वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 75)

इतिहास में एक घटना बड़ी प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार एक दिन महाराणा प्रताप के कुँवर अमरसिंह के हाथ से जंगली बिलाव रोटी छीन कर ले भागा, तब रोते हुए कुँवर अमरसिंह को देखकर महाराणा प्रताप भावुक हो गए और उन्होंने अकबर को एक पत्र लिखा जिसमें मुगल अधीनता स्वीकार की। अकबर अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने बीकानेर के कुँवर पृथ्वीराज राठौड़ को बुलाकर वह पत्र दिखाया। इसके बाद कुँवर पृथ्वीराज ने महाराणा प्रताप के सोए स्वाभिमान को जगाने के लिए एक पत्र लिखा।

इतिहास में पाथल और पीथल का पत्र व्यवहार बड़ा प्रसिद्ध है। पाथल से आशय महाराणा प्रताप से व पीथल से आशय बीकानेर के कुँवर पृथ्वीराज राठौड़ से है। कुँवर पृथ्वीराज राठौड़ बीकानेर के महाराजा कल्याणमल के पुत्र थे। इस पत्र के पद्य डिंगल में है, जिनका भावार्थ निम्नलिखित है :-

कुँवर पृथ्वीराज द्वारा लिखे गए पत्र का भावार्थ :- “यदि महाराणा प्रताप अपने मुंह से अकबर को बादशाह कहे, तो कश्यप का पुत्र सूर्य पश्चिम में उदय होने लगेगा। हे दीवाण, मुझे दो में से एक बात लिख भेजो कि मैं अपनी मूंछों पर ताव दूँ या अपनी तलवार से स्वयं पर प्रहार करूँ ?”

महाराणा प्रताप को पत्र लिखते हुए कुँवर पृथ्वीराज राठौड़

महाराणा प्रताप द्वारा कुँवर पृथ्वीराज को लिखे गए जवाबी पत्र का अनुवाद :- “एकलिंगजी इस शरीर से तो अकबर को तुर्क ही कहलावेंगे और सूर्य का उदय जहां होता है, उसी दिशा पूर्व में होता रहेगा। हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज, जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है, तब तक आप अपनी मूंछों पर खुशी से ताव देते रहिए। राणा प्रताप उनके सिर पर खांग का प्रहार करेगा, क्योंकि अपने बराबर वाले का यश विष के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज, उस तुर्क के साथ वचनरूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।”

इस पत्र व्यवहार की सच्चाई :- अधिकतर इतिहासकार इस पत्र व्यवहार को अविश्वसनीय बता चुके हैं। इसी पत्र की तर्ज़ पर बाद में कन्हैयालाल सेठिया ने ‘अरे घास री रोटी’ गीत लिखा। सर्वप्रथम तो ये कि कुँवर अमरसिंह का जन्म 1559 ई. में हुआ था और 1576 ई. के बाद महाराणा प्रताप ने जंगलों में रहना शुरू किया। उस समय का 17 वर्षीय राजपूत शेरों के जबड़े फाड़ने में सक्षम होता था, तो कुँवर के रोने की बातें निरर्थक हैं।

इतिहासकार मनोहर शर्मा लिखते हैं कि “इस पत्र व्यवहार की शैली राजपूत समाज की प्रतीत नहीं होती है। पृथ्वीराज राठौड़ स्वयं उच्च कोटि के कवि एवं भारत भक्त थे, परन्तु महाराणा प्रताप महावीर थे, वे कवि नहीं थे।”

यदि महाराणा प्रताप ने अकबर के पास अधीनता स्वीकार करने का पत्र भेजा होता, तो अकबर के दरबारी लेखकों की भीड़ में से शायद ही कोई होता जो इस बात को बढ़ा चढ़ाकर न लिखता। इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “किसी समकालीन इतिहासकार ने, चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम, इस घटना का उल्लेख नहीं किया है। महाराणा प्रताप द्वारा लिखा गया क्षमा प्रार्थना का पत्र ऐसी चीज नहीं है, जिसकी ओर कोई भी मुस्लिम इतिहासकार ध्यान देने से चूक जाता।”

इस पत्र व्यवहार के आधार की घटना व भूख से महाराणा प्रताप की पुत्री के देहांत होने की बातों को निर्मूल व अविश्वसनीय सिद्ध करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर ओझा लिखते हैं कि “उत्तर में कुंभलगढ़ से लगाकर दक्षिण में ऋषभदेव से परे तक अनुमानतः 90 मील लंबा और पूर्व में देबारी से लगाकर पश्चिम में सिरोही की सीमा तक करीब 70 मील चौड़ा पहाड़ी प्रदेश, जो एक के पीछे एक पर्वतश्रेणियों से घिरा हुआ है, महाराणा प्रताप के अधिकार में था।”

ओझा जी आगे लिखते हैं कि “महाराणा तथा सरदारों के जनाने और बाल-बच्चे आदि इसी सुरक्षित प्रदेश में रहते थे। आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए अन्न आदि लाने को गोडवाड़, सिरोही, ईडर और मालवा की तरफ के मार्ग खुले थे। उक्त पहाड़ी प्रदेश में जल व फल वाले वृक्षों की बहुतायत होने के अतिरिक्त बीच-बीच में कई जगह समान भूमि आ गई है और वहां सैंकड़ों गांव आबाद हैं।”

डॉक्टर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा

ओझा जी आगे लिखते हैं कि “इस पहाड़ी प्रदेश में कई पहाड़ी किले और गढ़ भी बने हुए हैं और पहाड़ियों पर हज़ारों भील बसते हैं। वहां मक्का, चना, चावल आदि अन्न अधिकता से उत्पन्न होते हैं और गायें-भैंसे आदि जानवरों की बहुतायत के कारण घी-दूध आदि पदार्थ आसानी से मिल सकते हैं। ऐसे ही छप्पन तथा बानसी से लगाकर धरियावद के परे तक सारा पहाड़ी प्रदेश भी महाराणा प्रताप के अधिकार में था।”

ओझा जी आगे लिखते हैं कि “महाराणा प्रताप अपने सरदारों सहित विस्तृत पहाड़ी प्रदेश में निडर रहता था और उसके स्वामिभक्त एवं वीर प्रकृति के हज़ारों भील लोग, जो बंदरों की तरह पहाड़ लांघने में कुशल होते हैं, शत्रु सैन्य के हलचल की 40-50 मील दूर तक की खबरों को 7-8 घण्टे में उसके पास पहुंचा देते थे, जिससे वह शत्रु पर कहाँ हमला करना ठीक होगा, यह सोचकर अपने राजपूतों सहित पहाड़ों की ओट में घात लगाए रहा करता और मौका पाते ही उन पर टूट पड़ता था। इसी से अकबर की सेना ने पहाड़ों में दूर तक प्रवेश करने का साहस नहीं किया।”

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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