1583 ई. – मांडल का युद्ध :- महाराणा प्रताप ने दिवेर और कुम्भलगढ़ के युद्धों में ऐतिहासिक विजय प्राप्त कर ली थी। मेवाड़ी सेना का उत्साह चरम पर था। महाराणा ने विजय अभियान को जारी रखते हुए सेना सहित मांडल की तरफ कूच किया। मांडल भीलवाड़ा में स्थित है। अक्सर लोग मांडल को मांडलगढ़ समझने की भूल कर बैठते हैं, जबकि ये दोनों ही अलग-अलग हैं।
अकबर ने मांडल के शाही थाने पर राव खंगार कछवाहा व नाथा कछवाहा के नेतृत्व में मुगलों, कछवाहा राजपूतों व अन्य अधीनस्थ राजपूतों को तैनात कर रखा था। पहले इस थाने पर राजा भारमल के बेटे जगन्नाथ कछवाहा को भी तैनात किया गया था, परन्तु वे किसी कारणवश थाना छोड़कर चले गए।
मांडल के शाही थाने के मुख्य नेतृत्वकर्ता राव खंगार कछवाहा थे। ये राजा मानसिंह के काका थे। इन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था। राव खंगार ने महाराणा प्रताप के मित्र राव दूदा हाडा को पराजित किया था। कछवाहों में राव खंगार को एक महान योद्धा का दर्जा मिला है। राव खंगार कछवाहों की खंगारोत शाखा के मूलपुरुष थे।
मांडल के शाही थाने के दूसरे मुख्य मुख़्तार नाथा कछवाहा थे। ये जयपुर के कछवाहों में नाथावतों के मूलपुरुष थे। नाथा कछवाहा चित्तौड़ विध्वंस (1568 ई.) व हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.) में मुगल फौज के साथ थे। नाथावत राजपूतों पर आधारित ग्रंथ नाथावंशप्रकाश में भी इसकी जानकारी मिलती है।
महाराणा प्रताप की सेना ने मांडल के थाने पर आक्रमण कर दिया और पुनः ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। मांडल के मुगल थाने के दोनों मुख़्तार इस लड़ाई में काम आए। मांडल में इनकी छतरियां बनी हुई हैं, जिसमें मुगल पक्ष की तरफ से लड़ते हुए मारे जाने वाले मुख़्तार व मुख्य सिपहसालारों के नाम खुदे हैं।
यहां कुल 8 नाम लिखे हैं, जो बांकीदास री ख्यात में भी पढ़ने को मिलते हैं। ये नाम कुछ इस तरह हैं :- राव खंगार कछवाहा, नाथा कछवाहा, दाद चवाण, मानै हामो, दुरम्यों तंवर, मुगो चवाण, घैड़ चवाण, सुरता।
जयपुर के इतिहास में लिखा है कि “राव खंगार कछवाहा पुर-मांडल के शाही थाने की रक्षा कर रहे थे, कि तभी शत्रु ने पीछे से अचानक आक्रमण कर दिया। राव खंगार बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।”
अकबर के पास जब दिवेर, कुम्भलगढ़ व मांडल पर महाराणा प्रताप की विजय के समाचार पहुंचे तो वह स्वयं हैरान रह गया। कर्नल जेम्स टॉड लिखता है कि “मुगल सम्राट अकबर की स्मृति के लिए यह सम्मान की ही बात है कि उसका नाम महाराणा प्रताप के साथ अनेक परम्परागत पद्य-पंक्तियों में अंकित है।”
1583 ई. – बांसवाड़ा के रावल मानसिंह का देहांत व ठाकुर मानसिंह चौहान का गद्दी पर अवैध कब्जा :- इस समय बांसवाड़ा पर रावल प्रतापसिंह के दासीपुत्र रावल मानसिंह का शासन था। बांसवाड़ा में भीलों ने बगावत की, तो रावल मानसिंह ने सैकड़ों भीलों को मारकर उनके सर्दार को गिरफ्तार कर लिया।
जब भील सर्दार को बंदी बनाकर ले जाया जा रहा था, तब उस भील सर्दार ने अचानक एक राजपूत की तलवार छीनकर रावल मानसिंह को मार दिया। इसी समय बांसवाड़ा के सामन्त ठाकुर मानसिंह चौहान ने उस भील सर्दार को मार दिया और खुद बांसवाड़ा की गद्दी पर बैठ गए।
इस समय बांसवाड़ा महाराणा प्रताप के अधीन था, इसलिए बांसवाड़ा का अगला शासक कौन होगा ये महाराणा को तय करना था, पर ठाकुर मानसिंह चौहान ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध जाकर बांसवाड़ा की राजगद्दी हथिया ली।
डूंगरपुर रावल साहसमल की बांसवाड़ा पर चढ़ाई :- महाराणा प्रताप के अधीन डूंगरपुर नरेश रावल साहसमल ने मानसिंह चौहान को खत लिखा कि “तुमको सिसोदियों का राज नहीं मिल सकता”। मानसिंह चौहान ने खत का जवाब नहीं दिया, तो रावल साहसमल ने बांसवाड़ा पर हमला किया। मानसिंह चौहान ने रावल साहसमल को पराजित कर डूंगरपुर लौटने को विवश कर दिया।
महाराणा प्रताप द्वारा बांसवाड़ा पर फौज भेजना :- महाराणा प्रताप इस समय मुगलों से संघर्ष में उलझे हुए थे, फिर भी उन्होंने एक छोटी सी सेना रावत रतनसिंह चुण्डावत व रावत रायसिंह चुण्डावत के नेतृत्व में भेजी। मानसिंह चौहान ने कुल बांसवाड़ा की फौज समेत मेवाड़ी फौज का सामना किया। इस लड़ाई में मानसिंह चौहान विजयी रहे और मेवाड़ की तरफ से रावत रायसिंह चुण्डावत वीरगति को प्राप्त हुए।
महाराणा प्रताप की बांसवाड़ा पर कूटनीतिक कार्यवाही :- महाराणा प्रताप व डूंगरपुर के रावल साहसमल ने मिलकर कूटनीति से बांसवाड़ा का आधा राज्य मानसिंह चौहान से छीनकर बांसवाड़ा के वैध उत्तराधिकारी रावल उग्रसेन (रावल प्रतापसिंह के भाई) को दिलवा दिया। महाराणा प्रताप द्वारा बांसवाड़ा पर अगली कार्यवाही 1586 ई. में की गई, जिसका हाल मौके पर लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)