पुरन्दर की सन्धि की एक शर्त के मुताबिक मुगल दरबार में शिवाजी महाराज की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी, लेकिन आमेर के राजा जयसिंह की बात मानकर शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के दरबार में जाना स्वीकार किया।
5 अप्रैल, 1666 ई. को शिवाजी महाराज रास्ते में थे कि तभी औरंगजेब का खत आया कि “आपका खत मिला है कि आप शाही दरबार में तशरीफ ला रहे हैं। जल्दी आइये, बादशाही मिहरबानियों के बाद आपको जल्द ही रुखसत कर दिया जावेगा”
13 मई, 1666 ई. को शिवाजी महाराज अपने बेटे शम्भाजी के साथ आगरा पहुंचे। नूरगंज बाग में शिवाजी महाराज व राजा जयसिंह के पुत्र कुंवर रामसिंह की भेंट हुई। एक शिविर में ले जाकर शिवाजी महाराज का स्वागत किया गया और कुछ समय बाद कुंवर रामसिंह उनको साथ लेकर दरबार के लिए रवाना हुए। शिवाजी महाराज के स्वागत के लिए किसी बड़े उमराव को नहीं भेजकर उनका पहला अपमान किया गया।
दीवान-ए-खास में औरंगज़ेब ऊंचे आसन पर बैठा था और कई सिपहसालार नीचे अपने ओहदे के अनुसार खड़े थे। उसी समय कुँवर रामसिंह ने शिवाजी महाराज व उनके दस कर्मचारियों को दरबार में उपस्थित किया। फिर बख्शी असद खां ने शिवाजी महाराज को औरंगज़ेब के सामने हाजिर किया।
शिवाजी महाराज ने औरंगज़ेब को एक हज़ार मोहरें व दो हज़ार रुपए नज़र किए और पांच हज़ार रुपए न्योछावर के तौर पर भेंट किए। तब एक मंत्री ने शिवाजी महाराज को पांच हजारी मनसबदारों की कतार में खड़ा कर दिया और फिर दरबारी काम काज चलने लगा। ये शिवाजी महाराज का दूसरा अपमान था।
जब वज़ीर, शहज़ादों और बड़े राजाओं को खिलअत प्रदान की गई, तब शिवाजी महाराज को कोई खिलअत नहीं दी गई, ये उनका तीसरा अपमान था। अब शिवाजी महाराज की आंखें क्रोध से लाल हो गईं और औरंगज़ेब की नज़र उन पर पड़ी, तो औरंगज़ेब ने कुँवर रामसिंह के ज़रिए पुछवाया कि शिवाजी की तबियत कैसी है ?
शिवाजी महाराज ने कुंवर रामसिंह से कहा कि “क्या मैं ऐसा आदमी हूँ, जिसे जानबूझकर इस तरह खड़ा रखा जाए ? यदि खड़ा ही रखना था, तो मुझे ठीक स्थान पर खड़ा करते, मैं ये मनसब छोड़ता हूँ।” ये कहकर शिवाजी महाराज वहां से जाने लगे, कि तभी कुंवर रामसिंह ने उनका हाथ पकड़ा, तो शिवाजी महाराज हाथ छुड़ाकर वहां से गए और कुछ दूर जाकर एक स्थान पर बैठ गए।
जब कुँवर रामसिंह शिवाजी महाराज को मनाने पहुंचे, तो शिवाजी महाराज ने कहा कि “मेरी मौत आई है। या तो तुम मुझे मारोगे या मैं आत्मघात कर लूंगा। मेरा सिर काटकर ले जाना चाहो तो ले जाओ, मैं नहीं जाता बादशाह के सामने।” जब वे न माने, तो औरंगज़ेब ने अपने सिपहसालारों को भेजकर शिवाजी महाराज को सिरोपाव आदि भेंट करके खुश करने को कहा।
शिवाजी महाराज ने कहा कि “मुझे मारना चाहो तो मार दो या कैद कर लो, पर मैं सिरोपाव नहीं पहनूंगा”। औरंगज़ेब ने कुंवर रामसिंह से कहा कि अभी तुम शिवाजी को अपने डेरे पर ले जाओ और शांति से समझाओ। कुंवर रामसिंह ने ऐसा ही किया, लेकिन फिर भी शिवाजी महाराज ने एक नहीं सुनी।
शिवाजी महाराज के कई विपक्षी दल वाले भी वहां मौजूद थे, जो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन लोगों ने बादशाह के कान भरे कि शिवाजी ने बड़ी बेअदबी दिखाई है, इसलिए उसे मार देना चाहिए। इन बातों का असर औरंगज़ेब पर हुआ और उसने राजा जयसिंह को पत्र लिखा कि तुमने शिवाजी को यहां भेजने से पहले क्या क्या कसमें खाई थी ?
राजा जयसिंह काफी दूर थे, इसलिए जवाब आने में देरी तो होनी ही थी। तब तक के समय के लिए औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि शिवाजी को आगरा किले के किलेदार राद अंदाज़ खां की निगरानी में रखा जाए। लेकिन कुंवर रामसिंह कछवाहा को ये मंज़ूर नहीं था।
कुँवर रामसिंह ने मंत्री आमिन खां से कहा कि “शिवाजी महाराज मेरे पिता के कौल पर यहां आए हैं, इसलिए उनकी जान की हिफाज़त की ज़िम्मेदारी मेरी है। बादशाह को पहले मुझे मारना होगा, उसके बाद वे शिवाजी के साथ जो चाहें करें।” यह सुनकर औरंगज़ेब ने शिवाजी महाराज को कुंवर रामसिंह की निगरानी में रहने का आदेश दे दिया।
कुंवर रामसिंह को ये लिखकर देना पड़ा कि यदि शिवाजी महाराज भाग जाएं या आत्मघात करे, तो उसकी ज़िम्मेदारी रामसिंह की होगी। शिवाजी महाराज के डेरे के अंदर कछवाहा सैनिकों का पहरा रखा गया और डेरे के बाहर कोतवाल सिद्दि फ़ौलाद खां ने तोपें आदि रखवाकर एक सैनिक टुकड़ी बिठा दी।
शिवाजी महाराज ने कैद से बाहर निकलने के प्रयास करने शुरू कर दिए। उन्होंने औरंगज़ेब से कहलवाया कि “अगर बादशाह मुझको छोड़ दे, तो मैं अपने राज्य में जाकर सारे किले बादशाह को सौंप दूंगा, पर इसके लिए मेरा जाना जरूरी है, क्योंकि किलेदार सिर्फ मेरा ख़त पढ़कर मेरी बात नहीं मानेंगे।” औरंगज़ेब अब शिवाजी महाराज की कूटनीति को जान चुका था, इसलिए वो उनकी इन बातों में नहीं आया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)