दिसम्बर-जनवरी, 1597 ई. में महाराणा प्रताप की नसों में खिंचाव :- महाराणा प्रताप को सूचना मिली की एक शेर इन्सानों व गाय-भैंसों का शिकार कर रहा है। महाराणा प्रताप शेर का शिकार करने जंगल में पधारे।
धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाते वक्त महाराणा की नसों में जबर्दस्त खिंचाव हुआ। महाराणा प्रताप तकरीबन महीने भर तक इस पीड़ा को सहते रहे। वैद्य ने उपचार किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ।
राजपूताने की लाज रखने वाले इस महान योद्धा का अन्त निकट जानकर राजपूताने की बड़ी-बड़ी हस्तियों से लेकर प्रजा तक हर कोई उनका हालचाल पूछने चावण्ड आया। महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह का हाथ अपने हाथ में लिया और उनसे कहा कि मेवाड़ की स्वाधीनता बरकरार रहनी चाहिये।
29 जनवरी, 1597 ई. :- वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का परलोकगमन :- महाराणा प्रताप के समक्ष सलूम्बर रावत जैतसिंह चुण्डावत व अन्य सभी सामन्तों ने बप्पा रावल की गद्दी की शपथ खाकर कहा कि “हम सभी कुंवर अमरसिंह द्वारा लड़ी जाने वाली स्वाधीनता की इस लड़ाई में अन्त तक उनके साथ रहेंगे”
शपथ सुनने के बाद चावण्ड के महलों में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का देहान्त हुआ। चावण्ड से डेढ मील दूर बांडोली गांव में महाराणा प्रताप का अन्तिम संस्कार हुआ।
“टूट गया बल हो गए हताश आँखें हैं नम, दुर्ग से फहराता वो ध्वज कहे समय है कम। पूतों के बलिदानों को यूँ देख रोता है मन, जय-जय जिसकी होती थी जयकार वो मेवाड़ है नम।।”
बांडोली में महाराणा प्रताप की 8 खम्भों की छतरी बनी हुई है। महाराणा प्रताप की छतरी पर उनकी एक बहिन की छतरी का पत्थर भी था, जिस पर 1601 ई. का शिलालेख खुदा था। महाराणा प्रताप ने 24 वर्ष, 10 माह, 26 दिन तक शासन किया।
छतरी सफेद पत्थर की बनाई गई थी, जो समय बीतने पर टूटने लगी। बाद में इस स्थान के निकट बहने वाले एक नाले पर बांध बांधा गया, जिससे यहां एक तालाब बन गया, जो केजड़ का तालाब कहलाता है। छतरी इसके बीच में पड़ गई, इसलिए बाद में इसका जीर्णोद्धार करवाकर इसे एक चबूतरे पर बनवा दिया गया।
इतिहासकार कहते हैं कि ईश्वर की माया भी अपार है कि जो वीर अनेक लड़ाइयों में कभी घायल न हुआ और जो अपनी तलवार से अनेक शत्रुओं को मृत्युशैया पर सुलाता रहा, वही वीर कमान खींचने से बीमार होकर इस संसार से सदा के लिए विदा हो गया।
महाराणा प्रताप के देहांत की वास्तविक तिथि :- महाराणा प्रताप के देहांत की तिथि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 19 जनवरी, 1597 ई. प्रसिद्ध है, परन्तु बाद में ज्योतिषों द्वारा गणना के उपरांत वास्तविक तिथि 29 जनवरी, 1597 ई. मानी गई, जिसे कई इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं।
विक्रम संवत 1653 में माघ शुक्ल एकादशी के दिन महाराणा प्रताप का देहांत हुआ। उस दिन बुधवार था। उस दिन दशमी व एकादशी एक ही दिन थी। फिर भी बड़े स्तर पर देशभर में महाराणा की पुण्यतिथि 19 जनवरी को ही मनाई जाती है, जिस पर कई इतिहासकार अब भी दृढ़ मत रखते हैं।
अकबर का दरबार लगा हुआ था, तभी महाराणा प्रताप के देहान्त का समाचार वहां पहुंचा। वहां खड़े सभी मुगल प्रसन्न हुए, पर दरबार में उपस्थित हिंदुओं की आंखें भर आई। उन्हीं हिंदुओं में उस वक्त कवि दुरसा आढ़ा भी थे, जिन्होंने उस वक्त अकबर के जो हाव-भाव देखे, उसे अपने दोहों के माध्यम से कहा :-
अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी। गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी। नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली। न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली। गुहिल राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी। नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।
अर्थात् राणा ने अपने घोडों पर दाग नहीं लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था), उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नहीं। जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाई धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया।
तुम्हारा रौब दुनिया पर ग़ालिब था। तुम कभी नोरोजे के जलसे में नहीं गये, न बादशाह के डेरों में गए। न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी। (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे)
हे प्रतापसी ! तुम्हारी मृत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गुहिल राणा जीत गया।”
यह सुनकर दरबारी सहम गए, उन्हें डर लगा कि जिन महाराणा प्रताप को समाप्त करने के लिए शहंशाह अकबर ने इतनी लड़ाइयां लड़ी, उनकी सराहना सुनकर वह आग बबूला हो जाएगा।
अकबर ने उन्हें निराश किया, कवि की सराहना करके उनको इनाम दिया और कहा कि दुरसा आढा ने मेरी मनोदशा का सही चित्रण किया है।
महाराणा प्रताप के देहान्त के कुछ वर्षों बाद लिखे गए ग्रन्थ ‘राणा रासौ’ में लिखा है “राणा प्रताप सोनगिरी रानी से उत्पन्न हुआ और संसार में अद्वितीय वीर माना गया। वह दानी एवं युद्ध में शत्रुओं को दलने वाला था। प्रतापसिंह
अपना प्रताप स्वयं फैलाने वाला था। उसमें अक्षुण्ण रजोगुण विद्यमान था। इस संसार में जैसा राणा प्रताप हुआ है, वैसा ना अब तक कोई हुआ और न कभी होगा।”
राणा रासौ में आगे लिखा है कि “राणा प्रताप युधिष्ठिर के समान सत्यवक्ता, दधीचि के समान उदारवृद्धि, दशरथ के समान पुरुषार्थी, भीम के समान युद्ध करने वाला, रावण के समान स्वाभिमानी एवं राम के समान प्रणपालक था। वह भारतवर्ष में विक्रम, भोज, कर्ण व सूर्य स्वरुप माना
जाता है। राजागण उसको अपना शिरोमणि मानते थे। प्रताप नरेश हिन्दुओं का अडिग ताज था। हे प्रताप तुम युग-युग जीवित रहो। तुम्हारे स्मरण मात्र से पाप दूर हों। तुम भगवान एकलिंग के द्वितीय अंग माने जाते रहो, हिन्दुओं के पिता बने रहो।”
राजप्रशस्ति और अमरकाव्य के अनुसार महाराणा प्रताप को उनके जीवनकाल में अकबर के आगे आत्मसमर्पण नहीं करने के कारण ‘अनम्र’ की पदवी दी गई। हे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप, आपको शत शत नमन
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
अद्भुत प्रसंग. महाराणा प्रताप के विषय में पढ़कर रोमांच हो आता है .आंखें भर जाती है. उनकी स्मृति इतनी पवित्र है की मेवाड़ की रज को माथे से लगाने का मन करता है.