2 अक्टूबर, 1679 ई. को औरंगज़ेब ने समस्त मुगल साम्राज्य में हिंदुओं से लिया जाने वाला जज़िया कर लागू कर दिया। हिंदुस्तान में इसका ज़बरदस्त विरोध हुआ, लेकिन फिर भी यह कर सख़्ती से वसूल किया जाने लगा। मेवाड़ में महाराणा राजसिंह जी ने और महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज ने जज़िया देने से मना कर दिया।
महाराणा राजसिंह जी व छत्रपति शिवाजी महाराज दोनों ने एक-एक पत्र औरंगज़ेब को लिखा, जिसमें उन्होंने उसको ऐसा न करने के लिए कहा। छत्रपति द्वारा लिखे गए पत्र में उन्होंने कहा कि “अगर आप ख़्याल करें कि रिआया के ऊपर ज़ुल्म करने से और हिंदुओं को डर दिखाकर ही आपका धर्म प्रमाणित होगा, तो पहले हिंदुओं के सिरमौर महाराणा राजसिंह से जज़िया वसूल कीजिए। उसके बाद मुझसे वसूल करना कठिन न होगा।”
18 अगस्त, 1679 ई. को दिलेर खां ने बीजापुर पर आक्रमण किया, तो बीजापुर वालों ने छत्रपति शिवाजी महाराज से सहायता मांगी। छत्रपति ने दस हज़ार सवार भेज दिए और साथ ही 2 हज़ार बैलों पर रसद लदवाकर भेज दी गई। फिर छत्रपति अलग से 10 हज़ार की फौज लेकर सेलगुड़ नामक स्थान पर पहुंचे, जहां पहले से भेजी गई फौज भी उनसे जा मिली। इस सेना ने उत्तर-पूर्व के मुगल राज्यों पर आक्रमण करना शुरू किया, ताकि दिलेर खां का ध्यान बीजापुर से हट जाए।
लेकिन दिलेर खां बीजापुर से नहीं हटा। दिलेर खां ने एक महीने तक बीजापुर के पास रहकर आक्रमण किए, परन्तु सफलता नहीं मिली और वह पीछे हट गया। फिर उसने पश्चिम के गांवों को लूटना शुरू किया। दिलेर खां के अत्याचारों के कारण कई औरतें अपने सतीत्व की रक्षा खातिर बच्चों समेत कुंओं में कूद गई और 3000 लोग गुलाम बनाकर बेचे गए। फिर उसने आथनी नामक शहर को लूटकर जला दिया।
छत्रपति के पुत्र शम्भाजी ने दिलेर खां को रोकने की कोशिश की, पर वह नहीं माना। फिर शम्भाजी अपनी पत्नी को पुरुष की पोशाक पहनाने के बाद 10 घुड़सवारों के साथ दिलेर खां के शिविर से निकले और बीजापुर पहुंचे। कुछ समय बाद वहां रहना उचित न जानकर बीजापुर से रवाना हुए और पन्हाला किले में जा पहुँचे।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगल क्षेत्र जालना को लूट लिया। जब यह फ़ौज लौटने लगी, तो पीछे से रणमस्त खां ने आक्रमण कर दिया। छत्रपति ने 5 हज़ार की फौज रणमस्त खां से लड़ने भेजी। 3 दिन तक हुई इस लड़ाई में छत्रपति की 2 हज़ार की फ़ौज काम आई।
फिर एक और मुगल फौज रणमस्त खां की मदद के लिए आ पहुंची, जिससे छत्रपति शिवाजी महाराज चारों ओर से शत्रुओं से घिर गए। मुगल फ़ौज में शामिल एक नेतृत्वकर्ता केसरीसिंह ने छत्रपति को बच निकलने में मदद की, जिसके बाद छत्रपति लूट का माल, 2000 घोड़े आदि वहीं छोड़कर केवल 500 घुड़सवारों के साथ अपने राज्य की ओर चल पड़े।
22 नवम्बर, 1679 ई. को छत्रपति शिवाजी महाराज पट्टा दुर्ग में पहुंचे और कुछ दिन विश्राम किया। बाद में इसका नाम विश्रामगढ़ पड़ गया। नवम्बर के आखिरी सप्ताह में छत्रपति की सेना ने धारणगांव, चोपरा आदि क्षेत्रों पर आक्रमण किए।
फरवरी, 1680 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज रायगढ़ लौट आए। 23 मार्च, 1680 ई. को उन्हें बुखार व रक्त आमाशय की पीड़ा हुई। अपना अंत निकट जानकर 24 मार्च को उन्होंने अपने छोटे पुत्र राजाराम का विवाह करवा दिया। 12 दिन बाद भी उनकी पीड़ा कम न हुई। फिर उन्होंने रो रहे स्वजनों से कहा कि “जीवात्मा अविनाशी है। हम युग-युग में फिर भी पृथ्वी पर आवेंगे।” फिर उन्होंने अंतिम दान-पुण्य के कार्य करवाए।
3 से 4 अप्रैल के मध्य, 1680 ई. को चैत्र पूर्णिमा के दिन रविवार को छत्रपति शिवाजी महाराज ने अंतिम श्वास ली। हिंदुस्तान के स्वर्णिम इतिहास का सूरज अस्त हो गया। एक तरफ छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत हुआ और दूसरी तरफ इसी वर्ष मेवाड़ के महाराणा राजसिंह जी का भी देहांत हो गया। निश्चित ही यह वर्ष औरंगज़ेब को काफ़ी सुकून दे गया।
एक मशहूर किस्सा है कि एक बार किसी मराठा सैनिक ने एक मुगल औरत को कैद कर शिवाजी महाराज के सामने हाजिर किया। शिवाजी महाराज ने सैनिक को फटकार लगाई और उस औरत से कहा कि “अगर हमारी माता भी आपकी तरह खूबसूरत होतीं, तो आज हम भी सुन्दर होते”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)