मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह जी का परिचय :- ये वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप व महारानी अजबदे बाई पंवार के पुत्र थे। इनका जन्म 16 मार्च, 1559 ई. को हुआ था। महाराणा अमरसिंह का ननिहाल बिजोलिया था। इनके नाना जी राव माम्रख/राम रख पंवार थे। महाराणा अमरसिंह के दादाजी महाराणा उदयसिंह जी थे।
महाराणा अमरसिंह के जन्म के विषय में कुछ मतभेद हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म मचीन्द गांव में हुआ, जो कि वर्तमान राजसमंद जिले में स्थित है। यह पहाड़ी क्षेत्र है, जहां महाराणा प्रताप के महलों के खंडहर हैं। लेकिन यह तथ्य इसलिए उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि महाराणा प्रताप मचीन्द गांव में छापामार युद्धों के दौरान रहे थे। इसलिए 1559 ई. में चित्तौड़गढ़ के महलों में ही महाराणा अमरसिंह का जन्म हुआ होगा।
इतिहास में महाराणा अमरसिंह का स्थान :- महाराणा अमरसिंह के संघर्ष, बलिदान, वीरता, साहस के साथ न्याय नहीं हुआ। इनके बारे में सिर्फ एक बात मशहूर है कि इन्होंने मुगलों से सन्धि की। बेशक महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से सन्धि की, लेकिन 1615 ई. में। जबकि उन्होंने राज्यभार 1597 ई. में संभाला था। बीच के इन 18 वर्षों में महाराणा अमरसिंह ने जो भीषण संघर्ष किया, वो आज महज़ कुछ ग्रन्थों तक ही सीमित है।
इन ग्रन्थों से कोई बात यदि बाहर निकली, तो वो है मुगलों से सन्धि की। निस्संदेह महाराणा अमरसिंह महान शासकों में से एक थे, जिन्होंने अपने पिता की भांति अनेक युद्धों में पराक्रम दिखाया और लगातार मुगल सल्तनत के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखा।
महाराणा अमरसिंह का कुंवरपदे काल (राज्याभिषेक से पूर्व) :- इनका संघर्ष 1567 ई. से ही शुरु हुआ, जब चित्तौड़ का तीसरा शाका हुआ व इन्हें चित्तौड़ छोड़ना पड़ा, तब इनकी उम्र 8 वर्ष थी। 1572 ई. में महाराणा प्रताप का विधिवत राजतिलक कुम्भलगढ़ में हुआ। इस अवसर पर कुँवर अमरसिंह भी उपस्थित थे।
महाराणा अमरसिंह के कुछ वर्ष बाद लिखे गए ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “महाराणा प्रताप के राजतिलक दरबार में शत्रुओं के देशों का दग्धकर्ता, उन्नतकाय, लंबी भुजाओं वाला युवराज अमरसिंह भी उपस्थित था। युवराज अमरसिंह साक्षात अमर देवता का अवतार था। युवा होने पर उसकी आँखों में लालिमा छा गई।”
अप्रैल, 1573 ई. में महाराणा प्रताप को सन्धि के लिए मनाने जब कुंवर मानसिंह कछवाहा उदयपुर आए, तब महाराणा प्रताप ने अपने 14 वर्षीय पुत्र कुंवर अमरसिंह को वार्ता हेतु भेजा था।
सितम्बर-अक्टूबर, 1573 ई. में महाराणा प्रताप को सन्धि हेतु मनाने के लिए राजा भगवानदास कछवाहा गोगुन्दा आए। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अकबरनामा में सन्धि प्रयासों की असफलता को छुपाने के लिए मनगढंत कहानी लिखी।
अबुल फजल लिखता है कि “राजा भगवानदास जब राणा को मनाने गोगुन्दा पहुंचा, तो राणा ने उसकी बड़ी खातिरदारी की। राणा का दिल उजाड़ था, इसलिए उसने खुद ना आकर अपने बेटे अमरसिंह को राजा भगवानदास के साथ शाही दरबार में भेजा। कुछ वक्त बाद शहंशाह ने अमर को फिर से मेवाड़ भेज दिया”
अबुल फजल की इस बात को गलत साबित करने वाला खुद जहांगीर था। तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “राणा अमरसिंह ने कभी किसी बादशाह को नहीं देखा। उसने और उसके बाप-दादों ने घमंड और पहाड़ी मकामों के भरोसे किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की है”
1576 ई. में 17 वर्षीय कुंवर अमरसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग नहीं लिया, क्योंकि महाराणा प्रताप ने युद्ध से पहले रनिवास की सुरक्षा का उत्तरदायित्व कुंवर अमरसिंह को दिया था। जेम्स विन्सेट लिखता है कि “हल्दीघाटी युद्ध में रुपा नाम का एक भील युद्ध की शुरुआत में ही भाग गया था, जिसे कुंवर अमरसिंह ने उदयपुर के राजमहलों में प्रतिशोध स्वरुप मार डाला।”
1576 ई. के बाद जब महाराणा प्रताप ने जंगलों में जीवन बिताया, तब कुंवर अमरसिंह ने भी इस संघर्षपूर्ण जीवन को स्वीकार किया। तलवारबाजी और भाला चलाने की कला उन्होंने स्वयं अपने महान पिता महाराणा प्रताप से सीखी। महाराणा प्रताप से उनको छापामार युद्धों में काम में ली जाने वाली कूटनीति भी सीखने को मिली।
1580 ई. में अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की बेगमों को बन्दी बनाना :- रहीम ने शेरपुर में अपने परिवार व सेना सहित पड़ाव डाला। रहीम अपने परिवार को एक फौजी टुकड़ी की निगरानी में रखकर खुद फौज समेत महाराणा प्रताप के पीछे गया। इस वक्त कुंवर अमरसिंह गोगुन्दा में थे। कुंवर अमरसिंह को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने रहीम का ध्यान महाराणा से हटाने के लिए शेरपुर पर हमला कर दिया।
कुंवर अमरसिंह शाही फौजी टुकड़ी को पराजित करके रहीम की बेगमों को बन्दी बनाकर महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत हुए। इन बेगमों में से दो के नाम ज़ीनत व आनी बेगम है। महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह को जोरदार फटकार लगाते हुए रहीम की बेगमों को सुरक्षित रहीम तक पहुंचाने का आदेश दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)