महाराणा अमरसिंह के इतिहास को बहुत वर्षों से भ्रमित किया जाता रहा है, जिससे कई किस्से ऐसे भी जुड़ गए जिनका कोई अस्तित्व नहीं है और बेहतर शोध से उनका झूठ भी पकड़ना संभव है। ऐसी घटनाएं समकालीन ग्रंथों में नहीं मिलती, बल्कि बाद में प्रचलन में आई हैं, जो कि मेवाड़-मुगल सन्धि के कारण महाराणा अमरसिंह को कमतर आंककर लिखी गई हैं।
ऐसी ही एक घटना है, जिसके अनुसार जब महाराणा प्रताप अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे और शैय्या पर लेटे हुए थे। तब उनके प्राण आसानी से नहीं जा रहे थे, इसलिए सलूम्बर रावत जैतसिंह चुंडावत ने पूछा कि आपके प्राण शांति के साथ इस शरीर को क्यों नहीं छोड़ते ? इस पर महाराणा प्रताप ने जवाब दिया कि मैं जानता हूँ कि मेरा बेटा आरामपसंद है। वह कष्ट सहन करके मेवाड़ और वंश के गौरव का मान नहीं रखेगा।
वास्तव में यह घटना निराधार है, क्योंकि 1580 से ही कुँवर अमरसिंह ने अनेक युद्धों में वीरता दिखाई थी। दिवेर जैसे महायुद्ध का नेतृत्व स्वयं महाराणा प्रताप ने उनको सौंपा था और कुँवर ने इस युद्ध में महाराणा प्रताप को विजयश्री दिलाकर यह सिद्ध कर दिया था कि वे इस गद्दी के लिए सर्वथा योग्य हैं। इसके अतिरिक्त मेवाड़ से मुगल थानों को उखाड़ फेंकने में कुँवर अमरसिंह का विशेष योगदान रहा था।
इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं था कि महाराणा प्रताप अपने अंतिम समय में अपने पुत्र पर इस प्रकार अविश्वास दिखाते। यदि महाराणा प्रताप को तनिक भी ऐसा लगता, तो वे किसी दूसरे पुत्र को भी अपना उत्तराधिकारी बना सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वे जानते थे कि कुँवर अमरसिंह अनेक कष्ट सहकर भी मेवाड़ की लाज रखने में अपना शत प्रतिशत योगदान देंगे।
महाराणा अमरसिंह के देहांत के कुछ ही वर्षों बाद लिखे गए ग्रंथ राणा रासो ने महाराणा प्रताप के देहांत के समय का बेहतर वर्णन किया है। राणा रासो में लिखा है कि “अपने पुत्र अमरसिंह को बलवान समझकर महाराणा प्रताप ने निश्चय किया कि अब मुझे हरिस्मरण करके बैकुंठवास करना चाहिए। इस प्रकार से सोचकर राणा ने गंगाजल से स्नान किया।”
राणा रासो में आगे लिखा है कि “तदनन्तर महाराणा प्रताप ने पद्मासन लगाकर भगवान के चरणकमल में अपने मन को लगा दिया। उन्होंने जब भृकुटि की तीन रेखाओं के बीच अष्टायुध का ध्यान किया, तब सजल जलद सदृश श्यामरंग जो श्याम सुंदर है, उसके दर्शन हुए। दर्शन करके राणा मुग्ध हो गए। फिर उन्होंने प्राणवायु को खींचा। वे मोह को छोड़कर बड़े प्रसन्न हुए, उसी समय उनके प्राण हरिस्मरण करते हुए वहां पहुंचे, जहां परमहंस योगी पहुंचते हैं।”
अकबर के दरबारी लेखक अबुल फ़ज़ल ने तो हद ही कर दी। अबुल फ़ज़ल ने महाराणा अमरसिंह पर पितृहत्या का झूठा आरोप लगा दिया। अबुल फजल लिखता है कि “राणा कीका की मौत हो गई। ऐसा लगता है कि राणा के शरारती बेटे अमरसिंह ने राणा को खाने में ज़हर देकर मार डाला। वह (प्रताप) कमान (धनुष) को मोड़ते वक्त ज़ख्मी भी हुआ था।”
या तो अबुल फजल ने किसी अफवाह के चलते ये बात लिखी या फिर महाराणा प्रताप से नाराजगी के सबब से। इस बात को गलत साबित करने के लिए पहला तर्क ये है कि कुंवर अमरसिंह बड़े ही पितृभक्त थे, इसलिए वे ऐसा नीच काम नहीं कर सकते थे।
मेवाड़ में एक रिवाज था कि उत्तराधिकारी कभी भी पिता की चिता को अग्नि नहीं देता था। महाराणा अमरसिंह मेवाड़ के पहले ऐसे शासक थे, जिन्होंने खुद अपने पिता की चिता को अग्नि दी और सदियों से चला आ रहा ये नियम तोड़ा। ये महाराणा अमरसिंह की पितृभक्ति ही थी।
ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “राणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने अंत्येष्टि क्रिया श्रुति, स्मृति, पुराण आदि शास्त्रोक्त विधि से, जो आचार्य सम्मत है, सम्पन्न की। इस कार्य ने अमरसिंह के यश को अलंकृत कर दिया। उसकी कीर्ति त्रिभुवन में फैल गई। पितृभक्त अमर के इस कृत्य को देखकर गुणवानों ने धन्य-धन्य कहा।”
दूसरा तर्क ये है कि महाराणा अमरसिंह ने राजगद्दी पर बैठकर अय्याशी करने के बजाय 18 वर्षों तक जंगलों में रहकर मुगलों से कईं युद्ध लड़े। भला मेवाड़ के इस काँटों से भरे राजसिंहासन के लिए कौन अपने पिता को मारकर राज करना चाहेगा। यदि राजसुख ही भोगना होता तो बिना संघर्ष किए ही अधीनता स्वीकार कर लेते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।
तीसरा तर्क ये है कि मेवाड़ में सामन्तों का प्रभाव बहुत अधिक था। उदाहरणार्थ सामन्तों ने ही महाराणा कुम्भा की हत्या करने वाले उनके पुत्र उदा को राजगद्दी से हटाने के प्रयत्न किए थे। सामन्तों के प्रयासों से ही बनवीर को राजगद्दी से हटाना सम्भव हो सका।
सामन्तों ने ही जगमाल को राजगद्दी से हटाकर महाराणा प्रताप का राजतिलक किया था। इसलिए यदि अमरसिंह जी ने महाराणा प्रताप की हत्या की होती, तो मेवाड़ के सामंत महाराणा अमरसिंह का साथ देने के बजाय उनको गद्दी से हटाने के प्रयास करते।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)