1666 ई. में शिवाजी महाराज आगरा की कैद से बच निकले और मथुरा पहुंचे। तब तक उनके पुत्र शम्भाजी थक चुके थे, इसलिए उनको मथुरा में ही एक मराठा ब्राम्हण के घर ठहरा दिया। शिवाजी महाराज मथुरा से रवाना हुए और प्रतिदिन अलग भेष धारण करते हुए प्रयाग पहुंचे, जहां से जंगली रास्ता पकड़कर अपने राज्य की सीमा में सही सलामत पहुंच गए।
25 दिन का सफर तय करने के बाद 13 सितंबर, 1666 ई. को शिवाजी महाराज अपनी राजधानी रायगढ़ पहुंचे। जब जीजाबाई जी को पता चला कि सन्यासियों के इस दल में महीनों से आगरा में कैद उनका पुत्र भी है, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, किले से तोपों की सलामियाँ दी गईं। सब तरफ जश्न का माहौल हो गया।
25 दिनों तक अलग-अलग जगह खाना खाने और कई बार लगातार बिना खाए सफर करने से शिवाजी महाराज बीमार पड़ गए। जब ठीक हुए तो दोबारा बीमार हो गए। जब फिर ठीक हुए, तो उन्होंने 1667 ई. के जनवरी माह में मुगल थानों पर धावा बोल दिया। शिवाजी महाराज ने यह बात फैला दी कि उनके पुत्र शम्भाजी रास्ते में ही मर गए।
यह बात मुगल दरबार तक चली गई। फिर शिवाजी महाराज ने उस मराठा ब्राम्हण को पत्र लिखकर शम्भाजी को अपने राज्य में बुलवा लिया। रास्ते में एक जगह मुगलों ने उनको कैद किया, लेकिन ब्राम्हणों का वह दल उन्हें चकमा देकर बच निकालने में सफल रहा। इस प्रकार शम्भाजी सही सलामत लौट आए और शिवाजी महाराज ने ब्राम्हण दल को बहुत इनाम आदि दिए।
शिवाजी महाराज द्वारा आगरा की कैद से भाग जाने पर औरंगज़ेब को बड़ा मलाल रहा। जीवन के आखिरी वक्त में उसने अपने वसीयतनामे में लिखा था कि “राजकाज ढंग से चलाना हो तो वतन में होने वाले हर एक बड़े वाकिये की ख़बर रखना जरूरी होता है, वरना एक वक़्त की लापरवाही से बहुत दिनों तक शर्म झेलनी पड़ती है। वह अभागा शिवाजी हमारे नौकरों की बेपरवाही से भाग निकला और उसके लिए हमको ज़िंदगी के आख़िर तक तकलीफ़ों वाली लड़ाइयों में उलझे रहना पड़ा।”
शिवाजी महाराज को आगरा की कैद से बच निकालने में कुँवर रामसिंह कछवाहा का सबसे बड़ा योगदान रहा। लेकिन अब राजा जयसिंह कछवाहा की चिंताएं बढ़ने लगी, क्योंकि उनकी बीजापुर पर चढ़ाइयाँ असफ़ल रहीं और इसमें अपार धन संपदा भी खर्च हुई। इसके अलावा उनको ये चिंता थी कि शिवाजी महाराज अब सल्तनत के विरुद्ध किस तरह बदला लेंगे। साथ ही यह चिंता भी थी कि औरंगज़ेब उनके पुत्र रामसिंह को न जाने क्या दंड दे।
औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह को दक्षिण की चढ़ाई से हटा दिया और तुरंत आगरा बुलावा भिजवा दिया। राजा जयसिंह आगरा के लिए रवाना हुए थे कि रास्ते में बुरहानपुर में 28 अगस्त, 1667 ई. को प्राण त्याग दिए। यह संदेह किया गया कि औरंगज़ेब के इशारे से उनको ज़हर देकर मरवा दिया गया। बुरहानपुर में राजा जयसिंह की छतरी स्थित है।
कुछ मुगल थाने लूटकर शिवाजी महाराज शांत हो गए और 3 वर्षों तक मुगल विरोधी गतिविधियां नहीं की। उन्होंने अपना ध्यान कोंकण प्रदेश की तरफ लगाया। शिवाजी महाराज ने 1667 ई. में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ को एक पत्र में लिखा कि
“बादशाह ने मुझे त्याग दिया, वरना मेरी इच्छा थी कि मैं कन्दहार का किला जीतकर उनको भेंट करु। मैं केवल जान बचाने के मकसद से ही आगरा से भागा हूँ। मिर्ज़ा राजा जयसिंह मेरे मुरब्बी थे। वे अब नहीं रहे। अगर आप बीच में पड़कर बादशाह से माफी दिला दें, तो मैं अपने पुत्र के साथ अपनी फ़ौज को दक्षिण के हाकिम मुअज़्ज़म की मातहती में काम करने के लिए भेज सकता हूँ।”
औरंगज़ेब राजी हो गया और उसने शिवाजी महाराज को ‘राजा’ की उपाधि दी। 4 नवम्बर, 1667 ई. को शम्भाजी ने मुअज़्ज़म से मुलाकात की। प्रतापराव व नीराजी के नेतृत्व में मराठों का एक दल शाही अधीनता में काम करने लगा। शम्भाजी को बरार में 5000 की मनसबदारी दी गई।
1667 से 1669 तक 3 वर्ष शांति से व्यतीत हुए। फिर 1670 में शिवाजी महाराज ने पुनः बग़ावत कर दी। वास्तव में शिवाजी महाराज ने ये तीन वर्ष अपने राज्य को सुदृढ़ करने में लगाए थे। अब जब उन्हें लगा कि पुनः मुगल सल्तनत से वे बैर लेने में सक्षम हो चुके हैं, तो उन्होंने शाही अधीनता अस्वीकार कर दी और अपनी सेनाएं वापस बुला ली।
शांति का दौर चल ही रहा था कि अचानक जनवरी, 1670 ई. में शिवाजी महाराज ने मुगल थानों, मुगल क्षेत्रों व किलों पर चौतरफा धावा बोल दिया। वे 23 किले, जो पुरंदर की सन्धि में मुगलों ने छीन लिए थे, शिवाजी महाराज ने उनमें से अधिकतर पुनः जीत लिए। इसके अलावा भी जगह-जगह मुगलों के क्षेत्र पर शिवाजी महाराज का अधिकार होने लगा। बहुत से मुगल मारे गए और कई जान बचाकर भाग निकले।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)