महाराणा प्रताप के इतिहास का भाग 67

3 अप्रैल, 1578 ई. :- अकबर द्वारा भेजे गए मुगल सेनापति शाहबाज़ खां ने 6 महीने की घेराबंदी के बाद कुम्भलगढ़ दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया। किलेदार राव भाण सोनगरा सहित सभी राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। शाहबाज़ खां ने दुर्ग जीत लिया, परन्तु मेवाड़ के स्वामी को न तो वह मार सका और न पकड़ सका।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में न रसद सामग्री थी और न ही कोई खज़ाना। शाहबाज़ खां ने एक खाली दुर्ग जीता था। गुस्से में आकर शाहबाज़ खां ने रातों रात कुम्भलगढ़ में कई मन्दिर तुड़वाए व अजमेर से रसद सामग्री मंगवाई। शाहबाज़ खां ने कुम्भलगढ़ में कत्लेआम का हुक्म दिया।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में रहने वाली प्रजा में से कइयों को महाराणा प्रताप ने भामाशाह कावड़िया के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया था। फिर बचे हुए अधिकतर लोगों को महाराणा प्रताप ने दुर्ग छोड़ने से ठीक पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। उसके बाद जो थोड़े बहोत लोग किले में रह गए थे, वे मुगलों के हाथों मारे गए। कुम्भलगढ़ में कत्लेआम की बात समकालीन मुगल लेखक हाजी मोहम्मद आरिफ कन्धारी ने तारीख-ए-अकबरी में लिखी है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित एक जलाशय

कुम्भलगढ़ के इस भीषण युद्ध में एक चारण योद्धा ने भी वीरगति पाई, जिनके बारे में कर्नल जेम्स टॉड लिखता है कि “मेवाड़ के जिस प्रमुख चारण ने अपने कृत्यों और कविता से निर्दयी बादशाह के विरुद्ध प्रतिरोध की उदात्त भावना को प्रेरित कर रखा था और अपने स्वामी की सराहना में रचे गए उसके कवित्त अब भी हर मुंह पर हैं, वह भी इस युद्ध में मारा गया।”

कर्नल जेम्स टॉड आगे लिखता है कि “परन्तु काव्य की आत्मा उसके साथ मर नहीं गई। क्योंकि युद्धप्रिय राजपूत की, जो राष्ट्रीय उत्तेजना के कारण कमर कसकर कूदने में देरी ही नहीं करता, मनोभावना को आकाश जितना ऊंचा उठा देने वाले छंदों द्वारा देशप्रेमी प्रताप की प्रशंसा करने में राजा और सामंत, हिन्दू और तुर्क, सबमें होड़ लगी रहती थी।”

कुम्भलगढ़ के किलेदार व महाराणा प्रताप के मामा राव भाण सोनगरा ने बड़ी बहादुरी दिखाकर वीरगति पाई। समकालीन प्रसिद्ध चारण कवि दुरसा आढा जी ने राव भाण सोनगरा पर कुछ पंक्तियां लिखी हैं, जिनका सारांश है कि अखैराज जी सोनगरा के पुत्र वीर योद्धा भाण को महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ की रक्षा का भार दिया। राव भाण विशाल मुगल दल को देखकर मुड़े नहीं, बल्कि वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए गढ़ की रक्षार्थ अपने प्राण अर्पित कर दिए।

4 अप्रैल, 1578 ई. :- शाहबाज खां द्वारा उदयपुर व गोगुन्दा में लूटमार :- शाहबाज़ खां को झूठी खबर मिली कि महाराणा प्रताप गोगुन्दा या उदयपुर गए हैं, तो उसने किला गाजी खां बदख्शी के सुपुर्द किया व खुद गोगुन्दा पहुंचा। गोगुन्दा में लूटमार करने के बाद शाहबाज़ खां उसी दिन उदयपुर के लिए निकला और उदयपुर में भी उसने वही सब दोहराया।

अबुल फ़ज़ल लिखता है कि “राणा कीका के ठिकाने की ख़बर शाहबाज़ खां को लगी, तो उसने फ़ौरन कुम्भलमेर का किला गाज़ी खां बदख्शी को सौंप दिया और ख़ुद राणा की खोज में उस तरफ फुर्ती से रवाना हुआ। अगले दिन दोपहर को उसने गोगुन्दा जीता और आधी रात को उदयपुर। बहुत सी लूट फतह करने वालों के हाथ लगी।”

शाहबाज़ खां द्वारा मन्दिर का अपमान :- तीन दिन तक तबाही मचाने के बाद शाहबाज़ खां सुबह के वक्त कुम्भलगढ़ पहुंचा व एक मन्दिर के ऊपर बैठकर अजान पढ़ी। अबुल फजल ने इसको “राणा का मन्दिर” कहा है। ये महादेवजी का वह मन्दिर था, जिसकी पूजा महाराणा कुम्भा किया करते थे।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित महादेवजी का मंदिर

महाराणा द्वारा कुम्भलगढ़ के कत्लेआम का प्रतिशोध :- महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ की पराजय का प्रत्युत्तर देना जरुरी समझा व अपने थोड़े बहोत सैनिकों के साथ जालौर कूच किया। जालौर पूरी तरह से मुगलों के अधीन था। महाराणा प्रताप ने जालौर में कई शाही थाने लूटकर तहस-नहस करके जला दिए।

महाराणा प्रताप ने सिरोंज क्षेत्र में भी तैनात मुगलों को मारकर शाही थाने जला कर खाक किए। महाराणा प्रताप सिरोंज में मुगल थानों से धन लूटते हुए सिरोही की तरफ रवाना हुए। महाराणा प्रताप द्वारा जालौर व सिरोंज में मुगलों के खिलाफ की गई इस कार्यवाही के बारे में ये दोहे कहे जाते हैं :-

“जारि बारि जालौर, ओर आभा करि डारिय। कोट ओट डिढ़ ढाहि, भीति भीतिनि सहु पारिय।। खहरि खभ खन ढहरि, वहरि धर धूमि धूमि मचि। फौज सिरोंज फिराइ, फूकि पूर फोरि तोरि तचि।। प्रताप रान प्रताप करि, भरि प्रताप प्रचंड पहु। उडी खेह खिति खहलोकु, मुदि खंख भख महनत तहु।।”

महाराणा प्रताप के लिए हर दिन नई मुश्किलों को सामने ला रहा था। चित्तौड़गढ़ व कुम्भलगढ़, मेवाड़ के ये दो सर्वश्रेष्ठ दुर्ग अब मुगलों के हाथों में जा चुके थे। पड़ोसी रियासतों से मदद नहीं मिल पा रही थी। कुम्भलगढ़ में कई वीर योद्धा काम आ चुके थे। इन विपरीत परिस्थितियों में यदि महाराणा प्रताप के अनुकूल कुछ था तो वह उनका स्वाभिमान।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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