1578 ई. में मुगल सेनापति शाहबाज़ खां ने मेवाड़ व उसके आसपास 80 मुगल थाने तैनात किए थे। महाराणा प्रताप को भामाशाह जी कावड़िया से भरपूर धन उपलब्ध हो चुका था। महाराणा प्रताप ने डूंगरपुर व बांसवाड़ा के शासकों से भी अधीनता स्वीकार करवा ली थी।
अब महाराणा प्रताप का उद्देश्य था उन 80 मुगल थानों को उखाड़ फेंकना। यह कार्य अत्यंत कठिन था, परन्तु महाराणा प्रताप के साहस व उनकी सूझबूझ ने उनका साथ नहीं छोड़ा। महाराणा प्रताप के राजपूत व भील योद्धाओं ने एक-एक करके मुगल थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।
इन दिनों भील जनजाति ने महाराणा प्रताप का जो साथ दिया, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। भीलों की स्वामिभक्ति व देशप्रेम का यह चर्मोत्कर्ष था। चाहे नाकेबंदी का कार्य हो या मुगलों का खजाना लूटना, संदेशवाहकों का कार्य हो या महाराणा की सुरक्षा का, भील सदैव तत्पर रहे।
शाहबाज़ खां का दूसरा मेवाड़ अभियान :- महाराणा प्रताप की डूंगरपुर-बांसवाड़ा पर विजय व मुगल थानों पर आक्रमण का समाचार अकबर के कानों तक पहुंचने में देर नहीं लगी। अकबर शाहबाज़ खां की कार्रवाइयों से संतुष्ट हुआ था, क्योंकि उसने एक सुदृढ़ दुर्ग कुंभलगढ़ को जीत लिया था। अकबर ने शाहबाज़ खां को दोबारा फ़ौज सहित मेवाड़ भेजने का फ़ैसला किया।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि “शहंशाह ने शाहबाज़ खां को काफी ख़ज़ाने के साथ दूसरी बार शाही फौज की कमान सौंपकर मेवाड़ इस हुक्म के साथ भेजा कि राणा कीका को बादशाही मातहती कुबूल करने के लिए उकसाया जाए। अगर राणा न माने, तो बलबलती तलवारों से उसका खात्मा कर दिया जाए।”
शाहबाज खां के साथ मेवाड़ जाने वाले सिपहसालार :- गाजी खां बदख्शी, मोहम्मद हुसैन, मीर बर, शैख तिमूर बदख्शी, मिर्जादा अली खां आदि। शाहबाज़ खां ने अपने पहले मेवाड़ अभियान के दौरान हिन्दू अधिकारियों को अभियान से हटा दिया था। दूसरे अभियान के समय शाहबाज़ खां के साथ कोई हिन्दू अधिकारी था ही नहीं।
15 दिसंबर, 1578 ई. को मुगल सेनापति शाहबाज़ खां बादशाही फ़ौज के साथ राजधानी फतहपुर सीकरी से रवाना हुआ और कुछ दिन बाद जहांजपुर पहुंचा। जहांजपुर पर महाराणा प्रताप के भाई जगमाल का राज था। जहांजपुर भीलवाड़ा जिले में स्थित है।
शाहबाज़ खां ने जहांजपुर में अपनी फौज जमा की और वहां से मेवाड़ पर कई हमले किए, पर हर बार नाकामयाब रहा। बिना किसी कामयाबी के शाहबाज़ खां ने जहांजपुर से अपने डेरे उठा लिए और फौज समेत मालवा पहुंचा। मालवा से उसने मेवाड़ पर कई हमले किए, पर उसका एक भी हमला सफल नहीं हुआ।
शाहबाज खां 6 महीनों तक लगातार हमले करता रहा और महाराणा प्रताप अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ जगह-जगह पर उसका सामना करते रहे। महाराणा प्रताप की तरफ से भी कई वीर वीरगति को प्राप्त हुए। इस प्रकार शाहबाज़ खां का दूसरा मेवाड़ अभियान भी असफल रहा और 10 जून, 1579 ई. को वह थक-हारकर फतेहपुर सीकरी लौट गया।
अबुल फ़ज़ल शाहबाज़ खां की असफलता को छुपाते हुए लिखता है कि “थोड़े ही वक्त में उस काले ख़यालों वाले राणा का मान मर्दन कर दिया गया।” अबुल फ़ज़ल का यह कथन भी इस बात को नहीं छिपा सका कि शाहबाज़ खां ने थोड़ा वक्त नहीं, बल्कि 6 महीने भारी भरकम फौज सहित मेवाड़ में बिताए, लाखों का धन खर्च हुआ और परिणाम शून्य रहा।
महाराणा प्रताप द्वारा जवाबी कार्यवाही :- महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ के अलावा कई मुगल थानों पर हमले किये और विजय प्राप्त की। ग्रन्थ अमरकाव्य के अनुसार महाराणा प्रताप ने तरवराधीश को जीतकर उसके निशान छीने। इसी दौरान महाराणा प्रताप ने रणथम्भौर, घघेरा व मामरिका जैसे मुगल अधीनस्थ नगरों पर छापामार आक्रमण करके दंड वसूल किया।
अंग्रेज इतिहासकार हैरिस लिखता है कि “यद्यपि आगरे का नया शहर बसाने में अकबर का ध्यान लग रहा था, तो भी राज्य की वह तृषा, जो कि उसकी तख्तनशीनी के शुरु के सालों में नज़र आई थी, न बुझी। हिन्दुस्तान के एक राजा का हाल सुनकर, जो कि अकलमन्दी और दिलेरी के वास्ते मशहूर था। जिसका इलाका बादशाह की राजधानी से सिर्फ बारह मंजिल के फासिले पर था, उसको बादशाह ने फौरन फ़तह करने का इरादा किया। खासकर इस वजह से कि वह इलाका उसके मौरुसी राज्य और नये फ़तह किए गए मुल्क के बीच में था। इस राजा का नाम राणा प्रताप था। राणा का खिताब उसके खानदान के सब राजाओं को हिन्दुस्तान के पुराने दस्तूर के मुवाफ़िक दिया जाता था। उसकी मदद करने वाला अगर कोई दूसरा राजा होता, तो वह अपने मुल्क चित्तौड़ की आज़ादी भी हासिल कर लेता। तो भी उसने बड़े दरजे की कोशिश की, जो कि इस मुल्क की तवारिख में हमेशा याद रहेगी”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)