1580 ई. – महाराणा प्रताप द्वारा विपरीत परिस्थितियों में ताराचंद के प्राणों की रक्षा :- महाराणा प्रताप ने मालवा को लूटने के लिए भामाशाह कावड़िया के भाई ताराचन्द को मालवा में रामपुरा की तरफ भेजा था। मालवा में बस्सी नामक स्थान पर ताराचन्द का मुकाबला मुगल सेनापति शाहबाज खां से हो गया।
ताराचन्द घोड़े से गिर गए व बुरी तरह ज़ख्मी हो गए। बस्सी के राव साईंदास देवड़ा ताराचन्द को अपने घर ले गए व उनका उपचार किया। महाराणा प्रताप को जब ताराचन्द के ज़ख्मी होने का पता चला, तो उन्होंने फौरन अपने विश्वस्त सामन्तों सहित मंत्रणा की और कहा कि ताराचंद ने हमारे मुश्किल दिनों में हमारी सहायता की थी, अब ताराचंद संकट में है तो हमें भी उसके प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महाराणा प्रताप ने थोड़े बहोत सैनिकों के साथ फौरन मालवा कूच किया।
मालवा पर मुगलों का अधिकार था, जिस वजह से महाराणा प्रताप का वहां जाना लगभग असम्भव था। पर महाराणा प्रताप ताराचन्द तक पहुंचने में सफल हुए और राव साईंदास देवड़ा को धन्यवाद कहकर मालवा से निकले। लौटते वक्त महाराणा ने रौद्र रूप धारण कर लिया।
मालवा से मेवाड़ के रास्ते में जितने भी मुगल थाने आए, महाराणा प्रताप ने उनको न सिर्फ हटाया, बल्कि मालवा के सबसे बड़े शाही थाने दशोर (वर्तमान में मन्दसौर) को लूटकर तहस-नहस करते हुए ताराचन्द को सुरक्षित मेवाड़ ले आए।
महाराणा प्रताप द्वारा ताराचंद के प्राणों की रक्षा करने की इस घटना को यदि उस दौर की सर्जिकल स्ट्राइक कहा जाए, तो अनुचित नहीं होगा। महाराणा प्रताप ने ताराचंद को गोडवाड़ का उत्तरदायित्व सौंप दिया और साथ ही साथ ताराचंद को सादड़ी का हाकिम भी घोषित कर दिया।
जून-जुलाई, 1580 ई. – शाहबाज़ खां के मेवाड़ अभियानों की समाप्ति :- 8 महीनों की नाकामयाबी के बाद शाहबाज़ खां मेवाड़ से चला गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप पर पूर्ण विजय पाने में शाहबाज़ खां तीसरी बार भी असफल रहा। शाहबाज़ खां ने तीनों अभियानों में मिलाकर लगभग 2 वर्षों का समय मेवाड़ में बिताया।
अकबरनामा में अबुल फजल शाहबाज खां की पराजय को छिपाते हुए लिखता है कि “आज शाहबाज खां शाही दरबार में आया, जिसे अजमेर सूबे में राणा कीका को काबू में करने भेजा गया था। शाहबाज खां ने अपनी ताकत से राणा को रेगिस्तानी आवारा बनाकर उसे बुरे दिनों में ढकेल दिया। राणा हर सुबह यही सोचता कि आज उसकी ज़िन्दगी का आखिरी दिन होगा और फिर वह छालों से भरे हुए अपने पैर उठाता और भागता फिरता।”
अबुल फ़ज़ल आगे लिखता है कि “शाहबाज़ खां ने तेजमल सिसोदिया के घर पर भी धावा बोला, जिसमें कई कलहकारी मारे गए और उसका घर लूट लिया गया। उसके आसपड़ोस वाले शरारतियों का भी सफाया कर दिया गया। वहां के बदनसीब लोग शाहबाज़ खां से बहुत डर गए। जब पूर्वी जिलों में बगावत होने लगी, तो शाहबाज़ खां को मेवाड़ से वापस बुला लिया गया और उसको बगावत कुचलने के लिए बंगाल की तरफ भेज दिया गया।”
महाराणा प्रताप ने इन दिनों गोगुन्दा से 10 मील उत्तर-पश्चिम पहाड़ों में स्थित सायरा परगने के ढोलन गांव को अपनी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बना रखा था। यहां बैठकर महाराणा प्रताप मेवाड़ को मुगलों से मुक्ति दिलाने की नई योजनाएं बनाने में व्यस्त हो गए। शाहबाज़ खां ने 3 मेवाड़ अभियानों के ज़रिए मेवाड़ को इस तरह मुगल थानों से जकड़ लिया था कि शाहबाज़ खां के वापिस जाने के उपरांत भी अकबर मेवाड़ की तरफ से निश्चिन्त हो गया था। उसे लगने लगा कि अब महाराणा प्रताप का संघर्ष अधिक दिन नहीं चलेगा।
शाहबाज खां जब तीसरी बार भी अपने मुख्य उद्देश्य में असफल हुआ तो अकबर ने उसकी जगह अपने प्रिय मित्र दस्तम खां को अजमेर सौंपकर महाराणा प्रताप पर हमले करने का हुक्म दिया। दस्तम खां महाराणा प्रताप के विरुद्ध कोई कार्यवाही करता, उसके पहले ही वह कुछ कछवाहों की बगावत में मारा गया। ये बगावत आमेर के राजा भारमल के भतीजों ने की थी।
मेवाड़ में अकाल :- जहां एक ओर मेवाड़ संघर्षों की चरमसीमा से गुज़र रहा था, वहीं दूसरी तरफ 1580 ई. में अकाल की मार पड़ी। यह अकाल मेवाड़ के लोगों के साथ-साथ मेवाड़ में भारी संख्या में तैनात मुगलों के लिए भी चुनौतीपूर्ण रहा।
डूंगरपुर रावल आसकरण का देहांत :- 1580 ई. में डूंगरपुर रावल आसकरण का देहांत हो गया। महाराणा प्रताप ने रावल आसकरण के पुत्र साहसमल को डूंगरपुर की राजगद्दी पर बिठाया। साहसमल ने महाराणा का प्रभुत्व स्वीकार कर रखा था। महारावल आसकरण की रानियों में चौहान वंश की महारानी प्रेमलदेवी के पुत्र साहसमल थे। कईं जगह इनका नाम सैंसमल भी लिखा है। साहसमल ने महाराणा प्रताप का साथ दिया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)