वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 89)

1589 ई. में आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा का देहांत हुआ। राजा मानसिंह आमेर की गद्दी पर बैठे। इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन का देहान्त हुआ। अबुल फजल ने तानसेन के बारे में लिखा है कि “उस जैसा गवैया एक हजार सालों में भी नहीं हुआ”।

इसी वर्ष अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल का देहांत हुआ। राजा टोडरमल ने अपने जीवन में एक बार महाराणा प्रताप से भेंट की थी, जब वे अकबर के दूत बनकर महाराणा को सन्धि हेतु मनाने मेवाड़ आए। राजा टोडरमल का नाम इतिहास में भूमि सुधार कार्यों के लिए हुआ।

इन्हीं दिनों में महाराणा प्रताप के साथ कदम कदम पर चलने वालीं उनकी अर्धांगिनी महारानी अजबदे बाई जी पंवार का चावंड में देहांत हो गया। वे भी उस महान संघर्ष की साक्षी बनीं।

1591 ई. में महाराणा प्रताप के सहयोगी भामाशाह जी के भाई ताराचन्द कावड़िया का देहान्त हो गया। महाराणा प्रताप ने ताराचंद को सादड़ी का हाकिम बनाया था। ताराचन्द ने सादड़ी के बाहर एक बारादरी और बावड़ी बनवाई थी, उसके पास ही ताराचन्द, उनकी 4 पत्नियाँ, 1 खवास, 6 गायनियाँ, 1 गवैया और उस गवैये की पत्नी की मूर्तियाँ पत्थरों पर खुदी हुई हैं।

1592 ई. में राजा मानसिंह कछवाहा ने निसार खां को परास्त करके उड़ीसा को मुगल सल्तनत की सीमाओं के अंदर लाने का कार्य किया। इसी वर्ष अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र खुर्रम का जन्म हुआ, जो बाद में शाहजहां के नाम से मशहूर हुआ। 1593 ई. में अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने जानी बेग को परास्त करके सिंध पर मुगल सल्तनत का झंडा फहरा दिया। इस तरह बड़े-बड़े प्रान्त महज़ 1-2 वर्षों में फतह होने लगे, परन्तु मेवाड़ स्वाधीन बना रहा।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

राजनगर का युद्ध :- दलेल खां नाम के एक मुगल सिपहसालार ने फौज समेत मेवाड़ पर चढाई की। महाराणा प्रताप ने बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को फौज समेत लड़ने भेजा। मनमनदास जी की उम्र इस समय 34 वर्ष की थी।

कुंवर मनमनदास वीर जयमल राठौड़ के पौत्र व ठाकुर मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे। राजनगर के पास दोनों फौजों के बीच लड़ाई हुई। दलेल खां हाथी पर सवार था व कुंवर मनमनदास चन्द्रभाण नाम के घोड़े पर सवार थे।

कुंवर मनमनदास ने भाला फेंका, जिससे दलेल खां हाथी से गिरकर मर गया। मुगल फौज के पांव उखड़ गए और कुंवर मनमनदास विजयी होकर महाराणा प्रताप के समक्ष प्रस्तुत हुए, तो महाराणा ने कहा कि “अब से तुम्हारा नक्कारा हमेशा मेवाड़ की हरावल में बजा करेगा”।

कनेचण का युद्ध :- दलेल खां की मौत का बदला लेने के लिए उसके भाई दिलावर खां ने मेवाड़ पर चढाई की। इस बार महाराणा प्रताप ने कुंवर मनमनदास राठौड़ के पुत्रों भंवर दलपति सिंह व भंवर परशुराम को फौज समेत भेजा।

कनेचण नामक स्थान पर लड़ाई हुई, जिसमें ये दोनों भाई वीरगति को प्राप्त हुए। ऐसा कहा जाता है कि दोनों के सिर कट जाने के बाद इनके घोड़े इनके धड़ को लेकर दलपति सिंह के ससुराल शाहपुरा के समीप तसवारिया नाम के गांव में पहुंचे, जहां इनका अन्तिम संस्कार हुआ।

