17 अक्टूबर, 1583 ई. – दत्ताणी का युद्ध :- ये युद्ध अकबर की फौज व सिरोही के राव सुरताण देवड़ा के मध्य हुआ। इस युद्ध का वर्णन महाराणा प्रताप के इतिहास में इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि राव सुरताण महाराणा प्रताप के मित्र व सहयोगी थे व इसके अतिरिक्त इस युद्ध में मुगल फौज का नेतृत्व महाराणा के भाई जगमाल ने किया था, इसलिए दत्ताणी के युद्ध का वर्णन यहां करना आवश्यक है। इस युद्ध का विस्तृत वर्णन सिरोही के इतिहास की सीरीज में ही किया जाएगा, यहां केवल आवश्यक जानकारी दी जा रही है।
जगमाल सिसोदिया की पत्नी सिरोही के राव मानसिंह की पुत्री थी, जिस वजह से उसने अपने पति जगमाल से कहा कि मेरे पिता के देहान्त के बाद सुरताण कौन होता है सिरोही पर राज करने वाला, वहां तो हमारा हक ज्यादा होता है।
एक दिन राव सुरताण की अनुपस्थिति में जगमाल ने बीजा देवड़ा के साथ मिलकर सिरोही पर हमला किया, लेकिन सिरोही के सामन्तों से पराजित होकर ये पीछे लौट गए। जगमाल अकबर से मदद मांगने गया, तो अकबर ने शाही फौज इन तीन सेनापतियों के नेतृत्व में सिरोही भेजी :- १) मेवाड़ के जगमाल सिसोदिया २) दांतीवाड़ा के कोली सिंह ३) मारवाड़ के रायसिंह राठौड़, जो कि राव चन्द्रसेन के तीसरे पुत्र थे।
जगमाल ने इस फौजी मदद से सिरोही पर चढाई की। राव सुरताण अपने परिवार व फौज सहित सिरोही के महल छोड़कर आबू स्थित अचलगढ़ दुर्ग में चले गए। जगमाल ने सिरोही जीतकर अचलगढ़ पर चढाई की। राव सुरताण ने दुर्ग से निकलकर दत्ताणी नामक स्थान पर अपनी कुल फौज जमा की।
दत्ताणी के युद्ध में राव सुरताण के नेतृत्व में सिरोही की फौज के हाथों अकबर के तीनों सेनापति जगमाल, रायसिंह व कोली सिंह मारे गए। जगमाल सिसोदिया के पीछे उसकी 6 पत्नियाँ सती हुईं। राव सुरताण देवड़ा ने दत्ताणी के युद्ध में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की।
यह युद्ध सिरोही के इतिहास के सबसे प्रसिद्ध युद्धों में से एक है। इसके बाद एक कहावत चल पड़ी कि नाथ उदयपुर न नम्यो, नम्यो न अर्बुद नाथ अर्थात् ना तो उदयपुर के महाराणा प्रताप ने पराजय स्वीकार की और ना ही सिरोही के राव सुरताण ने।
अबुल फजल ने मुगल फौज की नाकामयाबी को छुपाते हुए इस युद्ध का वर्णन ना करते हुए सिर्फ इतना लिखा कि “जगमाल और रायसिंह सिरोही के महलों में सो रहे थे कि तभी राव सुरताण देवड़ा ने धोखे से इनको मार दिया”
सागरसिंह का मुगल सेवा में जाना :- इस घटना का समय इतिहास में नहीं लिखा गया, लेकिन ये घटनाएँ 1583 ई. से 1590 ई. के बीच की मालूम होती हैं। सागरसिंह का जन्म 1556 ई. में हुआ था। ये महाराणा उदयसिंह व रानी धीरबाई भटियाणी का पुत्र व जगमाल का छोटा भाई था।
मेवाड़ के लिए जगमाल से ज्यादा सागरसिंह संकट का कारण बना। महाराणा प्रताप ने जगमाल की मृत्यु पर ज्यादा शोक न किया और कुंवर अमरसिंह की पुत्री केसर कुमारी का विवाह सिरोही के राव सुरताण से तय कर दिया। इस बात से सागरसिंह नाराज हो गया। उसने महाराणा से कहा कि जिसने मेरे भाई की हत्या की, उसके साथ आप रिश्तेदारी कैसे निभा सकते हैं ?
महाराणा प्रताप ने कहा कि “कुल सिसोदिये हमारे भाई हैं, जिनमें से हर रोज कोई न कोई मरते हैं, हम किस-किस का बैर लेते फिरें। हमारे लिए सब राजपूत बराबर हैं।” सागरसिंह ने उठकर महाराणा प्रताप को प्रणाम किया और कहा कि “हमको जाने की आज्ञा हो।”
तब महाराणा ने कहा कि “बेशक चले जाओ, तुम्हारे जाने से हमारा कुछ हर्ज नहीं, लेकिन इस तर्ज पर जाना जब ही समझा जावे कि आप अपने पराक्रम से नामवारी हासिल करें, वरना जाहिर है कि हमारे घराने के नाम से दिल्ली जाकर मुसलमानों की नौकरी करके पेट भरोगे।”
सागरसिंह वहां से निकला और आमेर के राजा मानसिंह के यहां अपनी पहचान छिपाकर मामूली नौकर की हैसियत से नौकरी करने लगा। एक दिन राजा मानसिंह अपनी भटियाणी रानी के साथ विश्राम कर रहे थे। बारिश हो रही थी और पर्नालों का पानी नीचे पत्थरों पर गिरने से आवाज हो रही थी, जो राजा मानसिंह के विश्राम में बाधा बन रही थी।
सागरसिंह ने अपनी सूझबूझ से नीचे घास बिछाकर ये आवाज रोक दी, तब राजा मानसिंह ने बाहर आकर देखा और सागरसिंह को देखकर सोचा कि ये जरुर कोई खास व्यक्ति है। राजा मानसिंह ने खुद नीचे आकर देखा तो पता चला कि ये मेवाड़ का राजकुमार है।
(सागरसिंह व संग्रामसिंह नामों में कुछ समानता होने के कारण बाद के कुछ इतिहास लेखकों ने सागरसिंह के स्थान पर मेवाड़ के महाराणा सांगा व राजा मानसिंह के स्थान पर आमेर के राजा पृथ्वीराज कछवाहा से इस घटना को जोड़ दिया, जो कि अनुचित है)
राजा मानसिंह कुछ समय बाद सागरसिंह को अकबर के यहां ले गए। अकबर ने सागरसिंह को शुरुआत में महज़ 200 सवार का मनसब दिया, पर कुछ वर्षों बाद इसे बढ़ाकर 3000 जात व 2000 सवार कर दिया व कंधार की जागीर भी दे दी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)