अक्टूबर, 1577 ई. में अकबर ने शाहबाज़ खां को कुम्भलगढ़ जीतने के लिए सेना सहित भेजा। शाहबाज़ खां ने 2 बार महाराणा प्रताप से परास्त होने के बाद शक के कारण अपने साथी राजपूतों व अन्य हिंदू अधिकारियों को इस अभियान से हटा दिया।
“मेवाड़ आगम धाम दुग्ग पहार घेरन फेर को। भटसेन साजरु शाहबाज विरोध कुम्भलमेर को।।” घेराबंदी को लगभग 3 माह बीत चुके थे।
1578 ई. की शुरुआत में शाहबाज़ खां ने तीसरी बार कुम्भलगढ़ दुर्ग पर हमला किया। महाराणा प्रताप के इशारे से राजपूतों ने कुम्भलगढ़ की विशाल दीवार पर चढ़कर मुगलों पर तीरों की बौछार कर दी।
इस बार भी शाहबाज़ खां को मुंह की खानी पड़ी। कुछ दिन बाद शाहबाज़ खां ने चौथी बार कुम्भलगढ़ पर हमला किया, लेकिन इस बार भी महाराणा प्रताप विजयी रहे।
शाहबाज़ खां का षड्यंत्र :- अब शाहबाज़ खां समझ चुका था कि केवल बहादुरी दिखाकर कुम्भलगढ़ नहीं जीता जा सकता। कुम्भलगढ़ दुर्ग में पानी का एक विशाल स्त्रोत था नोगन का कुंआ।
एक विश्वासघाती राजपूत देवराज ने शाहबाज़ खां के कहने पर नोगन के कुंए में मरे हुए जहरीले साँप फेंक दिए।पानी का यह विशाल स्त्रोत भी खराब हो जाने के कारण महाराणा प्रताप को दुर्ग छोड़ने पर विचार करना पड़ा।
इस घटना का ज़िक्र ‘रावल राणा री बात’ में किया गया है। कर्नल जेम्स टॉड ने भी इस घटना का हाल लिखा है। इन्हीं दिनों एक और घटना घटित हुई।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में एक विशाल तोप थी, जो अचानक फट गई। इससे राजपूतों की रसद व सैनिक सामग्री जलकर राख हो गई।
महाराणा प्रताप द्वारा दुर्ग छोड़ना :- कुंए में विष मिलाए जाने के बाद किले में मौजूद लोगों की सुरक्षा का ध्यान महाराणा प्रताप को सबसे पहले आया।
महाराणा ने वैसे तो पहले ही भामाशाह कावड़िया के साथ कई लोगों को किले से बाहर निकाल लिया था। लेकिन अब भी कई लोग किले में मौजूद थे।
महाराणा प्रताप ने किले से एक फौजी टुकड़ी को साथ भेजकर किले में रहने वाले अधिकतर लोगों को पहाड़ी रास्तों से बाहर निकलवा दिया। अब किले में कुछ ही लोग शेष रह गए थे।
ग्रंथ वीरविनोद में लिखा है कि “हालात देखकर सब राजपूत सरदारों ने महाराणा प्रतापसिंह से अर्ज किया कि घिरकर मरना आपका काम नहीं है, हम लोग किले में अच्छी तरह लड़ेंगे,
पर अगर आप मारे जावेंगे तो मुल्की दावा कोई न कर सकेगा। इस तरह समझाकर महाराणा को किले से बाहर निकलने को तैयार किया गया।”
ठीक ऐसी ही परिस्थिति 1567 ई. में अकबर के चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के दौरान घटित हुई थी। महाराणा उदयसिंह को भी इसी प्रकार दुर्ग छोड़ना पड़ा था।
दोनों परिस्थितियों में अंतर ये था कि महाराणा प्रताप किले की अधिकतर प्रजा को किले से बाहर निकालने में सफल रहे थे, जबकि 1567 ई. में ऐसा नहीं हो पाया था। इसमें दोष चित्तौड़गढ़ किले की संरचना का था।
चित्तौड़गढ़ किला एक ही पहाड़ी पर बना है, जिससे उसकी घेराबंदी सम्भव थी। लेकिन कुम्भलगढ़ को पूर्ण रूप से नहीं घेरा जा सका और महाराणा प्रताप की कुशलता से प्रजा सुरक्षित हो पाई।
मार्च, 1578 ई. में महाराणा प्रताप ने अपने मामा भाण सोनगरा चौहान को कुम्भलगढ़ का किलेदार नियुक्त किया। ये पाली के अखैराज सोनगरा के द्वितीय पुत्र थे।
भाण सोनगरा के बड़े भाई मानसिंह सोनगरा पहले ही हल्दीघाटी की लड़ाई में काम आ चुके थे। इसी माह की अर्द्धरात्रि को महाराणा प्रताप ने वेश बदलकर कुछ चुने हुए सरदारों व सैनिकों के साथ कुम्भलगढ़ दुर्ग छोड़ दिया।
दुर्ग छोड़ते समय पहाड़ियों में मुगलों की एक टुकड़ी से लड़ाई हुई, जिसमें महाराणा प्रताप के साथी घाणेराव के ठाकुर गोपालदास राठौड़ को 21 घाव लगे, फिर भी जीवित रहे।
महाराणा प्रताप रामपुरा होते हुए बांसवाड़ा पहुंचे। इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि “किला छोड़ने की यह कार्रवाई महाराणा प्रताप के सारे जीवन के अनुकूल थी,
क्योंकि वीर होते हुए भी उन्होंने वास्तविकता और सेनाध्यक्ष की आवश्यकताओं से आंखें नहीं मूंद रखी थी। किले को छोड़ना और सुरक्षा के साधनों का बलिदान करना उतनी बड़ी क्षति नहीं थी,
जितनी शत्रु के सामने, किले पर संकट आने पर, सबके पीछे हटने पर उठानी पड़ती। महाराणा प्रताप का लक्ष्य था कि शत्रु को अलग-अलग हराया जाए।”
महाराणा प्रताप के द्वारा दुर्ग छोड़ने के बाद भाण जी सोनगरा के नेतृत्व में राजपूतों ने विजय या वीरगति को लक्ष्य बना दिया। अब राजपूतों का उद्देश्य शत्रु का अधिक से अधिक नुकसान करना था, चाहे प्राण ही क्यों न जाए।
शाहबाज़ खां की सेना किले के निकट पहुंच गई। राजपूतों के हथियार आदि विस्फोट के कारण जल गए थे। फिर भी शेष हथियारों से शत्रुओं का सामना किया गया। बड़े-बड़े पत्थर किले की दीवारों से लुढ़काये गए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)