दलपति सिंह की सौलंकिनी रानी उनके साथ सती हुई। दलपति सिंह के वंशज सलूम्बर के छरल्या गांव में हैं। परशुराम जी अविवाहित थे। दोनों भाईयों की छतरियां तसवारिया गांव में अब तक मौजूद हैं। महाराणा प्रताप ने मनमनदास जी के एक पुत्र देवीदास जी को कनेचण की जागीर प्रदान की।

राजनगर व कनेचण के युद्धों में लड़ने वाले मुगल सेनापतियों को अकबर ने मेवाड़ नहीं भेजा था। दलेल खां द्वारा किए गए आक्रमण का उद्देश्य सम्भवतया उसका निजी द्वैष रहा होगा और कनेचण का युद्ध राजनगर के युद्ध के परिणाम की प्रतिक्रिया थी।

1594 ई. – डाईलाणा का ताम्रपत्र :- यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप द्वारा आश्विन शुक्ल 15 संवत् 1651 को जारी गया। इस ताम्रपत्र में गोडवाड क्षेत्र के डाईलाणा गांव में रोहीतास चौधरी को 4 खेत व 1 रहट प्रदान करने का आदेश है। ताम्रपत्र में इस भूमि का भूमिकर साढ़े 4 कलसी लिखा हुआ है। ‘कलसी’ शब्द नाप के पात्र के लिए प्रयोग हुआ है।

महाराज शक्तिसिंह का देहान्त :- 1594 ई. में भैंसरोडगढ़ दुर्ग में महाराणा प्रताप की मौजूदगी में उनके भाई शक्तिसिंह जी का देहान्त हो गया। इनकी 8 खंभों की छतरी भैंसरोडगढ़ में मौजूद है। शक्तिसिंह जी के संभवत: 17 पुत्र हुए, ये सभी बड़े बहादुर थे।

महाराज शक्तिसिंह जी की छतरी

इनके दो पुत्रों अचलदास जी व बल्लु जी से अकबर के शाही दरबार में आगरा के किलेदार रामदास कछवाहा ने कहा कि अपनी-अपनी तलवारें शहंशाह के सामने डालो, तो दोनों ने बिना किसी खौफ के तलवार डालने से मना कर दिया। महाराणा प्रताप को जब इस घटना कि सूचना मिली, तो उन्होंने अचलदास जी को अपने पास बुलाकर देसूरी का पट्टा दे दिया। महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र भाण जी को भीण्डर की जागीर दी।

राव पत्ता हाडा का दमन :- खैराड़ नामक स्थान का राव पत्ता हाडा महाराणा प्रताप का आदर नहीं करता था। एक बार वह अपने भाई उदयसिंह के साथ शक्तावतों की गायें खोलने गया, जिन्हें छुड़ाने में शक्तिसिंह जी के पुत्र चतुर्भुज वीरगति को प्राप्त हुए।

महाराणा प्रताप ने शक्तिसिंह जी के पुत्र अचलदास जी को भेजा। अचलदास जी अपने 4 भाईयों के साथ गए और पानगढ़ दुर्ग को घेर लिया, पर राव पत्ता बच निकला। कुछ समय बाद फिर इनका आमना-सामना हुआ और राव पत्ता मारा गया।

1595 ई. में सलूम्बर रावत कृष्णदास चुण्डावत का देहान्त हुआ। महाराणा प्रताप के सभी सामन्तों में से इनका साथ लंबे समय तक रहा। ये महाराणा के करीबी सामन्त रहे। इनकी 9 रानियाँ व 10 पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र जैतसिंह चुण्डावत सलूम्बर के 8वें रावत साहब बने।

1596 ई. में ईडर के शासक वीरमदेव राठौड़ की आमेर के महलों में हत्या कर दी गई। महाराणा प्रताप की एक रानी वीरमदेव की बहिन थीं। वीरमदेव की कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए इनका भाई कल्याणमल ईडर का शासक बना। कल्याणमल ने मेवाड़ से बगावत की।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

error: Content is protected !!