1584 ई. से 1585 ई. के मध्य की घटनाएं – महाराणा प्रताप द्वारा गद्दारों को सज़ा देना :- मुगल सेना जगन्नाथ कछवाहा के नेतृत्व में मेवाड़ में जगह-जगह महाराणा के सैनिकों से भिड़ रही थी। मुगल सेना अक्सर रसद की तलाश में रहती थी, क्योंकि महाराणा प्रताप ने समतल भूमि पर खेती करने पर पाबंदी लगा रखी थी।
महाराणा प्रताप ने मेवाड़ में आदेश जारी करवाया था कि “जो कोई भी एक बिस्वा ज़मीन भी जिराअत (खेती) करके मुगल फौज को हासिल देगा, उसका सर कलम कर दिया जावेगा।” महाराणा प्रताप के इस आदेश के उपरांत भी 1-2 लोगों ने गद्दारी कर दी। चंद मुद्राओं की ख़ातिर मातृभूमि का सौदा करने वाले इन विश्वासघातियों को सज़ा देना अति आवश्यक था।
ऊंठाळे की शाही फौज के थानेदार ने वहां के एक विश्वासघाती से किसी खास किस्म की तर्कारी बुवाई और बदले में धन का लालच दिया। महाराणा प्रताप को जब इस घटना की सूचना मिली, तो उनके क्रोध की कोई सीमा न रही, क्योंकि मुगल सेना को रसद मिलने पर मेवाड़ में पैर जमाने का अवसर मिल गया, जिससे अब वे मेवाड़ में और अधिक विध्वंस करने लगे।
कविराज श्यामलदास लिखते हैं कि “महाराणा प्रताप ने रात के वक्त शाही फौज के बीच में जाकर उस गद्दार का सिर काट दिया। फौजी आदमियों के हमला करने पर महाराणा प्रताप उनसे लड़ते-भिड़ते पहाड़ियों में चले गए।”
इसी तरह की एक और घटना में मुगल फौज को फसल उगा कर देने वाले एक विश्वासघाती को महाराणा प्रताप के सामने हाजिर किया गया। महाराणा प्रताप ने मामले की जांच की और उसको दोषी पाया। महाराणा ने उस गद्दार को मृत्युदण्ड दिया व उसके शव को पेड़ पर लटका दिया गया। इन सख्त फैसलों के बाद महाराणा प्रताप के आदेशों का उल्लंघन नहीं हुआ और ना ही मुगलों को मेवाड़ में पैर जमाने का अवसर मिला।
महाराणा प्रताप की चावंड विजय :- महाराणा प्रताप ने चावण्ड में छप्पन के राठौड़ों के विद्रोह को दबाया व उनके सरदार लूणा चावण्डिया राठौड़ को पराजित किया। इस कार्य में रावत कृष्णदास चुण्डावत ने भी महाराणा का साथ दिया।
अन्य राठौड़ जमींदार, जिन्होंने मेवाड़ में रहते हुए भी महाराणा प्रताप की अधीनता स्वीकार न की, उनका भी दमन किया गया। इस तरह महाराणा प्रताप ने छप्पन क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। महाराणा प्रताप ने चावंड को अपना निवास स्थान बनाया।
17 सितम्बर, 1585 ई. को जगन्नाथ कछवाहा ने महाराणा प्रताप के निवास स्थान चावण्ड पर हमला किया व चावण्ड को लूट लिया, पर महाराणा प्रताप बच निकले। महाराणा प्रताप अपने परिवार समेत चावण्ड से रवाना हुए और कुछ दिनों का सफर तय करके मांडलगढ़ की तरफ पधारे।
मांडलगढ़ में तैनात सैयद राजू को जब इस बात की सूचना मिली, तो वह महाराणा प्रताप का सामना करने के लिए फौज समेत रवाना हुआ। महाराणा प्रताप को पता चला, तो उन्होंने मांडलगढ़ जाना रद्द कर दिया और चित्तौड़गढ़ की तरफ निकल गए।
महाराणा प्रताप की चित्तौड़ में कार्यवाही :- महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ की पहाड़ियों में प्रवेश किया। शाही फौज ने चित्तौड़ की पहाड़ियों में प्रवेश नहीं किया, हालांकि वे जानते थे कि महाराणा प्रताप चित्तौड़ में ही हैं। शाही फौज ने महाराणा के बाहर निकलने तक इन्तजार किया।
चित्तौड़ पर इस वक्त मुगलों का अधिकार था और अकबर ने 1568 ई. में चित्तौड़ का नाम ‘अकबराबाद’ कर दिया था। फिर भी महाराणा प्रताप ने वहां आम लोगों में एक हुक्म जारी करवा दिया कि “कोई भी चित्तौड़गढ़ को अकबराबाद के नाम से पुकारने का साहस न करे”
चित्तौड़ की प्रजा ने भी अकबराबाद नाम स्वीकार नहीं किया। कुछ समय बाद चित्तौड़ की पहाड़ियों से निकलकर महाराणा प्रताप ने एक शाही थाने पर हमला कर दिया, जिससे सैयद राजू और जगन्नाथ कछवाहा की फौज का ध्यान फिर से महाराणा की तरफ गया।
8 अक्टूबर, 1585 ई. को हुई घटना के बारे में अबुल फजल लिखता है कि “जगन्नाथ कछवाहा ने एक दफ़ा फिर राणा के डेरे पर हमला किया, पर राणा बच निकला। शाही फौज राणा के गुजरात जाने की अफवाह सुनते ही गुजरात के लिए निकली। बीच रास्ते में उन्हें खबर मिली की राणा ने डूंगरपुर के रावल साहसमल के साथ मिलकर बगावत कर दी। शाही फौज डूंगरपुर पहुंची, जहां राणा तो नहीं मिला, पर गद्दारी के एवज़ में साहसमल से भारी जुर्माना वसूला गया।”
महाराणा प्रताप ने गोडवाड़ में प्रवेश किया। जगन्नाथ कछवाहा को रास्ते में जो भी मिलता, उससे वे महाराणा प्रताप के बारे में जरुर पूछते। आखिरकार 2 वर्षों की नाकामयाबी से थक-हारकर जगन्नाथ कछवाहा मेवाड़ में कईं थाने मुकर्रर कर कश्मीर अभियान में चले गए।
इस प्रकार जगन्नाथ कछवाहा की असफलता के बाद अकबर को मेवाड़ पर विजय प्राप्त करना अपनी क्षमता से कहीं अधिक कठिन कार्य लगने लगा। अकबर ने एक के बाद एक सैन्य अभियान भेजे, परन्तु वह मुख्य उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। उधर, महाराणा प्रताप के सामने चुनौती थी मेवाड़ में तैनात मुगल थानों पर विजय प्राप्त करने की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)