1562-63 ई. – अपने कूटनीतिक प्रयासों की विफलता से अकबर समझ चुका था कि रानी दुर्गावती एक स्वाभिमानी शासिका थीं, इसलिए उसने जान बुझकर रानी को एक पत्र भेजा, जिसमें रानी के प्रिय हाथी सरमन व मंत्री कायस्थ आधारसिंह की मांग की गई।
उस समय कोई भी शासक अन्य शासक पर सीधा हमला नहीं कर सकता था, क्योंकि इससे जनता व उच्च पदाधिकारियों में अपनी छवि खराब होने की संभावना रहती थी। हमले के लिए किसी न किसी कारण का होना जरूरी था, चाहे कारण छोटा ही क्यों न हो। रानी दुर्गावती ने अकबर की मांग ठुकरा दी, जिससे अकबर को गोंडवाना पर हमला करने का बहाना मिल गया।
1563 ई. – गोंडवाना के सम्बन्ध रतनपुर राज्य से ठीक नहीं थे, इसलिए रतनपुर के राजा कल्याण सहाय ने आगरा जाकर रानी दुर्गावती के खिलाफ़ अकबर के कान भरे।
1564 ई. – अबुल फज़ल लिखता है कि “गढ़ कटंगा पर दुर्गावती नाम की एक रानी का राज है, जो अपनी बहादुरी, अक्लमंदी और दरियादिली के लिए मशहूर है। बहुत सी काबिलियत की वजह से सत्तर हज़ार गांवों जितने बड़े इलाके में रानी का बोलबाला है। रानी दुर्गावती बन्दूक और तीर से अपने अचूक निशाने के लिए भी मशहूर है।”
अबुल फ़ज़ल आगे लिखता है कि “रानी को जहां कहीं शेर के होने की पुख्ता ख़बर मिल जाती है, तो वो जब तक उसे अपने तेज तर्रार निशाने से मार ना दे, तब तक पानी का एक घूंट नहीं पीती। अक्सर लड़ाइयों वगैरह में दिखाई गई उसकी बहादुरी हिंदुस्तान भर में मशहूर है। पर उसने एक गलती कर दी, उसने अपने चापलूसों की भीड़ और खुद की काबिलियत पर घमंड करते हुए शहंशाह के हुज़ूर में ना आने की गुस्ताखी कर दी।”
मुगल बादशाह अकबर के सिपहसालार आसफ खां ने गढ़ कटंगा के पास स्थित पन्ना का दुर्ग जीत लिया और रानी दुर्गावती के इलाके में अपने कुछ अक्लमंद व्यापारी भेजे, जिनको रानी के ख़ज़ाने व आय-व्यय वगैरह का पता लगाने का जिम्मा सौंपा था। जब आसफ खां को गोंडवाना की अथाह धन संपदा का पता चला, तो उसने बादशाह की इजाजत लेकर गोंडवाना पर विजय पाने का इरादा किया। रानी दुर्गावती अक्सर मंडला में पड़ाव डाला करती थीं।
23 जून, 1564 ई. – नराई नाले का युद्ध :- अकबर ने आसफ खां को 10,000 घुड़सवारों व हज़ारों की पैदल फौज के साथ नीचे लिखे सिपहसालारों समेत भेजा :- मुईद अली खां, मुहम्मद मुराद खां, वज़ीर खां, बाबाई काकशाल, नगेजर बहादुर, आक मुहम्मद आदि।
रानी दुर्गावती की कुल फौज में 20,000 घुड़सवार व 1,500 हाथी थे, लेकिन ये फौज रानी दुर्गावती ने अपने इलाके में दूर-दूर तक फैला रखी थी, इसलिए जिस समय बादशाही फौज अचानक गोंडवाना में प्रवेश कर गई, उस समय रानी के साथ महज़ 500 सैनिक थे।
अबुल फज़ल लिखता है “रानी के सेनापति आधारसिंह ने उससे कहा कि मुगल फौज से जीतना मुश्किल लग रहा है, इस खातिर बादशाही मातहती कुबूल कर लीजिए। इसके जवाब में रानी ने गरजकर कहा कि बदनामी भरी ज़िंदगी से तो इज्जत की मौत बेहतर है।”
अबुल फज़ल आगे लिखता है कि “अचानक बादशाही फौज की चढ़ाई के चलते रानी के पास 500 राजपूत ही थे, पर रानी दुर्गावती बादशाही फौज की सोच से चार कदम आगे थी। उसने फौरन ख़बर भिजवाकर जल्दबाज़ी में जैसे-तैसे 2000 राजपूत और कबीले के लोग इकट्ठे किए और बहादुरी से लड़ने के लिए उतारू हुई, पर उसके खैरख्वाहों ने उसे जल्दबाज़ी करने से रोका।”
अपने सामंतों की सलाह मानकर रानी दुर्गावती ने तुरंत हमला न करके तैयारी के साथ हमला करना उचित समझा। रानी दुर्गावती अपनी फौज समेत अपने राज्य की पश्चिमी पहाड़ियों में गईं और उत्तरी पहाड़ियों से बाहर निकलीं।
रानी ने अपना पड़ाव अपने राज्य के पूर्वी भाग में स्थित नराई में डाला। नराई एक ऐसा मुश्किल स्थान था, जहां पहुंचना और वहां से बाहर निकलना मुगलों के लिए मुश्किल था। नराई चारों तरफ से ऊंची पहाड़ियों के बीच में स्थित था, जहां एक तरफ गौर नाम की एक नदी बह रही थी व दूसरी तरफ नर्मदा।
आसफ खां ने दमोह में पड़ाव डाला और रानी का पता लगाने के लिए फौजी टुकड़ियां भेजी, लेकिन रानी का कोई पता नहीं चल पाया। आसफ खां ने गढ़ कटंगा की बस्तियों को जलाना व लूटमार करना शुरू किया, जिससे रानी का पता लगाने में वो कामयाब रहा।
आसफ खां ने खुद ना जाकर अपनी आधी से ज्यादा फौज नायर बहादुर और अक मुहम्मद के नेतृत्व में भेज दी व खुद तोपों के साथ बाद में रवाना हुआ। रानी दुर्गावती के पास इस समय तक 5000 की सेना इकट्ठी हो चुकी थी, जिनमें बैस, बाघेला राजपूत, कुछ चुनिंदा राजपूत वीरांगनाएँ, गौड़ व कबीले के आदिवासी सैनिक थे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)