हल्दीघाटी युद्ध का सही स्थान :- अक्सर एक गलतफहमी है की इस युद्ध का नाम हल्दीघाटी होने से ये समझ लिया जाता है कि ये युद्ध पूरी तरह हल्दीघाटी में ही हुआ।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी से होकर ही खमनौर में प्रवेश किया था। हालांकि हल्दीघाटी दर्रे के मुहाने पर भी लड़ाई हुई थी। अबुल फजल ने इस युद्ध को खमनौर का युद्ध कहा।
अब्दुल कादिर बदायूनी ने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध कहा। गोगुन्दा उस समय अपने सुंदर उद्यानों व मकानों के लिए प्रसिद्ध था। इस मामले में गोगुन्दा की तारीफ मुगल लेखकों ने भी की है।
इसका श्रेय मुख्य रूप से महाराणा प्रताप को ही जाता है, क्योंकि जब महाराणा उदयसिंह ने गोगुन्दा को राजधानी घोषित की, उसके कुछ ही माह बाद महाराणा उदयसिंह का देहांत हो गया था।
महाराणा प्रताप ने पहाड़ों के बीच बसे गोगुन्दा को स्वर्ग बना दिया था। महाराणा प्रताप ने लोयणा में भी बगीचा बनवाया था। इन घटनाओं से मालूम पड़ता है कि महाराणा प्रताप को बगीचों का निर्माण करवाना पसंद था।
अमरकाव्य, राजप्रशस्ति और यहां तक की महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध में भाग लेने वाले चारण कवि रामा सांदू झूलणा महाराणा प्रतापसिंह जी रा में दोहों के जरिए लिखते हैं,
जिनका अर्थ है कि महाराणा प्रताप अपने अश्वारोही दल के साथ हल्दीघाटी पहुंचे, परन्तु मुख्य युद्ध खमनौर के मैदान में हुआ।
दरअसल राजा मानसिंह ने हल्दीघाटी में प्रवेश किया ही नहीं, क्योंकि वह जानते थे कि हल्दीघाटी जैसी दुर्गम घाटी में मेवाड़ से जीतना मुमकिन नहीं।
राजा मानसिंह ने हल्दीघाटी से ठीक पहले खमनौर में ही महाराणा प्रताप का इन्तजार किया था। खमनौर में जिस स्थान पर युद्ध हुआ, वो जगह समतल थी और बाद में रक्त तलाई के नाम से मशहूर हुई।
निष्कर्ष रुप में ये कहा जा सकता है कि हल्दीघाटी का युद्ध दर्रे के मुहाने से लेकर बनास नदी के इर्द-गिर्द व खमनौर के मैदान में हुआ।
मेवाड़ की थर्मोपल्ली :- कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को मेवाड़ की थर्मोपल्ली कहा। जेम्स टॉड द्वारा ऐसा कहने के पीछे ये ऐतिहासिक घटना जुड़ी है कि यूनान में थर्मोपल्ली नाम की पहाड़ी घाटी में 400 ईसा पूर्व भयंकर युद्ध हुआ।
इस युद्ध में विशाल ईरानी सेना ने यूनानी सेना पर आक्रमण कर दिया। राजा लिओनिडास पर इस घाटी की रक्षा का दायित्व था।
राजा लिओनिडास ने अपनी 7000 की फौज को दो टुकड़ियों में विभाजित कर ईरानी सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया, परन्तु संख्याबल की जीत हुई और राजा लिओनिडास समेत उनके 6600 सैनिक इस युद्ध में काम आए।
हालांकि महाराणा प्रताप हल्दीघाटी युद्ध में जीवित बचे थे, लेकिन कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध की तुलना थर्मोपल्ली से इसलिए की क्योंकि हल्दीघाटी का युद्ध भी घाटी में लड़ा गया था,
लिओनिडास की तरह महाराणा प्रताप ने भी अपनी फौज को दो टुकड़ियों में विभाजित किया था, ईरानी सेना की तरह मुगल फौज भी हल्दीघाटी में भारी संख्या में आई थी, थर्मोपल्ली और हल्दीघाटी दोनों ही स्थानों को आज बलिदान और अद्भुत शौर्य का प्रतीक माना जाता है।
हल्दीघाटी युद्ध में चारण कवियों की भूमिका :- महाराणा प्रताप की तरफ से इस युद्ध में जिन्दा बचने वाले चारण कवियों में प्रमुख रामा सांदू व गोरधन बोगस थे, जिन्होंने इस युद्ध का कुछ वर्णन किया है।
चारण कवियों का काम लड़ना नहीं था, पर जब ये लोग युद्धभूमि में जाते थे, तो वहां भी अपने शौर्य और बलिदान से बड़ा नाम कमाते। युद्ध से ठीक पहले व युद्ध के दौरान भी ये लोग अपनी वाणी से राजपूतों में गज़ब का जोश भर देते थे।
महाराणा प्रताप के समकालीन चारण कवि दुरसा जी आढा द्वारा रचित दोहा :- अकबर जतन अपार, रात दिवस रोकण करे। पूगी समदां पार, पंगी राण प्रतापसी।।
अर्थात महाराणा प्रताप सिंह की कीर्ति को रोकने के लिए अकबर रात-दिन यत्न करता है, परन्तु वह कीर्ति समुद्र के पार पहुंच गई है।
कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन लिखते समय कुछ बड़ी तथ्यात्मक भूल कर दी, जिसे कई लोग सच मान बैठे। जेम्स टॉड ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का नेतृत्व अकबर के बेटे सलीम ने किया।
वास्तव में हल्दीघाटी युद्ध के समय सलीम की आयु मात्र 7 वर्ष थी और उसने हल्दीघाटी युद्ध में कोई भाग नहीं लिया था।
टॉड ने यह भी लिखा है कि महाराणा उदयसिंह के पुत्र सगरसिंह के पुत्र महाबत खां ने भी हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया। वास्तव में महाबत खां उस समय सलीम से भी छोटा था और वह सगरसिंह का नहीं, बल्कि काबुल के सैयद गफूर बेग का बेटा था।
1576 ई. में अकबर ने अजमेर से राजा मानसिंह को फौज समेत रवाना किया। राजा मानसिंह मांडलगढ़ दुर्ग पहुंचे। मांडलगढ़ में राजा मानसिंह 2 माह (मध्य अप्रैल से मध्य जून) तक रुके। अकबर स्वयं अजमेर से रवाना होकर फतेहपुर सीकरी लौट गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)