महाराणा कुम्भा का शासनकाल मेवाड़ में साहित्य, कला व शिल्प का स्वर्णकाल था। महाराणा कुम्भा के शासनकाल में इस क्षेत्र में जो उन्नति हुई, वैसी उन्नति फिर कभी न हो सकी। महाराणा सांगा के समय इस क्षेत्र में कोई उन्नति नहीं हुई। महाराणा उदयसिंह व महाराणा प्रताप का समय संघर्षों में गुजरा, इसलिए इस दौरान भी यह क्षेत्र मेवाड़ में क्षीण पड़ा रहा। परन्तु महाराणा प्रताप ने जब चावंड को राजधानी बनाई और मुगल आक्रमणों का अंत हुआ, तब मेवाड़ में शांति स्थापित हुई।
साहित्यकार, कलाकार, कारीगर, जो मेवाड़ छोड़कर चले गए थे, वे पुनः मेवाड़ की ओर लौट आए। हालांकि यहां महाराणा प्रताप के शासनकाल में साहित्य-कला के क्षेत्र में हुए प्रयासों की तुलना महाराणा कुम्भा के शासनकाल से बिल्कुल भी नहीं की जा रही है, क्योंकि महाराणा प्रताप ने इस क्षेत्र में जो कुछ भी किया, वो अंधकार में सितारों से रोशनी करने के समान था। महाराणा उदयसिंह व महाराणा प्रताप ने तो लोहे से लोहा लड़ाकर सितारों को ज़मीन पर उतारने का कार्य किया।
मेवाड़ की राजधानी में विद्वानों के आने से चावंड एक सांस्कृतिक केंद्र बन गया। महाराणा प्रताप के समय लिखे गए ग्रंथों की पांडुलिपियां और चावंड में बने चित्रों की मूल प्रतियों से ज्ञात होता है कि महाराणा प्रताप ने चावंड में रहकर विद्वानों को प्रोत्साहन दिया।
महाराणा प्रताप के दरबार में प्रकांड विद्वान मथुरा के चक्रपाणि मिश्र थे। चक्रपाणि मिश्र के पिता डूंगर मिश्र थे। चक्रपाणि मिश्र ने महाराणा प्रताप की प्रेरणा से विश्ववल्लभ, राज्याभिषेक पद्दति, व्यवहारादर्श, ज्योतिष मुहूर्तमाला जैसे ज्ञानवर्धक ग्रंथों की रचना की। संभव है कि चक्रपाणि मिश्र ने और भी कई ग्रंथों की रचना की हो, लेकिन अब तक उनके ये 4 ग्रंथ ही प्रकाश में आए हैं। जिस प्रकार उस दौर के अधिकतर शासक अपने दरबारी कवियों से अपनी प्रशंसा में ग्रंथ लिखवाते थे, वैसा महाराणा प्रताप ने नहीं करवाया।
चक्रपाणि मिश्र के चारों ही ग्रंथों में अनेक उपयोगी जानकारियां हैं, सिवाय महाराणा प्रताप की प्रशंसा के। विश्ववल्लभ ग्रंथ की रचना स्थापत्य कला के दृष्टिकोण से की गई थी। महाराणा राजसिंह के राज्याभिषेक के समय चक्रपाणि मिश्र के ग्रंथ राज्याभिषेक पद्दति की प्रतिलिपि तैयार करवाई गई थी। मुहूर्तमाला नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना जनसाधारण के उपयोग के लिए की गई थी।
महाराणा प्रताप के समय पहाड़ी खेती पर विशेष बल दिया गया था। इस दौर में फसलों में लगने वाली कीट व्याधियों की पहचान भी की गई व उनके निराकरण के उपाय भी ग्रंथों में लिखे गए।
महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ में अनेक चारण कवियों ने साहित्य के क्षेत्र में उन्नति की। प्रसिद्ध चारण कवि रामा सांदू महाराणा प्रताप के साथ थे। ये धरमा सांदू के पुत्र थे। रामा सांदू छापामार लड़ाइयों के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए थे। महाराणा प्रताप ने माला सांदू को भी सम्मानित किया। गोरधन बोगसा भी महाराणा प्रताप द्वारा सम्मानित हुए थे।
महाराणा प्रताप ने भामाशाह कावड़िया जी के भाई ताराचंद को सादड़ी का हाकिम बनाया था। ताराचंद की प्रेरणा से 1588 ई. में सादड़ी में प्रसिद्ध जैन विद्वान साधु हेमरतन सूरी ने गोरा-बादल चरित्र की रचना की। गोरा-बादल चित्तौड़गढ़ के पहले शाके में अलाउद्दीन खिलजी की फ़ौज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। हेमरतन सूरी ने स्वाभिमानी योद्धाओं की गौरवगाथा पर विशेष बल दिया। हेमरतन सूरी ने महाराणा प्रताप के लिए लिखा कि “प्रतपई दिन-दिन अधिक प्रताप”।
अब बात करते हैं चित्रकला की। भारतीय चित्रकला की मेवाड़ शैली बहुत प्रसिद्ध है। विद्वानों का मत है कि इस शैली के प्रारंभिक उत्कृष्ट नमूनों का प्रादुर्भाव चावंड से हुआ। मेवाड़ शैली के अंतर्गत चावंड शैली का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया है। इस शैली में बने चित्र भारतीय चित्रकला के अत्यंत महत्वपूर्ण अंग हैं।
चावंड में बने कई चित्र सामने आए हैं, जो रोचकता और मौलिकता में अनूठे हैं। इस शैली में विषय के प्रतिपादन में तथा रंगों के प्रयोग में सादगी तथा भाव प्रदर्शन में गांभीर्य प्रमुख है। एक रागमाला का चित्र, जो महाराणा प्रताप के देहांत के ठीक बाद 1605 ई. में बना था, इस बात को सिद्ध करता है कि रागमाला का चित्रण महाराणा प्रताप के समय शुरू हो चुका था।
रागमाला के चित्रकार नसीरुद्दीन थे, जिन्हें निसार, निसारदी आदि नामों से भी जाना गया। नसीरुद्दीन महाराणा प्रताप के दरबार में सबसे प्रसिद्ध चित्रकार थे। इनके द्वारा बनाए गए चित्रों में पुरुष और स्त्रियों की आकृति में दक्षिण तथा पश्चिमी तटीय भागों और मालवा के प्रभाव की छाप भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि तब तक मेवाड़ का सांस्कृतिक संबंध इन विभिन्न भागों में परिपक्व अवस्था में पहुंच चुका था।
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “चित्रकला की भांति महाराणा प्रताप ने स्थापत्य कला में भी रुचि ली। उनके समय के स्थापत्य में सैनिक तथा साधारण जनजीवन के स्थापत्य का सम्मिश्रण था।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
आपके द्वारा वर्णित वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप सिंह से महाराणा जी हमने दोबारा जीवन मे जीवित महसूस किया। इनके परलोक जाने वाले लेख से लगा कि वो आज हमे छोड़ कर गए है।
इस पृथ्वी पर कही भी जन्म लेकर ऐसे वीर की कथा से वंचित रहना किसी के लिए भी अभिशाप के समान है।