शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की तिथि 6 जून, 1674 ई. निकाली गई। इस अवसर पर हज़ारों ब्राह्मण अपने परिवार सहित राजगढ़ पधारे और 4 माह तक वहीं रहे, जहां शिवाजी महाराज ने इनकी बड़ी खातिरदारी की। कई बड़ी-बड़ी हस्तियों व राजा-महाराजाओं को भी आमंत्रित किया गया।
50 हज़ार ब्राम्हण व लगभग इतने ही अन्य मेहमानों सहित राज्याभिषेक में उपस्थिति तकरीबन एक लाख के पार चली गई। शिवाजी महाराज ने अपने गुरु रामदास स्वामी व अपनी माता जीजाबाई जी से आशीर्वाद प्राप्त किया।
राज्याभिषेक का समय आ गया और शिवाजी महाराज ने गंगा स्नान किया और गागा भट्ट को 1,00,000 हूण दिए। शिवाजी महाराज सोने के सिंहासन पर बिराजे। उनका राज्याभिषेक हुआ और महाराष्ट्र “जय छत्रपति शिवाजी राजे” के नारों से गूंज उठा। इस अवसर पर शिवाजी महाराज ने बहुत दान-पुण्य का कार्य किया।
छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समय अंग्रेज दूत हेनरी ओक्सिण्डेन भी उपस्थित था। छत्रपति शिवाजी महाराज हाथी पर बैठकर रायगढ़ में जुलूस निकालते हुए चले। फिर ब्राम्हणों को दक्षिणा आदि देकर विदाई दी गई। इस कार्य में 10-11 दिन लग गए।
राज्याभिषेक के 12 दिन बाद छत्रपति शिवाजी महाराज की 80 वर्षीय माता जीजाबाई जी का देहान्त हो गया, मानो वे इस सुखद क्षण को देखने के लिए ही जीवित थीं। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में अपार धन संपदा का व्यय हुआ, जिससे राजकोष पर असर पड़ा।
जुलाई, 1674 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक सेना बहादुर खां की फ़ौज पर आक्रमण करने के लिए भेजी। इस लड़ाई में बहादुर खां भाग निकला और मुगल फ़ौज परास्त हुई। मुगलों के शिविर से एक करोड़ का धन मिला। इस प्रकार जितना धन राज्याभिषेक में खर्च हुआ, लगभग उसकी पूर्ति इस एक ही चढ़ाई से हो गई।
जनवरी, 1675 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज ने दत्ताजी को 3000 की फौज समेत कोल्हापुर भेजा। कोल्हापुर के सूबेदार ने दत्ताजी को 1500 हूण दिए। फिर छत्रपति ने रायबाग पर हमला किया पर बिना सफलता के लौटना पड़ा।
1675 ई. में आरंभ में छत्रपति शिवाजी महाराज ने बहादुर खां के सामने मुगल अधीनता स्वीकार करने की बात कही और उसको झांसे में लिया। फिर बहादुर खां ने फ़ौजी पकड़ ढीली कर दी, जिसके बाद छत्रपति शिवाजी महाराज ने बहादुर खां को चकमा देते हुए मार्च, 1675 ई. में कोल्हापुर पर विजय प्राप्त कर ली। एक मुगल सिपहसालार कुतुबुद्दीन खां का मुकाबला मराठा फौज से हुआ, जिसमें तकरीबन 400 मुगल कत्ल हुए।
जुलाई, 1675 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज ने फोंड के किले को जीतकर बहादुर खां के दूत को भगा दिया। फिर 1676 ई. के प्रारंभ में छत्रपति शिवाजी महाराज बीमार पड़ गए और 3 माह बाद मार्च महीने में स्वस्थ हुए। शिवाजी महाराज ने 4000 की फौज भेजकर अठनी वगैरह बीजापुरी इलाकों पर आक्रमण किया। शिवाजी महाराज के प्रधानमंत्री मोरो त्रिम्बक ने पिंडोल पर अधिकार कर लिया।
फरवरी, 1677 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज 50 हज़ार की फ़ौज सहित हैदराबाद गए, जहां कुतुबशाह ने उनका भव्य स्वागत किया। छत्रपति को देखने के लिए वहां लाखों की भीड़ इकट्ठी हो गई। जब बैठक हुई, तब कुतुबशाह ने एक पहर तक छत्रपति शिवाजी महाराज से बातचीत की और उन्हीं के मुख से उन्हीं के वीरता के किस्से सुनने में रुचि दिखाई।
दोनों में कुछ शर्तों पर संधि हुई और कर्नाटक जीतने में कुतुबशाह ने छत्रपति को सहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया। फिर एक दिन कुतुबशाह ने पूछा कि आपके पास कितने हाथी हैं, तो छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी सेना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ये ही हमारे हाथी हैं।
फिर सुल्तान कुतुबशाह के एक हाथी की लड़ाई येसाजी कंक से कराई गई। येसाजी ने कुछ देर तक हाथी का सामना करके हाथी की सूंड काट डाली, जिसके बाद हाथी वहां से भाग निकला। मार्च, 1677 ई. में छत्रपति शिवाजी महाराज फौज सहित हैदराबाद से रवाना हो गए।
24 मार्च से 1 अप्रैल, 1677 ई. तक का समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्रीशैल दर्शन में बिताया। 13 मई, 1677 ई. को छत्रपति ने जिंजी किले के मालिक नसीर महम्मद खां को सालाना पचास हजार रुपए आमदनी की जागीर देकर बदले में जिंजी का किला ले लिया।
23 मई, 1677 ई. को छत्रपति शिवाजी महाराज ने वेलूर दुर्ग को घेर लिया। इस गढ़ पर हब्शी अब्दुल्ला खां का अधिकार था। किले की बनावट ऐसी सख़्त थी कि महज 500 दुर्ग रक्षकों ने 14 महीनों तक की घेराबंदी का सामना किया और उनमें से 400 मारे गए। फिर 21 अगस्त, 1678 ई. को अब्दुल्ला खां ने किला छत्रपति शिवाजी महाराज को सौंप दिया। इसके बदले में उसको सालाना डेढ़ लाख रुपए की आमदनी वाली जागीर दी गई।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने भारी भरकम सेना सहित कर्नाटक पर धावा बोला। 2-4 किलों के अलावा उनका सामना करने का साहस किसी में न था। कर्नाटक में कई जगह से सूची बनाकर चौथ वसूली की गई। सन्धि की एक शर्त के अनुसार छत्रपति शिवाजी महाराज को जिंजी का किला जीतकर कुतुबशाही सरकार को देना था, पर छत्रपति ने ऐसा न करते हुए जिंजी का किले अपने ही अधिकार में रख लिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)