अकबर द्वारा भेजे गए मुगल सेनापति शाहबाज़ खां ने अक्टूबर, 1577 ई. से मार्च, 1578 ई. तक कुम्भलगढ़ दुर्ग को घेरे रखा।
इन 6 महीनों के दौरान शाहबाज़ खां ने 4 बार कुम्भलगढ़ दुर्ग पर हमला किया और चारों ही बार महाराणा प्रताप से परास्त हुआ।
फिर शाहबाज़ खां द्वारा किले के जलस्रोत में मरे हुए सांप फिंकवा दिए गए, जिसके बाद महाराणा प्रताप अपने मामा भाण सोनगरा को किलेदार बनाकर स्वयं बांसवाड़ा की तरफ चले गए।
3 अप्रैल, 1578 ई. :- पांचवी बार शाहबाज़ खां ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया। इस बार बादशाही फ़ौज हावी हो गई और भारी मारकाट के बाद किले में प्रवेश करने में सफल रही।
राजपूतों ने मुगलों का जमकर सामना किया, लेकिन संख्याबल ने बाज़ी मार ली। किले में मौजूद सभी वीरों ने वीरगति पाई।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में तैनात सभी योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए, जिनमें से कुछ के नाम इस तरह हैं :- राव भाण सोनगरा चौहान :- ये महाराणा प्रताप के मामा थे।
राव भाण सोनगरा पाली के अखैराज जी सोनगरा के पुत्र थे। राव भाण सोनगरा के पुत्र जसवन्त सोनगरा चौहान ने आगे चलकर छापामार युद्धों में महाराणा प्रताप का साथ दिया।
सीधल सूजा सीहावत, सीधल कूंपा भाडावत, महता नरबद, मांगलिया जैता भी वीरगति को प्राप्त हुए। मांगलिया जैता मेड़ता के वीर जयमल जी राठौड़ के भतीजे थे।
इस प्रकार कई राजपूतों के वीरगति पाने के बाद 3 अप्रैल की शाम तक कुम्भलगढ़ दुर्ग पर शाहबाज़ खां ने कब्ज़ा कर लिया।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि “कुम्भलमेर किले पर चढाई बड़ी मुश्किल थी। ये किला आसमान की बुलन्दी पर बना है, इसे नीचे से ऊपर देखने पर सर से पगड़ी गिर जाती है। राणा कीका ने अपने बाप-दादों की
तरह इस किले को अपने रहने की जगह बना रखी थी। बादशाही फौज पथरीली पगडंडियों और घाटियों से निकल गई। रास्ता ऐसा था कि कोई ख़यालों में भी वहां नहीं जा सकता था,
पर किला फतह करने के इरादे से शाहबाज़ खां वहां जा पहुंचा। खुदा के रहमोकरम से शाहबाज़ खां ने केलवाड़ा की घाटियों पर कब्जा कर लिया।”
अबुल फ़ज़ल आगे लिखता है कि “शाही फौज के बहादुर पहाड़ों पर चढ़ गए। ऐसी हिम्मत देखकर किले वालों के हौंसले पस्त हो गए। किस्मत को ताज्जुब में डाल देने वाली कारगुज़ारी की वजह से किले में एक बड़ी तोप फट गई,
जिससे राजपूतों को जान-माल का नुकसान हुआ। गाजियों की ताकत देखकर राणा की हिम्मत का पैर फिसल गया। तोप फटने के बाद उस कलहकारी राणा के हौंसले भी पस्त हो गए और
वो रात के वक्त शाही फौज को चकमा देकर बच निकला। बादशाही फौज ने किले पर कब्जा किया। कई खास राजपूत किले के दरवाजों और मन्दिरों के पास डटे रहे
और बड़ी बहादुरी से लड़े। आखिरकार सब राजपूतों का नाश हुआ। वह शरारती राणा बांसवाड़ा की तरफ चला गया।”
कुम्भलगढ़ युद्ध के एक वर्ष के भीतर लिखी गई तवारीख ‘तारीख-ए-अकबरी’ में अकबर का दरबारी लेखक हाजी मोहम्मद आरिफ कन्धारी लिखता है कि “शाहबाज़ खां ने किला फतह करने की खुशखबर शाही दरबार तक पहुंचाई कि
उसने किन मुश्किलों में ये किला फतह किया। खुदा के रहमोकरम से ही कुम्भलमेर का किला फतह हो सका। कुम्भलमेर का किला इतनी बुलन्दी पर बना है कि
देखने वालों की आँख उसके छज्जे तक भी बड़ी मुश्किल से पहुंचती है और अगर देखने की कोशिश भी करें, तो पीठ के बल गिर जाते हैं। शहंशाह का मकसद था कि ये किला जीत लिया जावे।”
हाजी मोहम्मद आरिफ कन्धारी आगे लिखता है कि “शहंशाह ने इस किले को जीतने की इच्छा शाही दरबार में जाहिर की थी। इस पहाड़ी इलाके में एक राणा का राज है,
जिसने पहाड़ी मकामों के भरोसे अपने सर को गुरुर से उठा रखा है। राणा कीका अपने सारे साथियों और अपने बराबर वालों के सामने फख्र महसूस करता है कि मैं किसी के मातहत (अधीन) नहीं हूँ। आज तक कोई बादशाह
अपने लगाम की डोरी से उसके कान नहीं छेद सका। इस्लामी हुकूमत का उसके मुल्क में कभी कब्जा नहीं हो सका। न जाने कितने बादशाह और सुल्तान
मेवाड़ फतह करने की हसरत से मर गए और इस किले को फतह करने में हमेशा हार मानी। शाहबाज खां ने धोखे और चालाकी से ये किला फतह कर लिया।”
मेवाड़ के ग्रंथ वीरविनोद में कविराजा श्यामलदास लिखते हैं कि “कुम्भलमेर के किले पर बादशाही फ़ौज के हमले होने लगे और बहादुर राजपूत भी लड़कर फ़ौज के हमले को रोकते थे, पर आख़िरकार शाही फ़ौज के सिपाही किले पर चढ़ने लगे,
उस वक़्त किलेवालों ने किवाड़ खोल दिए। राव भाण सोनगरा वग़ैरह बहुत से नामी बहादुर राजपूत किले के दरवाज़ों और मंदिरों पर काम आए और शाहबाज़ खां ने फतह के साथ बादशाही झंडा कायम किया।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)