्षी स्वयं सूर्य व चंद्रमा हैं। हे महाराणा अमरसिंह, आप हिंदुओं के धणी हैं और महाराणा प्रतापसिंह के सुयोग्य पुत्र हैं। जैसे ही मैंने अपने मुख से रायपुर गांव मांगा और वैसे ही आपने मुझे यह गांव दे दिया।”

दुरसा आढा जी

महाराणा अमरसिंह ने वीरवर झाला मानसिंह जी के पुत्र राजराणा देदा झाला के पुत्र रामसिंह झाला को सरोड़, पीदड़ी, भीडाणा, भाणुजा, मुकुनपुरा, नारजी का खेड़ा, झालारों साल नामक गांव जागीर में दिए। महाराणा अमरसिंह ने राजराणा देदा झाला के एक और पुत्र नरहरदास झाला को कुडला, मकोड्या, हरजी खेड़ा, नपाण्या, पारापीपरी नामक गांव जागीर में दिए।

महाराणा प्रताप के पुत्र व महाराणा अमरसिंह के छोटे भाई पुरणमल जी द्वारिका यात्रा पर गए थे। इसी दौरान जूनागढ़ के मुस्लिम सूबेदार ने लूनावाडे के सौलंकी राजा पर हमला किया। रास्ते में पुरणमल जी को पता चला तो उन्होंने मुस्लिम सूबेदार को पराजित कर लूनावाडे के राजा की मदद की।

सौलंकी राजा ने खुश होकर पुरणमल जी के बेटे सबलसिंह को अपने यहीं रख लिया और मलिकपुर, आडेर आदि जागीरें दीं। पुरणमल जी उदयपुर पहुंचे, तो महाराणा अमरसिंह ने उनको मांगरोप की जागीर दी। पुरणमल जी ने मांगरोप में जंगल साफ करवाकर गांव बसाया। पुरणमल जी की उपाधि महाराज (बाबा) है।

महाराणा अमरसिंह ने लाखौड़ा में रामपुरा, कुम्भलगढ़ में केलवा व चित्तौड़ में मुरेली वगैरह जमीनें दी, जिनके ताम्रपत्र अब तक मौजूद हैं। इन सब बातों से मालूम होता है कि महाराणा अमरसिंह द्वारा मेवाड़ को फिर से व्यवस्थित करने के प्रयास जोर शोर से किए जा रहे थे।

चीताखेड़े का युद्ध – नवम्बर-दिसम्बर, 1597 ई. :- देवलिया के रावत भानुसिंह का विवाह ईडर के राय नारायणदास राठौड़ की पुत्री से हुआ था। राय नारायणदास की दूसरी पुत्री का विवाह महाराणा प्रताप से हुआ था। रावत भानुसिंह मुगल बादशाह अकबर के सिपहसालार थे। महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह जी के पुत्र जोधसिंह शक्तावत को महाराणा अमरसिंह ने मोखण, कराडिया, कुंडल की सादड़ी, नीमच व जीरण गांव जागीर में दिए।

जोधसिंह शक्तावत ने देवलिया के गांवों को लूटना शुरु किया व नीमच से चौथ मांगने लगे। चौथ राज्य या जागीर की आमदनी का चौथा हिस्सा होता था। देवलिया व नीमच के ये क्षेत्र मुगल आधीन थे। रावत भानुसिंह ने जीरण और मन्दसौर के शाही फौजदारों को जोधसिंह के खिलाफ भडकाया।

जोधसिंह शक्तावत द्वारा की गई लूटमार के लिए मन्दसौर के मुस्लिम फौजदार मक्खन खां ने मेवाड़ नरेश महाराणा अमरसिंह से शिकायत की, लेकिन महाराणा ने जोधसिंह के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की, क्योंकि मुगल आधीन प्रदेशों में लूटमार से महाराणा अमरसिंह खुश थे।

रावत भानुसिंह स्वयं महाराणा के दरबार में जोधसिंह शक्तावत की शिकायत करने आए, जहां जोधसिंह व भानुसिंह में बहस हो गई। महाराणा अमरसिंह ने बीच बचाव करके रावत भानुसिंह को वहां से जाने को कहा। महाराणा अमरसिंह की स्वीकृति से जोधसिंह ने मुगल आधीन प्रदेशों में लूटमार जारी रखी।

मेवाड़ नरेश महाराणा अमरसिंह जी प्रथम

रावत भानुसिंह व मक्खन खां ने 1500 सवारों की सम्मिलित फौज के साथ जोधसिंह शक्तावत पर आक्रमण किया। जोधसिंह शक्तावत की फौज में मात्र 200 पैदल व 100 सवार थे। चीताखेड़े गांव के नजदीक लड़ाई हुई। जोधसिंह शक्तावत की हार तय थी, लेकिन किस्मत ने बहादुरों का साथ दिया।

इस लड़ाई में रावत भानुसिंह व मक्खन खां दोनों ही मारे गए, लेकिन जोधसिंह शक्तावत भी काम आए। इस तरह ये युद्ध अनिर्णित रहा। जीरण में रावत भानुसिंह की छतरी बनी हुई है। अकबर ने जीरण और नीमच के परगनों पर पूरी तरह कब्जा करके ये परगने रामपुरा के राव दुर्गा सिसोदिया को दे दिए, जो कि 1567 ई. से अकबर के सिपहसालार थे।

महाराणा अमरसिंह ने रावत भानुसिंह के छोटे भाई सिंहा को गद्दीनशीनी का टीका भेजकर आश्वासन दिया और साथ ही चेतावनी भी दी कि जोधसिंह शक्तावत के पुत्रों नाहर और भाखरसी का जिन गाँवों पर अधिकार है, उनमें दखल ना दिया जावे। महाराणा अमरसिंह ने इस घटना में जिस तरह की कूटनीति दिखाई, वह निसंदेह प्रशंसनीय है।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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