महाराणा प्रताप के संघर्ष का परिणाम :- महाराणा प्रताप का राजतिलक 1572 ई. में हुआ, जिसके बाद से ही अकबर के संधि प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे। 1576 ई. में हल्दीघाटी के भीषण युद्ध के बाद अकबर स्वयं मेवाड़ आया और 8 माह तक मेवाड़ व उसके आसपास रहकर निरंतर फ़ौजें भेजकर आक्रमण करता रहा।
1576 में पुनः राजा मानसिंह को भेजा। 1577, 1578 व 1579 में शाहबाज़ खां को 3 बार फ़ौज समेत भेजा। 1580 में अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को भेजा। 1584 में जगन्नाथ कछवाहा को भेजा। इस प्रकार हर आक्रमण के दौरान अनेक मुगल थाने मेवाड़ में बिठाए गए।
1576 से 1588 ई. तक महाराणा प्रताप ने 300 से अधिक मुगल चौकियों को ध्वस्त किया। एक-एक करके महाराणा प्रताप ने लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। महाराणा प्रताप अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में 21 बड़े युद्ध लड़े।
महाराणा प्रताप केवल चित्तौड़गढ़ दुर्ग व मांडलगढ़ दुर्ग पर अधिकार नहीं कर पाए। गौर से देखा जाए तो चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ महाराणा उदयसिंह के समय ही मुगलों के हाथ लग चुके थे। महाराणा प्रताप के शासनकाल में जितना मुगलों ने छीना, उतना फिर से प्राप्त करने में महाराणा प्रताप सौ फीसदी सफल हुए।
जिस समय अकबर के प्रकोप से बड़े-बड़े राजा बिना लड़े आत्मसमर्पण कर चुके थे, उस समय जंगलों में रहकर एक शख्स ने न सिर्फ समस्त मुगल साम्राज्य को चुनौती दी, बल्कि अपने से सौ गुना शक्तिशाली मुगल सल्तनत को इस तरह घुटनों पर झुका दिया कि महाराणा के जीते जी फिर कभी अकबर ने मेवाड़ पर हमला करने का साहस नहीं किया।
इसके बावजूद भी कई लोग हल्दीघाटी युद्ध को आधार मानकर महाराणा प्रताप को एक हारा हुआ योद्धा ही मानते हैं, ऐसे लोगों को महाराणा प्रताप का सम्पूर्ण इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है। “अनगिनत युद्ध हारकर, खुद अकबर ने किया विराम। और कहते हैं कुछ अर्द्ध ज्ञानी, हार गया राणा पर था बड़ा महान।।”
अकबर ने संघर्ष विराम कर दिया, लेकिन महाराणा प्रताप ने इस संघर्ष को जारी रखा और मेवाड़ के बाहर जो मुगल थाने थे, उन पर आक्रमण करना शुरू किया व मालवा, गुजरात, अजमेर के शाही इलाकों पर मेवाड़ी सेना के आक्रमण होने लगे।
महाराणा प्रताप ने मांडलगढ़ दुर्ग को इसलिए नहीं जीता, क्योंकि वहां नियंत्रण कायम रख पाना मुश्किल कार्य था। यह किला अजमेर के नजदीक पड़ता है और अजमेर मुगलों के लिए राजपूताने का वह केंद्र बिंदु था, जो पूर्ण रूप से मुगलों के अधीन हो चुका था।
यदि महाराणा प्रताप मांडलगढ़ जीतकर किसी अन्य को वहां नियुक्त कर भी देते, तो मुगल सेना का आक्रमण अवश्य होता और दुर्ग को घेरने में मुगल सेना को अधिक कठिनाई नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर मुगल अजमेर से अधिक फौज भी द्रुत गति से मंगवा सकते थे।
अब बात आती है चित्तौड़गढ़ दुर्ग की। ये वही दुर्ग है, जहां मेवाड़ के शासकों ने सदियों तक राज किया। स्वयं महाराणा प्रताप ने इस दुर्ग में 1552 से 1567 तक के 15 वर्ष बिताए थे। इस दुर्ग से उनकी जो भावनाएं जुड़ी थीं, उसे शब्दों में बयां करना सम्भव नहीं।
अकबर ने 1567 में जब चित्तौड़गढ़ पर हमला किया था, तब 80 हज़ार की फ़ौज लाया था, तब कहीं जाकर इस किले को घेरा जा सका और उसके बावजूद भी उसे 4 महीने लग गए इसे जीतने में। महाराणा प्रताप के पास इतनी सेना नहीं थी कि वे इस दुर्ग को घेर सकें और ना ही ऐसी तोपें जो इस किले की दीवारों को तोड़ सके।
महाराणा प्रताप के हृदय में अंत तक यह बात अवश्य ही शूल की तरह चुभी होगी कि वे चित्तौड़गढ़ दुर्ग को मुगलों से नहीं जीत सके। कर्नल जेम्स टॉड ने ठीक ही लिखा है कि “जो घाटी उदयपुर की रक्षा करती है, उसकी चोटी से प्रताप चित्तौड़ के उन कंगूरों को देखता था, जिनसे उसे सदा अनजान बने रहना था।”
महाराणा प्रताप द्वारा सूरत पर आक्रमण :- महाराणा प्रताप ने गुजरात में सूरत की मुगल छावनियों पर धावा बोला और वहां के मुगल सूबेदार से लड़ाई की। महाराणा प्रताप के साथ कुंवर अमरसिंह, भाई शक्तिसिंह व शक्तिसिंह जी के कुछ पुत्र, सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत, कोठारिया रावत पृथ्वीराज चौहान वगैरह बहुत से सर्दार थे।
मुगल सूबेदार हाथी पर सवार था। महाराणा प्रताप ने भाला फेंका, जिससे सूबेदार तो कत्ल हुआ, पर भाला हाथी के शरीर में घुस गया, जो खींचने पर भी नहीं निकला। तभी कोठारिया के रावत पृथ्वीराज चौहान ने महाराणा का भाला निकाल दिया, इस घटना से प्रसन्न होकर महाराणा प्रताप ने कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया। इसके बाद हर विजयादशमी को महाराणा द्वारा कोठारिया रावत को जड़ाऊ सिरपाव दिया गया।
इस घटना को बांकीदास री ख्यात में कुछ इस तरह लिखा गया है :- “सहर सूरत में राणो प्रताप गोसरे हियो विखा में उमरावा कुवरा समेत सूरत रा सूबेदार नू मार घोड़ा चलाया राणा री हाथ री बरछी सू सूबेदार रा अग रही कोठारिया रै राव जायनै आणी ऊ दिन दसरावा रो गहणा समेत सिरपाव राणोजी कोठारिया रा धणी नू दियो। जिणसू हर दसरावै राणोजी दसरावा रो सिरपाव गहणा समेत कोठारिया रा राव नू वगसै”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)