वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 87)

1586 ई. – बांसवाड़ा के उत्तराधिकार संघर्ष में महाराणा प्रताप द्वारा उग्रसेन का व अकबर द्वारा मानसिंह चौहान का पक्ष लेना :- 1583 ई. में महाराणा प्रताप ने कूटनीति से ठाकुर मानसिंह से बांसवाड़े का आधा राज्य लेकर वास्तविक उत्तराधिकारी उग्रसेन को दिलवाया था, परन्तु आधा राज्य अब भी मानसिंह के हाथ में था जो कि बांसवाड़ा पर कब्ज़ा जमाए हुए था।

महाराणा प्रताप ने डूंगरपुर रावल साहसमल के साथ मिलकर उग्रसेन को 1500 घुड़सवारों की फौजी मदद देकर मानसिंह पर हमला करने भेजा। मानसिंह की फौज बुरी तरह पराजित हुई और खुद मानसिंह बांसवाड़ा के महलों की खिड़की से निकलकर भाग गया।

उग्रसेन के हमले से मानसिंह का सामन्त चावंडा भोजा सामरोत मारा गया व बांसवाड़ा पर उग्रसेन का अधिकार हुआ। उग्रसेन महाराणा प्रताप के सामन्त थे, इसलिए बांसवाड़ा पर महाराणा प्रताप का वर्चस्व बना रहा। अब मानसिंह ने मुगल बादशाह अकबर की शरण ली। अकबर जानता था कि अप्रत्यक्ष रुप से महाराणा प्रताप इस घटना से जुड़ चुके हैं, इसलिए उसने मानसिंह और मुगल सेनापति मिर्जा शाहरुख को मुगल फौज के साथ बांसवाड़ा पर कब्जा करने भेजा।

महाराणा प्रताप को पता चला, तो उन्होंने उग्रसेन व रावल साहसमल के साथ मिलकर बादशाही मुल्क लूटना शुरु कर दिया। महाराणा मालवा की मुगल छावनियाँ लूटकर मेवाड़ पधारे। मिर्जा शाहरुख व मानसिंह चौहान मालवा पहुंचे, जहां उग्रसेन नहीं मिले। फिर मुगल फौज बांसवाड़े की तरफ रवाना हुई।

महाराणा प्रताप ने उग्रसेन को फौजी मदद देकर मिर्जा की फौज से लड़ने भेजा। भीलवण नामक स्थान पर उग्रसेन व मानसिंह के बीच लड़ाई हुई, जिसमें मानसिंह व मुगल फौज पराजित हुई। इस लड़ाई में दोनों तरफ से कुल 400 सैनिक मारे गए। कुछ समय बाद उग्रसेन ने गांगा गौड़ को मानसिंह के डेरे में भेजा, जहां गांगा गौड़ ने ठाकुर मानसिंह को मार दिया। मानसिंह की मृत्यु के साथ ही बांसवाड़ा का ये संघर्ष समाप्त हो गया।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

1586 ई. में अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल का देहान्त हुआ। बीरबल एक घाटी में फंसकर अफगानों द्वारा मारा गया। इस लड़ाई में 8000 मुगल सैनिक मारे गए। बीरबल ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध किसी भी सैन्य अभियान में भाग नहीं लिया, परन्तु अकबर के मेवाड़ अभियान के दौरान कब अकबर ने बांसवाड़ा में शिविर स्थापित किया, तो वहां बीरबल भी मौजूद था। इसी वर्ष अकबर ने कश्मीर पर फतह पाई। 1587 ई. में अकबर के पौत्र व जहांगीर के पुत्र खुसरो का जन्म हुआ।

सितम्बर, 1588 ई. – बांधण का ताम्रपत्र :- यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप द्वारा जारी व भामाशाह कावडिया द्वारा लिखित है। आश्विन कृष्णा 7 संवत् 1645 को यह ताम्रपत्र प्रदान किया गया। ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा प्रताप ने आयस आणंदनाथ को सीदरी के गांव बांधण में 4 हल भूमि प्रदान की।

24 अक्टूबर, 1588 ई. – महाराणा प्रताप की जहांजपुर विजय :- महाराणा प्रताप ने जहांजपुर पर आक्रमण किया व विजयी हुए। जहांजपुर में महाराणा के भाई जगमाल के वंशज रहा करते थे। साथ ही यहां मुगल चौकी भी थी, जो महाराणा द्वारा हटा दी गई।

पडेर का ताम्रपत्र :- यह ताम्रपत्र जहांजपुर विजय के उपलक्ष्य में महाराणा प्रताप द्वारा जारी व भामाशाह कावडिया द्वारा लिखित है। यह ताम्रपत्र कार्तिक शुक्ला 15 संवत् 1645 को प्रदान किया गया। महाराणा प्रताप ने जहांजपुर परगने के पडेर गांव में 11 हल भूमि तिवाड़ी ब्राह्मण सादुलनाथ, कानागोपाल को प्रदान की। उस समय एक हल भूमि लगभग तीन बीघा के बराबर होती थी। यह गांव पहले महाराणा उदयसिंह जी द्वारा दान किया गया था, लेकिन इस जगह का पुनर्नवीकरण महाराणा प्रताप के समय हुआ।

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप व शत्रुसाल झाला में अनबन :- महाराणा प्रताप के बहनोई देलवाड़ा के मानसिंह झाला के पुत्र शत्रुसाल उग्र स्वभाव के थे और एक भोजन समारोह में उनकी अपने मामा महाराणा प्रताप से तकरार हो गई। शत्रुसाल उठ कर जाने लगे कि तभी महाराणा ने उनके अंगरखे का दामन पकड़कर रोकना चाहा।

शत्रुसाल ने क्रोध में आकर पेशकब्ज़ से अपने अंगरखे का दामन काट डाला। शत्रुसाल ने महाराणा से कहा कि “आज के बाद मैं सिसोदियों के यहां नौकरी न करुंगा”। महाराणा प्रताप ने भी कहा कि “आज के बाद मैं भी शत्रुसाल नाम के किसी बन्दे को अपने राज में न रखूंगा”

बहन का बेटा होने की खातिर महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल को क्षमा किया। लेकिन महाराणा प्रताप ने शत्रुसाल झाला की देलवाड़ा की जागीर बदनोर के कुंवर मनमनदास राठौड़ को दे दी। मनमनदास राठौड़ जयमल राठौड़ के पौत्र व मुकुन्ददास राठौड़ के पुत्र थे। महाराणा प्रताप ने ये जागीर मनमनदास राठौड़ को उनके पिता के जीवित रहते दी थी।

शत्रुसाल झाला महाराणा प्रताप के जीते-जी कभी मेवाड़ नहीं आये, परन्तु महाराणा अमरसिंह के समय जब मेवाड़ संकट में था और जहांगीर की फ़ौजों ने मेवाड़ को हर ओर से घेर रखा था, तब शत्रुसाल झाला ने मेवाड़ आकर अद्वितीय बलिदान दिया, जिसका विस्तृत वर्णन महाराणा अमरसिंह के इतिहास की सीरीज में किया जाएगा।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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