महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ ने बड़ा संघर्ष किया। अकबर ने कई बार मेवाड़ पर सेनाएं भेजकर तहस-नहस करने के प्रयत्न किए। महाराणा प्रताप ने अनेक कष्ट सहकर भी अपने व मेवाड़ के आत्मसम्मान की रक्षा की। चित्तौड़ पर अकबर के भयंकर आक्रमण का वर्णन खंभात के पोरवाड़ जैन कवि ऋषभदास ने पुस्तक ‘हीर विजय सूरी रास’ में किया।
अकबर व महाराणा प्रताप के समकालीन एक महान जैन आचार्य हुए, जिनका नाम था हीर विजय सूरी। कहीं कहीं इनका नाम हरि विजय सूरी भी लिखा गया है। 1582 ई. में आचार्य हीर विजय सूरी की भेंट अकबर से हुई। इन दिनों अकबर अलग-अलग धर्मों के महान आचार्यों को बुलाता और उनसे संवाद करवाता था।
अकबर अपने प्रारंभिक दिनों में काफी क्रूर रहा था, परन्तु आचार्य हीर विजय सूरी व जिनचन्द्र सूरी के सम्पर्क में आने के बाद उसमें कुछ बदलाव हुए। अकबर ने कुछ आदेश जारी करवाए कि खंभात बंदरगाह की मछलियां न मारी जाएं, पर्युषण के 12 दिन जीव हत्या न की जाए, आषाढ़ चौमासे के 8 दिन तक जीव हत्या न हो आदि।
महाराणा प्रताप ने आचार्य हीर विजय सूरी को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने आचार्य को धन्यवाद दिया कि उन्होंने अकबर को जीव हिंसा न करने का संदेश देकर अच्छा कार्य किया है। महाराणा ने पत्र में आचार्य से निवेदन किया कि वे उदयपुर पधारें। यह पत्र 1578 ई. में लिखा गया।
इस पत्र की वास्तविकता :- मूल पत्र कहाँ है कोई नहीं जानता, परन्तु इस पत्र की नकल एक जैन पुस्तक में प्रकाशित की गई। इस पत्र को मेवाड़ के इतिहास वर्णन की कुछ पुस्तकों में दर्ज किया गया है, परन्तु पत्र की प्रामाणिकता खारिज करने के लिए यहां कुछ तर्क दिए जा रहे हैं :-
पत्र 1578 ई. में लिखा गया बताया जाता है, जबकि आचार्य हीर विजय ने अकबर को जीव हिंसा का संदेश 1582 ई. में दिया था। पत्र में महाराणा प्रताप द्वारा जीव हिंसा न करने की बातें लिखी गई हैं, परन्तु इस घटना के ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि अहेड़ा के उत्सव में महाराणा प्रताप ने स्वयं एक जंगली सूअर का शिकार किया था। महाराणा प्रताप का देहांत भी शेर का शिकार करते समय धनुष की प्रत्यंचा तानते हुए घावों में तान आने से हुआ था।
पत्र की भाषा मेवाड़ी भाषा से कुछ अलग प्रतीत होती है। पत्र के अनुसार महाराणा प्रताप उस समय चावंड में थे, जबकि इतिहासकार मानते हैं कि महाराणा प्रताप ने 1585 ई. में लूणा चावंडिया से चावंड जीता था। इसलिए सभी तथ्यों की तरफ ध्यान देने से इस पत्र की वास्तविकता स्वतः खारिज हो जाती है।
1582 ई. में अकबर द्वारा दीन-ए-इलाही धर्म की स्थापना :- अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म की स्थापना की। प्रमुख लोगों में से इस धर्म के मात्र 18 अनुयायी बने, जिनमें बीरबल एकमात्र हिन्दु था। इतिहासकारों ने दीन-ए-इलाही को अकबर की घोर असफलता माना है।
1582 ई. – महाराणा प्रताप के विजय अभियान की शुरुआत :- इस समय चित्तौड़गढ़, मांडलगढ़, कुम्भलगढ़, भीमगढ़, मांडल, वागड़, दिवेर, उदयपुर, ओवरां, जावर, मोही, मदारिया, आमेट, देवगढ़, पिण्डवाड़ा, छप्पन, जहांजपुर, देसूरी, हमीरसर, गोगुन्दा, खेरवाड़ा, बिजौलिया, आसपुर समेत मेवाड़ के अधिकतर हिस्सों पर मुगल बादशाह अकबर का आधिपत्य स्थापित हो चुका था।
महाराणा प्रताप ने 3 वर्षों (1579-82 ई.) तक मुगलों से मुकाबला तो किया, लेकिन इस दौरान सेना के अभाव में कोई बड़ी जंग नहीं हुई। महाराणा प्रताप ने इन 3 वर्षों तक ढोलन गांव को मुख्य केन्द्र बनाए रखा। महाराणा प्रताप ने इन 3 वर्षों का सदुपयोग किया। उन्होंने इन 3 वर्षों में फौजी संख्या में वृद्धि की, मालवा पर 1-2 बार आक्रमण करवाकर इतनी धन संपदा प्राप्त की गई कि 25 हज़ार सैनिकों का खर्चा 12 वर्षों तक वहन किया जा सके।
शत्रुओं को लगने लगा कि महाराणा प्रताप अब पीछे हटने की तैयारी में हैं, परन्तु वे इस बात से अनजान थे कि महाराणा ने अपनी भरपूर ताकत से मेवाड़ को स्वतन्त्र करने की मुहिम शुरु कर दी है। इस पवित्र कार्य का शुभारम्भ करने के लिए महाराणा प्रताप ने विजयादशमी का दिन चुना।
अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ लिखता है कि “प्रताप को उत्तराधिकार में एक तेजस्वी वंश का यश और उपाधियां प्राप्त हुई थीं, लेकिन न उसके पास राजधानी थी और न साधन। वास्तव में प्रताप ऐसा व्यक्तिवादी विद्रोही था, जो अकबर के महान साम्राज्य के सपने को नष्ट करने में जुटा हुआ था। वह अपने राज्य की स्वतंत्रता को अपने से चिपटाए हुए था। शाही दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान के वादे को उसने तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया था। जो दूसरे राज्यों ने किया था, उसका कोई अनुकूल प्रभाव प्रताप पर नहीं पड़ा। उसने मेवाड़ की स्वतंत्रता को अपने हृदय से लगाए रखने, जब तक बन पड़े उसकी रक्षा करने और फिर उसकी रक्षा के लिए जान देने की ठान रखी थी।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
sir ढोलन गाव कहा आता है अभी प्लीज कुछ जानकारी दीजियेगा