1580 ई. – अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना का मेवाड़ अभियान :- महाराणा प्रताप ने मालवा में मुगल थानों का विध्वंस किया, जिसके बाद अकबर ने अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को मालवा भेजा और ये कहा कि मालवा में सुरक्षा के इंतजाम करने के बाद मेवाड़ चला जाए। अकबर ने अब्दुर्रहीम को अजमेर का सूबेदार बना दिया और रणथंभौर की जागीर भी दे दी।
अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना :- इसका जन्म 1556 ई. में हुआ। ये अकबर के संरक्षक बैरम खां का बेटा था। ये दिल का नेक इन्सान था। इसको कृष्ण भक्त कवि रहीम के रुप में भी जाना जाता है। ये अकबर के नवरत्नों में से एक था। हसन खां मेवाती, जो खानवा की लड़ाई में महाराणा सांगा की तरफ से लड़ते हुए काम आए थे, उनके भतीजे जमाल खां की पुत्री ने रहीम को जन्म दिया था। बाद में बैरम खां ने सलीमा सुल्तान से दूसरा निकाह किया। बैरम खां की मृत्यु के बाद अकबर ने बैरम खां की विधवा बेगम सलीमा सुल्तान से निकाह किया था। इस तरह रहीम अकबर के बेटे समान ही था।
24 वर्षीय रहीम को मेवाड़ अभियानों का अनुभव प्राप्त था। वह अकबर और शाहबाज़ खां के साथ मेवाड़ अभियानों पर जा चुका था। दोनों अभियानों में वह मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों से गुज़रा था। रहीम भारी भरकम मुगल फ़ौज का नेतृत्व करते हुए सर्वप्रथम मालवा पहुंचा।
रहीम की भामाशाह से भेंट :- रहीम के मालवा अभियान के समय भामाशाह जी कावड़िया भी मालवा में ही थे। मालवा में रहीम की भेंट भामाशाह जी से हुई। रहीम ने भामाशाह जी से कहा कि अब महाराणा प्रताप को शहंशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिये, पर भामाशाह जी ने कहा कि “महाराणा प्रताप जब तक जीवित हैं, सिवाय एकलिंग जी के किसी के सामने नहीं झुकेंगे, इसलिए ऐसा संदेश उन तक पहुंचाना व्यर्थ है।”
कुंवर अमरसिंह की शेरपुर विजय :- रहीम ने मेवाड़ में तैनात मुगल थानों को सुदृढ़ किया और स्वयं शेरपुर में अपने परिवार व सेना सहित पड़ाव डाला। रहीम अपने परिवार को एक फौजी टुकड़ी की निगरानी में रखकर खुद फौज समेत महाराणा प्रताप के पीछे गया। इस वक्त कुंवर अमरसिंह गोगुन्दा में थे।
कुंवर अमरसिंह को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने रहीम का ध्यान महाराणा से हटाने के लिए शेरपुर पर हमला कर दिया। कुंवर अमरसिंह शाही फौजी टुकड़ी को पराजित करके रहीम की बेगमों को बन्दी बनाकर महाराणा प्रताप के समक्ष हाजिर हुए। इन बेगमों में से दो के नाम ज़ीनत व आनी बेगम है।
महाराणा प्रताप ने कुंवर अमरसिंह को जोरदार फटकार लगाते हुए रहीम की बेगमों को सुरक्षित रहीम तक पहुंचाने का आदेश दिया। आनी बेगम ने रहीम को सारी घटना बताई। रहीम को अब इस बात का अंदाज़ा लगा कि महाराणा प्रताप का नाम यों ही हिंदुस्तान भर में प्रसिद्धि नहीं पा रहा था, वे इस प्रसिद्धि के योग्य वास्तव में थे। रहीम को महाराणा के उच्च आदर्शों का अब भली भांति आभास हो चुका था। रहीम जब सीकरी पहुंचा, तो उसने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और 1581 ई. में सलीम (जहांगीर) के अर्तालीक (शिक्षक) के पद पर नियुक्त हुआ।
मुगल जो सदैव इस ताक में रहते थे कि महाराणा प्रताप या उनके परिवार की कोई महिला सदस्य उनके हाथ लग जाए, ताकि महाराणा प्रताप उनकी अधीनता स्वीकार कर ले। ऐसे में मुगल सेनापति की महत्वपूर्ण ओहदे वाली बेगमों को बहन मानकर सम्मान सहित लौटा देना वास्तव में क्षात्र धर्म की ऐसी मिसाल है, जो युगों युगों तक याद रखी जाएगी। इस दृश्य को हल्दीघाटी म्यूजियम में साउंड शो के माध्यम से रोचक अंदाज़ में दिखाया जाता है।
रहीम ने महाराणा प्रताप के लिए लिखा कि “इस संसार में सभी नाशवान हैं, भूमि और धन आज हैं, पर कल नहीं रहेंगे, परन्तु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। प्रताप ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परन्तु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वो एक ही है, जिसने अपनी जाति के सम्मान की रक्षा की।”
1580 ई. – बांसवाड़ा रावल प्रताप सिंह का देहांत :- इस वर्ष बांसवाड़ा के रावल प्रताप सिंह का देहान्त हुआ। बांसवाड़ा पर इस समय महाराणा प्रताप का अधिकार था, पर मुगलों से लड़ाईंयों में व्यस्त रहने के कारण उन्होंने इस समय बांसवाड़ा के उत्तराधिकार संघर्ष में हस्तक्षेप नहीं किया।
रावल प्रताप सिंह के कोई पुत्र नहीं था, तब बांसवाड़ा के सर्दार मानसिंह चौहान ने रावल प्रताप सिंह के दासीपुत्र मानसिंह को रावल की उपाधि देकर बांसवाड़ा का मालिक बना दिया। मानसिंह चौहान की मदद से रावल मानसिंह बांसवाड़ा पर राज करने लगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)