शिवाजी महाराज की सूरत की लूट के मात्र 13 दिन बाद 23 जनवरी 1664 ई. को घोड़े से गिरकर उनके पिता शाहजी राजे भोंसले का देहांत हो गया। उनकी संपत्ति पर शिवाजी महाराज के सौतेले भाई व्यंकोजी ने अधिकार कर लिया।
18 मई, 1664 ई. को जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह ने कोंडन दुर्ग घेर लिया, जिसे जीतने में उन्हें सफलता नहीं मिली। इसी वर्ष अगस्त माह में शिवाजी महाराज ने अहमदनगर को लूट लिया।
बार-बार ऐसे नुकसान सहना अब औरंगज़ेब के लिए असहनीय हो गया था। नतीजतन, औरंगज़ेब ने 30 सितम्बर, 1664 ई. को जयपुर के महाराजा मिर्जा राजा जयसिंह को 14 हज़ार की फ़ौज सहित शिवाजी महाराज को परास्त करने भेजा। राजा जयसिंह को कई लड़ाइयों का अनुभव प्राप्त था। साथ ही वे कूटनीति और राजनीतिक चालें चलने में भी माहिर थे।
मआसिरे आलमगिरी में लिखा है “राजा जयसिंह का मनसब बढ़ाकर सात हजार कर दिया गया। बादशाह ने रामसिंह कछवाहा, दिलेर खां, दाऊद खां, रायसिंह, कीरत सिंह वगैरह सबको अलग-अलग खिताबों से नवाज़ा। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बादशाह को तोहफे ना भेजकर शिवा की मदद की थी, जिस वजह से बादशाह ने राजा जयसिंह से कहा कि शिवा के मसले का निपटारा करने के बाद बीजापुर के मुल्क को नेस्तनाबूद कर दिया जावे।”
राजा जयसिंह ने जनवरी, 1665 ई. में 2 पुर्तगाली कप्तानों को गोवा में पुर्तगाल के राजप्रतिनिधि के पास भेजकर शिवाजी महाराज की जलसेना पर आक्रमण करने में मदद मांगी। इसी प्रकार की मदद जंजीरा के हबशी सरदार सिद्दि से भी मांगी गई।
अब राजा जयसिंह ने उन सभी को अपने साथ करने की कोशिश की, जिनसे शिवाजी महाराज ने कभी न कभी शत्रुता रखी। राजा जयसिंह ने बिदनौर, वासवपटन, मैसूर आदि के राजाओं के पास सहयोग हेतु दूत भेजे और उनको बीजापुर राज्य की दक्षिणी सीमा पर आक्रमण करने के लिए कहा।
राजा जयसिंह ने अफ़ज़ल खां के बेटे फ़ज़ल खां और चद्रंराव मोरे के बेटे बाजी चन्द्रराव को उनके पिता की हत्या का बदला दिलाने का वादा कर अपने साथ मिला लिया। कोंकण के उत्तर में कोली देश के राजाओं को भी राजा जयसिंह ने अपने साथ मिला लिया।
इन तैयारियों में मार्च महीना आ गया और जुलाई में बारिश शुरू होनी थी। राजा जयसिंह को अपना कार्य मात्र बीच के इन 3 माह में पूरा करना था। राजा जयसिंह ने यहां के अधिकतर कार्य स्वयं के स्तर पर किए और बादशाह औरंगज़ेब के आदेशों की भी कोई परवाह नहीं की।
औरंगज़ेब ने बार-बार राजा जयसिंह को पत्र लिखकर कोंकण पर हमला करने का आदेश दिया, परन्तु राजा जयसिंह ने ऐसा नहीं किया। उनका मानना था कि अलग-अलग हमला करने से फ़ौज बिखर जाएगी। वे मराठों की केंद्र शक्ति पर एक साथ ही पुरज़ोर आक्रमण करना चाहते थे। राजा जयसिंह ने औरंगज़ेब को पत्र में कहा कि पूना शिवाजी के राज्य का कलेजा है, इसलिए आक्रमण वहीं किया जाएगा।
3 मार्च, 1665 ई. को राजा जयसिंह पूना पहुंचे और उन्होंने पुरंदर के किले पर चढ़ाई करना तय किया। पूना में जगह-जगह राजा जयसिंह ने सैनिक चौकियां स्थापित कर दीं। 30 मार्च को वे पुरंदर किले के सामने पहुंचे और 31 मार्च से किले की घेराबंदी शुरू कर दी। बड़ी मशक्कत से बड़ी-बड़ी तोपें पहाड़ों तक चढ़ा दी गईं।
पुरंदर किले के निकट ही वज्रगढ़ नाम का एक और किला था, जिसकी पहाड़ी से पुरंदर के किले पर तोपों की मार बेहतर तरीके से की जा सकती थी। 14 अप्रैल को राजा जयसिंह ने एक सेना भेजकर वज्रगढ़ का किला मराठों से छीन लिया। कैद किए गए मराठों को छोड़ दिया गया और उनके नेताओं को सम्मानसूचक पोशाकें देकर अपने घर लौट जाने की अनुमति दे दी गई।
राजा जयसिंह ने 25 अप्रैल को महाराष्ट्र में जगह-जगह सैनिक टुकड़ियां भेजकर आक्रमण किए। उधर, शिवाजी महाराज की सैनिक टुकड़ियों ने भी पुरंदर का घेरा तोड़ने के लिए कई आक्रमण किए, लेकिन सफलता नहीं मिली। किले की प्रसिद्ध बुर्ज़ खड़कला पर राजा जयसिंह ने अधिकार कर लिया।
मराठों ने 2 बार खड़कला बुर्ज़ पर हमला किया, पर उन्हें पराजय मिली। राजा जयसिंह के आदेश से एक सैनिक टुकड़ी ने सफेद बुर्ज़ों पर चढ़ाई करना शुरू किया, लेकिन मराठों ने ऊपर से पत्थर आदि बरसाए, जिससे राजा जयसिंह को सफलता नहीं मिली।
फिर राजा जयसिंह ने सफेद बुर्ज़ों के सामने एक ऊंचा काठ का रथ कठघरा बनवाया। उस पर तोपें चढ़ाई गई और सफ़ेद बुर्ज़ों पर तैनात मराठा सिपाहियों पर आक्रमण किया गया। इस तरह सफेद बुर्ज़ पर भी राजा जयसिंह ने अधिकार कर लिया।
इसी तरह 2 दिन की लड़ाई के बाद काले बुर्ज़ पर भी राजा जयसिंह ने विजय प्राप्त कर ली। मुरार बाजीप्रभु ने पुरंदर किले की रक्षार्थ राजा जयसिंह की एक सैनिक टुकड़ी पर भीषण आक्रमण किया और बड़ी बहादुरी दिखाकर अंत में 300 मावलों सहित काम आए।
अब पुरंदर का किला मराठों के हाथों से लगभग निकल चुका था। अगले भाग में पुरंदर की संधि के बारे में लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)