महाराणा प्रताप के इतिहास का भाग 80

अक्टूबर, 1582 ई. :- विजयादशमी के दिन दिवेर के भीषण युद्ध में मेवाड़ी सेना मुगल सेना पर हावी हो गई और जब कुँवर अमरसिंह दिवेर थाने के मुख़्तार सुल्तान खां के सामने आए, तो मुगलों व राजपूतों, सबकी नज़रें उन पर ठहर गईं। कुंवर अमरसिंह ने सुल्तान खां पर भाले से भीषण प्रहार किया।

भाला इतने तेज वेग से मारा था कि सुल्तान खां के कवच, छाती व घोड़े को भेदते हुए जमीन में घुस गया और वहीं फँस गया। यह दृश्य देखकर मुगल सेना भयभीत होकर भागने लगी। टोप उड्यो बख्तर उड्यो, सुल्तान खां रे जद भालो मारियो। राणो अमर यूं लड्यो दिवेर में, ज्यूं भीम लड्यो महाभारत में।।

महाराणा द्वारा सुल्तान खां को जल पिलाकर मानवीयता का परिचय देना :- सुल्तान खां मरने ही वाला था कि तभी वहां महाराणा प्रताप आ पहुंचे। सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह को देखने की इच्छा महाराणा के सामने रखी, तो महाराणा ने किसी और राजपूत को बुलाकर सुल्तान खां से कहा कि यही अमरसिंह है।

सुल्तान खां ने कहा कि नहीं ये अमरसिंह नहीं है, उसी को बुलाओ। तब महाराणा ने कुंवर अमरसिंह को बुलाया। सुल्तान खां ने कुंवर अमरसिंह के वार की सराहना की। महाराणा ने सुल्तान खां को तकलीफ में देखकर कुंवर अमरसिंह से कहा कि ये भाला सुल्तान खां के जिस्म से निकाल लो।

कुंवर अमरसिंह ने खींचा पर भाला नहीं निकला, तो महाराणा ने कहा कि पैर रखकर खींचो। तब कुंवर अमरसिंह ने भाला निकाला। सुल्तान खां ने पानी मांगा, तो महाराणा प्रताप ने गंगाजल मंगवाया और अपने हाथों से पिलाया। इस प्रकार सुल्तान खां की मृत्यु के साथ ही दिवेर का युद्ध मेवाड़ी सेना ने जीत लिया।

दिवेर विजय का परिणाम :- सुल्तान खां के मरने की खबर सुनकर कोशीथल वगैरह थानों के मुगल बिना लड़े ही भाग निकले। दिवेर का युद्ध एक निर्णायक युद्ध रहा। विजयादशमी के दिन महाराणा प्रताप ने दिवेर के युद्ध में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की।

दिवेर युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने 15 गाँव व 1000 गायें दान कीं। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने पूंचौली गौरा को प्रधान नियुक्त किया। दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई। दिवेर विजय ने मेवाड़ी सेना में ऐसा उत्साह भर दिया, जिसे काबू में पाना अब मुगल सेना के बस की बात नहीं रह गई थी।

दिवेर के मेवा का मथारा नामक स्थान पर महाराणा प्रताप की दिवेर विजय का भव्य स्मारक बना हुआ है। वर्तमान में यहां एक म्यूजियम भी स्थित है। 10 जनवरी, 2012 को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी ने दिवेर स्थित विजय स्मारक का उद्घाटन किया।

दिवेर विजय की याद में बनवाया गया महाराणा प्रताप का भव्य स्मारक

1583 ई. – कुम्भलगढ़ का युद्ध :- 1578 ई. में मुगल सेनापति शाहबाज़ खां ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार करके किला अब्दुल्ला खां को सौंप दिया था। दिवेर के आगे कुम्भलगढ़ के पहाड़ शुरु होते हैं। इसी घाटी के मुहाने पर दूसरी मुगल चौकी थी, जिसके मुख्तार को महाराणा प्रताप ने अपने हाथों से मारा।

हमीरसर झील पर महाराणा प्रताप का अधिकार :- ये झील महाराणा हम्मीर ने 1330 ई. में बनवाई थी। ये झील कुम्भलगढ़ के समीप स्थित है। इसे हमीरपाल या हमेरपाल झील भी कहते हैं। महाराणा प्रताप ने हमीरसर झील पर तैनात मुगल चौकी हटाकर वहां अधिकार किया।

अब महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर चढ़ाई की। कुम्भलगढ़ दुर्ग में अब्दुल्ला खां अपनी फौज के साथ तैनात था। मुगल फ़ौज दिवेर युद्ध का हाल सुनकर पहले ही घबराई हुई थी, इसलिए मुगल सेना किला छोड़कर लगी। भागते हुए मुगलों पर राजपूतों ने आक्रमण किया।

अब्दुला खां समेत कई मुगल मारे गए व बहुत से भाग निकले। महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर मुगलीय परचम हटा कर मेवाड़ी ध्वज फहराया। दुर्ग 5 वर्षों से मुगलों के अधिकार में था, इसलिए दुर्ग में शुद्धिकरण करवाया गया। जिस महादेव मंदिर के ऊपर बैठकर शाहबाज़ खां ने अजान पढ़ी थी, उस मंदिर में महाराणा प्रताप ने पुनः महादेवजी की पूजा शुरू की।

समूचे राजपूताने में महाराणा की वीरता की प्रशंसा हुई कि जिस कुम्भलगढ़ दुर्ग को फतह करने के लिए मुगल सिपहसालार शाहबाज़ खां को हज़ारों की फौज व भारी तोपखाने के साथ 6 महीने तक घेरा डालना पड़ा, उसी दुर्ग पर महाराणा प्रताप ने बिना तोपखाने व महज तीन-चार हजार की फौज से बिना घेरा डाले एक ही दिन में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

महाराणा प्रताप की दिवेर और कुम्भलगढ़ जैसी बड़ी विजयों पर मुगल लेखकों की कलम मौन रही। इससे ये बात भी सिद्ध होती है कि मुगल लेखक केवल उन्हीं घटनाओं का वर्णन लिखते थे जिनमें या तो उनकी विजय हुई हो या लड़ाई बराबरी पर ख़त्म हुई हो।

महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ में कुछ दिन बिताए और सैन्य शक्ति को पुनः सुदृढ़ किया। दिवेर और कुम्भलगढ़ की विजयों से मुगलों के हथियार आदि भी महाराणा ने ज़ब्त कर लिए थे। महाराणा प्रताप ने इस विजय अभियान को जारी रखा और सेना सहित मांडल की तरफ कूच किया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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