मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद में छापामार युद्धों के दौरान घटित एक घटना लिखी है, जो कुछ इस तरह है :- “एक दिन महाराणा प्रतापसिंह किसी पहाड़ पर फूस के झोंपड़ों में अपनी रानियों सहित रह रहे थे। मेह बरसने लगा। उस समय महाराणा एक झोंपड़ी में हाथ में तलवार लिए होशियार बैठे थे और दूसरे छप्पर में कुँवर अमरसिंह मौजूद थे। जब ऊपर से पानी टपकने लगा, तो कुंवरानी ने लंबा सांस खींचकर कहा कि हम इस दुःख से कभी पार उतरेंगे या नहीं। तब महाराजकुमार अमरसिंह ने जवाब दिया कि हम क्या करें, हम दाजीराज के बर्ख़िलाफ़ नहीं जा सकते।”
वीरविनोद में आगे लिखा है कि “कुँवर और कुंवरानी की बातें सुनकर महाराणा प्रतापसिंह ने सवेरे उठकर सब सरदारों को बुलाया और रात को सुनी हुई बात के इशारे स्वरूप कुँवर अमरसिंह को ताना मारते हुए सरदारों से कहा कि अमरसिंह तो आरामपसंद है। मेरे पीछे ये बादशाही ताबेदारी कुबूल करके खिलअत पहनेगा। यह सुनकर कुँवर अमरसिंह बहुत शर्मिंदा हुए पर कुछ न बोले, लेकिन मन में मज़बूत इरादा किया कि मैं कभी बादशाहों का फर्माबर्दार नहीं बनूंगा।”
इस घटना की वास्तविकता का कोई ठोस प्रमाण नहीं है, परन्तु यह सम्भव है कि कुँवर अमरसिंह के हृदय में उस भयंकर संघर्ष के दौरान कमजोरी के भाव आए हों। यदि इस घटना में थोड़ी भी वास्तविकता मानी जाए, तो भी ये घटना महाराणा प्रताप के दिवेर विजय अभियान से पूर्व की रही होगी। इस घटना के पश्चात कुँवर अमरसिंह ने अनेक युद्धों में महाराणा प्रताप के साथ रहकर वीरता दिखाई। ये महाराणा प्रताप का विश्वास ही था, तभी उन्होंने कुँवर अमरसिंह को दिवेर युद्ध व अन्य लड़ाइयों में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व सौंपा।
अक्टूबर, 1582 ई. में विजयादशमी के दिन दिवेर का भीषण युद्ध हुआ, जिसमें महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह को मेवाड़ का सेनापति घोषित किया। अकबर के सेनापति सुल्तान खां का सामना कुंवर अमरसिंह से हुआ। कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां पर भाले से भीषण प्रहार किया।
भाला इतने तेज वेग से मारा था कि सुल्तान खां के कवच, छाती व घोड़े को भेदते हुए जमीन में घुस गया और वहीं फँस गया। टोप उड्यो बख्तर उड्यो, सुल्तान खां रे जद भालो मारियो। राणो अमर यूं लड्यो दिवेर में, ज्यूं भीम लड्यो महाभारत में।।
सुल्तान खां मरने ही वाला था कि तभी वहां महाराणा प्रताप आ पहुंचे। सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह को देखने की इच्छा महाराणा के सामने रखी, तो महाराणा ने किसी और राजपूत को बुलाकर सुल्तान खां से कहा कि यही अमरसिंह है। सुल्तान खां ने कहा कि नहीं ये अमरसिंह नहीं है, उसी को बुलाओ। तब महाराणा ने कुंवर अमरसिंह को बुलाया।
सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह के वार की सराहना की। महाराणा ने सुल्तान खां को तकलीफ में देखकर कुंवर अमरसिंह से कहा कि ये भाला सुल्तान खां के जिस्म से निकाल लो। कुंवर अमरसिंह ने खींचा पर भाला नहीं निकला, तो महाराणा ने कहा कि पैर रखकर खींचो। तब कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां की छाती पर पैर रखकर भाला निकाला।
1586 से 87 ई. के बीच मुगल थाने उठाने में महाराणा प्रताप का सहयोग :- दिवेर विजय के बाद महाराणा प्रताप ने जो 36 मुगल थाने उखाड़ फेंके थे, उनमें कुंवर अमरसिंह ही सेनापति थे। एक दिन तो कुंवर अमरसिंह ने गज़ब की तेजी दिखाते हुए 5 मुगल थाने उखाड़ फेंके। कुंवर अमरसिंह ने मोही, मदारिया, आमेट, देवगढ़ वगैरह मुगल थानों पर भी आक्रमण किए व विजयी हुए।
कुँवर अमरसिंह द्वारा गुजरात के शाही थानों पर आक्रमण :- जब मेवाड़ में तैनात अधिकतर मुगल थानों पर विजय प्राप्त कर ली गई, तो महाराणा प्रताप ने कुँवर अमरसिंह के नेतृत्व में एक सेना गुजरात की तरफ भेजी। कुँवर अमरसिंह ने गुजरात के शाही थानों को चीरते हुए अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया और 70 हज़ार रुपए दण्डस्वरूप वसूल करके महाराणा प्रताप को भेंट किए।
कर्नल जेम्स टॉड लिखता है कि “राणा अमर अपने पिता प्रताप व अपने कुल का सुयोग्य वंशधर था। वह वीर पुरुष के समस्त शारीरिक और मानसिक गुणों से सम्पन्न तथा मेवाड़ के राजाओं में सबसे अधिक ऊंचा और बलिष्ठ था। वह उदारता और पराक्रम आदि सदगुणों के कारण सरदारों को और न्याय व दयालुता के कारण अपनी प्रजा को प्रिय था।”
प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा लिखते हैं कि “महाराणा अमरसिंह नीतिज्ञ, दयालु, विद्वानों के आश्रयदाता, न्यायी व सुकवि थे। ये अपने पिता महाराणा प्रताप से भी अधिक लड़ाईयाँ लड़े, किन्तु अन्त में मजबूरी के चलते सन्धि के कारण इनकी ख्याति भारत में वैसी न हुई जैसी इनके पिता की है।”
कविराजा श्यामलदास ग्रन्थ वीरविनोद में लिखते हैं कि “महाराणा अमरसिंह का कद लम्बा, रंग गेहुवां, आँखें बड़ी, चेहरा रौबदार और मिजाज़ तेज़ था। वे दयावान, सच्चे व मिलनसार, दोस्ती के पूरे, इक्रार को पूरा करने वाले थे।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)